Gladson Dungdung
भारतवंशी ऋषि सुनक का ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनते ही देश की विविधता, सहिष्णुता और उदारता पर एक बार फिर से देशभर में चर्चा होने लगी. कांग्रेस सहित विपक्षी पार्टियों के कुछ नेता मौजूदा सरकार का निशाना साधने लगे, लेकिन भाजपा और कांग्रेस दोनों ने एक सुर में कहा कि भारत को ब्रिटेन से विविधता, सहिष्णुता और उदारता सीखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि हमारा देश इसमें विश्वगुरू है. निश्चित तौर पर विश्व में भारत ‘‘विविधता की धरती” के रूप में जाना जाता है. यहां लोगों का खान-पान, रंग-रूप एवं वेश-भूषा अलग-अलग पाये जाते हैं, अनेक तरह की भाषाएं बोली जाती हैं और यहां विभिन्न धर्म-पंथ, संस्कृति, रंग-रूप, पर्व-त्योहार एवं रीति-रिवाजों को मानने वाले लोग निवास करते हैं. लेकिन विविधता, सहिष्णुता और उदारता की जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है. भारतीय समाज वर्ण, जाति, धर्म, पंथ, नस्ल, लिंग, रंग, भाषा एवं क्षेत्रीयता में न सिर्फ विभाजित है, बल्कि इनके आधार पर देश में नफरत, हिंसा एवं दंगा का सैलाब भी आता रहता है. हिन्दू-मुस्लिम नफरत, हिंसा और दंगे से कौन वाकिफ नहीं है? दलित और आदिवासियों पर जाति एवं नस्ल आधारित भेदभाव, अत्याचार और हिंसा आज भी जारी है. दलितों का सवर्णों की संस्कृति का पालन करना निषेध है. वे न मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं और न ही घोड़ी पर चढ़ कर बारात निकाल सकते हैं. आदिवासियों की भाषा, संस्कृति, खान-पान, वेशभूषा एवं रंग-रूप से तथाकथित सभ्य लोगों को नफरत है. इसी तरह मराठी लोग बिहारियों के छठ पूजा को स्वीकार नहीं करते हैं. महाराष्ट्र से उत्तर भारतीय खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश वालों के साथ मारपीट की घटनाएं निरंतर होती रही हैं. इसी तरह दक्षिण भारतीयों को हिंदी भाषा स्वीकार नहीं है. गर्व से बोलो, हम हिन्दू हैं का नारा देने वाले सवर्ण लोग ओबीसी, दलित और आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण का पुरजोर विरोध करते हैं. विविधता, सहिष्णुता और उदारता का ढोल पीटने वाले राजनीतिक दल धर्म, जाति और क्षेत्रीयता के आधार पर लोगों को बांटकर सत्ता का मजा लेते हैं. देश में एक धर्म, एक भाषा और एक संस्कृति का वकालत करने वाली भाजपा का निरंतर बहुमत से जीतना क्या दर्शाता है?
भाजपा और कांग्रेस के नेताओं का तर्क है कि भारत अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को हमेशा सर्वोच्च पद पर बैठाता रहा है, इसलिए हमें इस मसले पर पश्चिमी देशों से ज्ञान लेने की जरूरत नहीं है. लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि मुस्लिम, सिख, दलित, आदिवासी या अन्य किसी अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति को राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनाना देश की राजनीतिक मजबूरी है, यह विविधता, सहिष्णुता एवं उदारता का जश्न मनाने का प्रमाण नहीं. यदि ऐसा होता तो सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से नहीं रोका गया होता. सोनिया गांधी का लंबे समय तक कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बने रहना भी कांग्रेस की राजनीतिक मजबूरी थी. क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि भारतीय मूल के लोगों को पश्चिमी देशों में बड़े पद हासिल होने से हम गर्व करते हैं, लेकिन हमें विदेशी मूल के लोग स्वीकार्य नहीं है, फिर भी दावा करने से नहीं चुकते हैं कि विविधता, सहिष्णुता एवं उदारता के मामले में हम विश्वगुरू हैं? देश में विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, जाति एवं नस्ल के लोग निवास करते हैं यह भी हमारी मजबूरी है. देश की विविधता को समाप्त करते हुए सिर्फ सवर्णों का धर्म, संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन एवं रीति-रिवाज को देश के 130 करोड़ आबादी पर थोपा जा रहा है. भोजन, धर्म एवं अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगाना क्या विविधता की निशानी है?
हमलोग सिर्फ ऋषि सुनक के मसले से भी देश में मौजूद विविधता, सहिष्णुता एवं उदारता की जमीनी हकीकत को परख सकते हैं. जब भारतीय मीडिया ने देशभर में खबर फैलाया कि भारतवंशी ऋषि सुनक ब्रिटेन के पहले हिन्दू प्रधानमंत्री होंगे, तब बहुत सारे लोगों में गजब का उत्साह दिखाई दिया था. मानो एक हिन्दू ने ब्रिटेन को कब्जा करते हुए अंग्रेजों के द्वारा भारत को दो सौ साल गुलाम रखने का बदला ले लिया हो! लेकिन जैसे ही उनका एक पुराना वक्तव्य सोशल मीडिया में वायरल हुआ, जिसमें उन्होंने कहा है कि वे खुद तो गोमांस नहीं खाते हैं, लेकिन किसी को गोमांस खाने से मना नहीं करेंगे और इसे किसानों के हक में सजा भी देंगे, उनको भला-बुरा कहने वालों की संख्या में अचानक बाढ़ आ गई. क्या ऐसी प्रतिक्रिया विविधता, सहिष्णुता एवं उदारता का जश्न मनाने वाले देश की हो सकती है?
ऋषि सुनक के पूर्वजों का मूल गांव मौजूदा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है, जहां से उनका परिवार पलायन करते हुए पहले केन्या गया. फिर वहां से भारत आने के बजाय ब्रिटेन जाकर बसा. इसलिए सवाल पूछना बनता है कि सुनक को सिर्फ पंजाबी हिन्दू ब्राह्मण होने की वजह से भारतवंशी बताकर गर्व महसूस करने वाले लोग क्या उसी उदारता का परिचय देते हुए गर्व करते और उन्हें भारतवंशी बताते यदि वे मुस्लिम समुदाय से होते? यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि विविधता, सहिष्णुता एवं उदारता हमारे देश में सिर्फ कागज पर ही सीमित रह गये हैं. वर्ण, जाति, धर्म, नस्ल, लिंग, रंग, भाषा एवं क्षेत्रीयता नामक दीमकों ने इन्हें अंदर से खोखला कर दिया है, जिसे एक धर्म, एक भाषा एवं एक संस्कृति की वकालत करते हुए संघ परिवार हमेशा के लिए नेस्तनाबूद करने में लगा हुआ है. पुनश्च : दरअसल दक्ष्रिण एशिया के देशों में विविधता और बहुलता के बजाय एक ही तरह की भाषा, संस्कृति और विचारों में जनसमुदायों पर थोपने की प्रवृत्ति जोरों पर है. भारत में भी वन नेशन वन कल्चर के नाम पर क्षेत्रीय विविधताओं का निषेध करने का राजनीतिक प्रयास किया जा रहा है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.