Shyam Kishore Choubey
उधर जयंत सिन्हा राजनीति से आउट हो गए, इधर कल्पना सोरेन की सियासी इन्ट्री हो गई. तीन बार के सांसद सुदर्शन भगत बेटिकट कर दिये गये. जयंत और सुदर्शन केंद्र में मंत्री रह चुके थे. जयंत अपने पिता यशवंत सिन्हा की विरासत संभालने आये थे, लगातार दो बार सांसद रहे, लेकिन चुनाव से ऐन पहले उनका मन वैश्विक जलवायु पर काम करने के लिए मचलने लगा. जब कैंडिडेचर का ऐलान होना था, उसके चंद घंटे पहले पता नहीं क्यों उनका मन मचला. उधर कलकत्ता हाईकोर्ट के जज जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय का मन राजनीति के लिए लपलपाने लगा तो उन्होंने पांच मार्च को इस्तीफा कर दिया. दो साल में उन्होंने ममता सरकार से जुड़े 14 मामले सीबीआई/ईडी को सौंप दिया था, अब खुद को भाजपा के हवाले कर दिया. कुछ अरसा पहले तक भाजपा को पानी पी-पीकर कोसनेवाले सुभासपा वाले ओम प्रकाश राजभर ललबतिया सुख पाकर लहालोट होने लगे. टेढ़े-टेढ़े चल रहे जयंत चौधरी दादा को भारत रत्न की घोषणा के साथ नतमस्तक हो गये. उनके खासमखास अनिल कुमार लखनऊ में मंत्री बना दिये गये. आये दिन ऐसी एक नहीं, अनेक घटनाएं हो रही हैं और 140 करोड़ लोग जग का मुजरा ले रहे हैं. जहां 80 करोड़ से अधिक आबादी पांच किलो अनाज पर ही फिदा है, वहीं कोई राष्ट्र सेठ शादी से पहले के मुजरे पर 70-80 करोड़ लुटा देने में हिचकता तक नहीं.
विविधताओं का यह देश ऐसे ही चलता रहेगा! यह सवाल अब शायद किसी को विचलित नहीं करता. जब एक किनारे बैठे लोग ‘गंगा नहाए’ हों और दूसरी तरफ वाले ‘कीचड़ सने’, तो ऐसा कोई सवाल नहीं उठना चाहिए, जो मन को मथे. उस पार जाते ही शुद्धता की गारंटी का विकल्प तो है ही. राजनीति राज की नीति, यूं कहें कि राज्य करने की नीति हो गई तो अपनी भलाई चाहनेवालों को चाहे जैसे भी हो, अपना भला करते रहना चाहिए.
बहरहाल, आगे की खेती आगे-आगे… मसल पर अमल करते हुए संसदीय चुनाव की घोषणा के पहले ही भाजपा ने दो मार्च को अपने 195 उम्मीदवारों का एलान कर उन्हें कमर कस लेने का मौका दे दिया. यह अच्छी बात है. भाजपा के प्रतिद्वंद्वी अभी आपस में ही फरिया रहे हैं और फिर शायद अपने घर में ही फरियाएंगे और तब गरियानेवाले अपनों की एक जमात खड़ी कर मैदान में उतरेंगे. उनके लिए ऊपर की मसल की अगली लाइन होगी, पाछे की खेती भागे-जोगे यानी किस्मत ने साथ दिया तो ठीक, नहीं तो गिरे हुए को और गिरने की फिक्र कहां! इसका एक दूसरा पहलू भी है, सामने वाले को परखकर मुकाबले के लिए अधिक मजबूत पहलवान उतारना. ऐसा हो तो सियासी समां बदल जाए.
बहुत पहले ‘रागदरबारी’ नामक एक व्यंग्य उपन्यास बहुचर्चित हुआ था. उसको एपिक नॉवेल कहा जाता है. उसमें बनारस के निकट के गांव शिवपालगंज में पूरा भारत दिखाया गया है. उसी तर्ज पर छोटे से झारखंड में पूरा भारत झांकने की कोशिश की जा सकती है. इसकी कुल जमा 14 संसदीय सीटों में से भाजपा को पिछली बार 11 तथा उसकी सहयोगी आजसू के हाथ एक लगी थी. इस बार भाजपा ने पहली लिस्ट में 11 उम्मीदवारों का एलान किया. इनमें सात रिपीट किये गये हैं. जयंत और सुदर्शन को गुडबॉय कर उनकी जगह पर क्रमशः एमएलए मनीष जायसवाल और राज्यसभा का पहला टर्म पूरा करने जा रहे समीर उरांव को उतारा गया है. कांग्रेस छोड़कर ताजा-ताजा भाजपा में आईं सांसद गीता कोड़ा को भी बर्थ मिली. आजसू, झामुमो, कांग्रेस और बेशक भाजपा में भी रहे ताला मरांडी को भी भाजपा ने चुना. ये वही ताला मरांडी हैं, जिनको विधायक रहते आठ साल पहले प्रदेश भाजपा की सदारत सौंपी गई थी. लेकिन आनन-फानन में चलता भी कर दिया गया था, क्योंकि एक तो उन्होंने अपने बालिग बेटे की शादी 11 वर्षीया लड़की से कर दी थी, दूसरी बात यह कि झारखंड के पुराने भूमि कानूनों सीएनटी/एसपीटी एक्ट पर पार्टी लाइन से अलग बोल दिया था. वे दो बार विधायक रह चुके हैं. तीसरी बार के चक्कर में दल बदलकर 2019 में मैदान में जमे थे, लेकिन वोटरों का दिल उन पर बिलकुल नहीं जमा. उनको जिस राजमहल सीट से उम्मीदवार बनाया गया है, वह झामुमो के गढ़-क्षेत्र में है.
झामुमो की चाबी शिबू सोरेन परिवार के पास रहती आयी है. फिलहाल सोरेन परिवार चौतरफा घिरा हुआ है. हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री रहते 31 जनवरी की रात ईडी ने जमीन घोटाले में बंदी बना लिया था. उन पर और केस बनाये जा सकते हैं. इसी हफ्ते बजट सत्र में भाग लेने तक की अदालत ने उनको इजाजत नहीं दी. उन पर लंबी अवधि तक शिकंजा कसे रहने की आशंका के कारण भी उनकी पत्नी कल्पना सोरेन 4 मार्च को घर-आंगन की देहरी लांघ सार्वजनिक जीवन में उतर पड़ीं. हेमंत की विधायक भाभी सीता सोरेन पर 2012 के राज्यसभा चुनाव में दर्ज नोट फॉर वोट मामला गहराता जा रहा है. खुद शिबू सोरेन को लोकपाल की अदालत में चल रहा आय से अधिक संपत्ति का केस राहत नहीं दे रहा. इसके बावजूद राज्य की राजनीति पर इस परिवार की पकड़ ढीली नहीं दिखती. भाजपा की असल चिंता यही है. किराये के कमरे में रहनेवालों के लिए राजनीति में अब जगह कहां है? विधायक/सांसद की कौन कहे, मुखिया/वार्ड काउंसलर के भी पांव जमीन पर नहीं टिकते. इसलिए हर सामर्थ्यवान राजनीति की ओर दौड़ता है और आज के युवावर्ग का बड़ा तबका जिंदाबाद-मुर्दाबाद चिल्लानेवालों की टोली में अपना भविष्य तलाशता है.
डिस्क्लेमर :ये लेखक के निजी विचार हैं.