Shyam Kishore Choubey
इसी साल 10 अप्रैल 2022 की वह भीषण गर्म शाम थी, जब देवघर के निकट त्रिकुट पर्वत पर श्रद्धालुओं को ले जा रही केबुल कारें अचानक थम गई थीं, क्योंकि रोपवे का तार टूट गया था. उनमें सवार लगभग चार दर्जन लोगों की जान सांसत में आ गई थी. खैर, जैसे-तैसे 44 श्रद्धालुओं को तो बचा लिया गया, लेकिन तीन की जान चली गई.
इधर 30 अक्टूबर को गुजरात के मोरबी में सस्पेंशन ब्रिज के टूट जाने से मच्छू नदी में गिरकर 140 लोगों की अकाल मौत हो गई. 143 वर्ष पूर्व बने इस झूलते केबुल पुल को मरम्मत के लिए सात महीने पहले बंद कर दिया गया था. दो करोड़ रुपये में मरम्मत कर गुजराती नववर्ष से एक दिन पहले 25 अक्टूबर को पर्यटकों के लिए इसे खोला गया था. 25 वर्ष की गारंटी वाला मरम्मतशुदा यह पुल पांच दिन भी न टिक सका. पर्यटक इसपर जाने के लिए तय कीमत से दो रुपये अधिक देकर 17 रुपये में टिकट खरीदते थे. इंजीनियरिंग का कमाल कहे जानेवाले इस पुल का निर्माण राजा बाघजी रावजी ने 1879 में कराया था. 765 फुट लंबे और चार फुट चौड़े इस पुल का उद्घाटन तत्कालीन बॉम्बे स्टेट के गवर्नर रिचर्ड टेम्पल ने किया था. यह पुल दरबारगढ़ पैलेस को नजरबाग पैलेस से जोड़ता था. पुराने पुलों की कौन कहे, निर्माणाधीन भवनों, पुलों के भी गिरने-ढहने की देश में कई घटनाएं हो चुकी हैं. 31 मार्च 2016 को नॉर्थ सेंट्रल कोलकाता में निर्माणाधीन विवेकानंद रोड फ्लाईओवर के एक हिस्से का 150 मीटर स्टील स्पैन ध्वस्त हो जाने से 26 लोगों की मौत हो गई थी.
अपने देश में आईआईटीयन इंजीनियरों की जमात, आधुनिक तकनीक और भारी खर्च के बावजूद निर्माणाधीन या नवनिर्मित पुलों/भवनों के ध्वस्त होने की लंबी सूची है. अब तो बड़ी-बड़ी कन्सलटेंट कंपनियों को ऐसे निर्माणों की डिजाइन से लेकर उनकी तैयारी तक की जवाबदेही सौंपी जाने लगी है. राज्य सरकारों ने अपने डिजाइन सेक्शन को मार ही डाला है. ऐसी ‘हत्याओं’का कारण अबूझ नहीं है. महंगी राजनीति को और महंगी बनाने में इस तकनीक का बड़ा योगदान है. झारखंड की राजधानी रांची में 12 साल पहले बनवाया गया हज हाउस हो कि खूंटी के निकट कांची नदी और बमलाडीह या कि धनबाद के निकट बराकर नदी पर बनाया गया पुल, इनके ध्वस्त होने की दास्तान आधुनिक तकनीक और इंजीनियरों का मुंह चिढ़ाती है. इस राज्य में तो हर बरसात में दो-चार पुल धंसते ही रहे हैं. ऐसा अन्य राज्यों में भी होता है.
सामान्य तौर पर ऐसी घटनाओं के लिए ठेकेदार या उनके कर्मी अथवा जूनियर अधिकारियों पर छोटी-मोटी कार्रवाई कर सरकारें अपने दोष-पाप से मुक्त हो जाती हैं. मोरबी हादसे में भी अभी तक यही देखने को मिला है. विकास का कथित गुजरात मॉडल भले ही उछाला जाता है, लेकिन मोरबी हादसा हो कि कुछ ही अरसा पहले का ठर्रा हादसा, इनकी दास्तान झारखंड या बिहार से अलग नहीं है. गुजरात और बिहार में शराबबंदी के बावजूद अवैध शराब से मौतें होती रही हैं.
झारखंड को प्रकृति ने अपने खजाने से अमूल्य नदी, झरने, पहाड़, जंगल आदि के साथ-साथ बेशकीमती खनिज और रत्नों का भंडार देकर जितना समृद्ध और दर्शनीय बनाया है, शासन-प्रशासन ने अपनी बदइंतजामियों और लालची प्रवृत्तियों के कारण इसे बड़े-बड़े दाग-धब्बों से भर दिया है. सोचने की बात है कि त्रिकुट रोपवे हादसे के 80 दिनों बाद उच्चस्तरीय सरकारी टीम उसका अध्ययन करने गई थी. उसने रोपवे चालू करने के लिए सुरक्षा मानकों की भी जांच की थी. समझा जाता था कि उसकी रिपोर्ट के बाद नये सिरे से रोपवे सिस्टम बहाल कर दिया जाएगा. सात महीने बाद भी परिणाम शून्य है. 2,108 एकड़ में फैले भूतल से 1,505 फीट और समुद्र तल से 2,500 फीट ऊंचे इस पहाड़ के तीनों खंडों को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में पूजा जाता है. इसके द्वितीय खंड के बीच इतनी पतली और गहरी दरार है कि चाहे तो आदमी उसे फांद जाए, लेकिन गिरा तो गया. प्रथम खंड प्राकृतिक रूप से हाथी के स्वरूप में है तो दूसरे खंड पर विशाल कछुए की आकृति बनी हुई है. इसी पहाड़ से मयूराक्षी नदी निकलती है. 1773 में ब्रिटिश कैप्टन ब्रुक ने इसी पहाड़ पर मौजूद किले से तोप दागकर स्वतंत्रता आग्रही अनेक पहाड़िया वीर बांकुड़ों का कत्ल करते हुए उनके कई गांव जला दिया था. ऐसे ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल पर इसी सदी में तैयार किये गये रोपवे की पुनर्बहाली न होना एक तो राजस्व का नुकसान है, दूसरे इस पर पलनेवाले अनेक स्वरोजगारी ठेला-खोमचेवालों और गाइडों के रोजगार पर सीधा प्रहार है.
विकास का अंतर्संबंध राजनीति और घपले-घोटालों से भी है. मोरबी, त्रिकुट और कोलकाता की घटनाओं पर राजनीति का अजीब सा चेहरा दिखता है. त्रिकुट हादसे पर राजनीति स्थानीय स्तर पर हुई, जबकि कोलकाता हादसे के समय बंगाल में चुनावी दौर चल रहा था. तब वहां एक सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की आलोचना करते हुए कहा था, ‘यह दैवी कृत्य नहीं, फ्रॉड कृत्य है. यह दैवी कृत्य इस मायने में है कि यह हादसा चुनाव के ऐन वक्त पर हुआ है, ताकि लोगों को पता चल सके कि उनपर किस तरह की सरकार शासन कर रही है. ईश्वर ने यह संदेश भेजा है कि आज यह पुल गिरा है, कल वे पूरे बंगाल को खत्म कर देंगी. आपके लिए ईश्वर का संदेश बंगाल को बचाना है.’ राजनीति की बात है, मोरबी हादसा कहीं बड़ा है और गुजरात चुनाव के मुहाने पर खड़ा है, लेकिन नरेंद्र मोदी ने इस बार ऐसा कुछ नहीं कहा.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.