Girish Malviya
पेगासस प्रोजेक्ट की अगली कड़ी में “द वायर” ने खुलासा किया है कि 23 अक्टूबर 2018 को जब आधी रात को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आलोक वर्मा को सीबीआई प्रमुख के पद से हटाया था. उसके फौरन बाद ही किसी ऐसी भारतीय एजेंसी ने आलोक वर्मा और उनके परिवार के सदस्यों के फोन नंबर को निगरानी सूची में डालने का आदेश दिया था, जिस समय आलोक वर्मा को पद से हटाया गया. उस समय उनके कार्यकाल के तीन महीने बाकी थे.
आपको याद होगा कि 25 अक्टूबर 2018 में सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा के सरकारी बंगले के सामने की सड़क पर इधर-उधर ताक-झांक करते देखे गए चार व्यक्तियों को पकड़ा गया था. बाद में पता चला था कि चारों इंटेलिजेंस ब्यूरो के लोग थे. और अब पेगासस खुलासे में पता चला है कि उनके और उनसे जुड़े लोगों के फोन की जासूसी की गई. आखिर आलोक वर्मा से ऐसी गलती क्या हो गयी?
दरअसल, उस वक़्त आलोक वर्मा के पास कुल सात महत्वपूर्ण मामलों की फाइलें थीं. इसमें सबसे महत्वपूर्ण थी राफेल से जुड़ी फाइलें. राफेल से जुड़े दस्तावेज आलोक वर्मा के पास पहुंच चुके थे. राफेल मामले की गहन तफतीश चल रही थी. दो पूर्व केंद्रीय मंत्रियों और प्रशांत भूषण ने रॉफेल मामले के सिलसिले में 4 अक्टूबर 2018 को जांच ब्यूरो के निदेशक आलोक वर्मा से मुलाकात के बाद जांच ब्यूरो में अपनी शिकायत दायर की थी. इस मामले से जुड़े कई अहम दस्तावेज और दूसरे सबूत आने वाले थे. सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा राफेल सौदे की फाइल मंगाने के लिए रक्षा सचिव संजय मित्रा को चिट्ठी लिख चुके थे. सरकार चाहती थी वर्मा यह चिट्ठी वापस ले लें.
आलोक वर्मा किसी भी वक्त में विमान सौदे की जांच की घोषणा कर सकते थे. आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक के पद पर काम करने के लिए अगर चंद घंटे और मिल जाते तो केंद्र सरकार हिल जाती.
राफेल के अलावा उनके पास मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया में रिश्वत के मामले की फाइल भी रखी हुई थी. इसमें उड़ीसा उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश आईएम कुद्दुसी का तथा इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश एसएन शुक्ला का भी नाम था. अगर यह जांच अपने अंजाम पर पहुंच जाती तो देश की न्यायपालिका की असलियत लोगों के सामने आ जाती.
आलोक वर्मा के पास कोयले की खदानों के आवंटन मामले में प्रधानमंत्री के सचिव आईएएस अधिकारी हंसमुख अधिया के ख़िलाफ़ शिकायत पुहंच गयी थी. इस मामले के खुलने से भी मोदी सरकार मुश्किल में पड़ सकती थी.
इसके अलावा संदेसरा और स्टर्लिंग बायोटेक के मामले की जांच पूरी होनी वाली थी. इसमें सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना की कथित भूमिका की जांच की जा रही थी.
जाहिर है अगर जांच तेज होती तो “ना खाउंगा, ना खाने दूंगा” का सच सामने आ जाता है. यही कारण था कि मोदी सरकार को आलोक वर्मा फूटी आंख नही सुहा रहे थे. वह उन्हें एक दिन भी और बर्दाश्त नहीं कर सकती थी. इसलिए इतिहास में पहली बार किसी सीबीआई प्रमुख को भ्रष्टाचार और काम में लापरवाही का आरोप लगाकर हटाया गया.
रातों रात प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली नियुक्ति समिति ने आलोक वर्मा की जगह संयुक्त निदेशक एम नागेश्वर राव को तत्काल प्रभाव से सीबीआई निदेशक के पद का प्रभार दिया. जबकि कानून में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि सीबीआई निदेशक को 2 साल से पहले हटाया जा सके.
वर्मा ने इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज जस्टिस एके पटनायक की देखरेख में सीवीसी ने सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की थी.
आलोक वर्मा की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने साफ फैसला दिया था कि श्री वर्मा को अधिकारविहीन बनाकर छुट्टी पर भेजने का फैसला कानूनन गलत था. क्योंकि इसका निर्णय करने का हक केवल उस तीन सदस्यीय उच्च समिति के पास ही था, जो उन्हें नियुक्त करती है. जबकि सरकार ने जबरन छुट्टी पर भेजने का फैसला केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त की रिपोर्ट पर लिया.
जस्टिस पटनायक ने विभिन्न मीडिया हाउस से बातचीत करते हुए साफ कहा कि वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार के कोई साक्ष्य नहीं हैं. और पीएम मोदी के नेतृत्व वाले पैनल द्वारा आलोक वर्मा को हटाना बहुत ही जल्दबाजी में लिया गया निर्णय था.
आलोक वर्मा को इस प्रकार पद से हटाया जाना साफ दिखाता है कि यह सरकार राफेल ओर अन्य मामलों में अपने खिलाफ आए भ्रष्टाचार के सुबूतों से कितना डरी हुई थी.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.