Dr. Mayank Murari
भारत में लोकतंत्र का इतिहास उतना पुराना है, जितना यूरोप और अमेरिका का अस्तित्व भी नहीं था. यही नहीं लोकतंत्र के पैमाने पर भारत की उपलब्धि और प्रतिभागिता विश्व के तथाकथित लोकतांत्रिक देशों से भी बेहतर रहा है. प्रजातांत्रिक व्यवस्था हमारी संस्कृति की प्राणवायु रही है. जब पश्चिमी राष्ट्रों में प्रजातंत्र को लेकर आपाधापी मची थी, उस समय 19 वीं सदी में स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में प्राचीन भारतीय आदर्शों के आधार पर प्रजातंत्र की स्थापना का समर्थन किया.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने लंदन में अपने भाषण के माध्यम से भारत के लोकतंत्र, राजनीति, संसद, न्यायिक प्रणाली पर सवाल खड़ा कर एक बड़ा विवाद को जन्म दे दिया है. उनका कहना कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है. उन्होंने लोकतंत्र को बहाल करने के लिए अमेरिका और यूरोप को भारत में हस्तक्षेप करने की बात कही है. यह भारत में लोकतंत्र की समृद्ध परंपरा पर सवाल खड़ा करने वाली बात है. भारत में लोकतंत्र का इतिहास उतना पुराना है, जितना यूरोप और अमेरिका का अस्तित्व भी नहीं था. यही नहीं लोकतंत्र के पैमाने पर भारत की उपलब्धि और प्रतिभागिता विश्व के तथाकथित लोकतांत्रिक देशों से भी बेहतर रहा है. प्रजातांत्रिक व्यवस्था हमारी संस्कृति की प्राणवायु रही है. जब पश्चिमी राष्ट्रों में प्रजातंत्र को लेकर आपाधापी मची थी, उस समय 19 वीं सदी में स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में प्राचीन भारतीय आदर्शों के आधार पर प्रजातंत्र की स्थापना का समर्थन किया.
भारत का स्वाधीनता संघर्ष इन्हीं मूल्यों को केन्द्र में रखकर लड़ा गया. जब पाश्चात्य साम्राज्यवाद भारतीय सभ्यता को लोकतंत्र के बीजारोपण के लिए प्रतिकूल भूति मानते रहे थे, तब भी राष्ट्रवादियों ने इसके प्रति गंभीर निष्ठा व्यक्ति की. 1920 में सहयोग आंदोलन शुरू करने के गाँधीजी के प्रस्ताव मतदान पश्चात् ही स्वीकृति हो सका. 1929 की लाहौर कांग्रेंस में अकेले महात्मा गांधी ने वाइसराय की ट्रेन पर बम फेंकने की घटना का विरोध किया और उनका प्रस्ताव 794 के विरोध में 942 के मामूली मत से ही पारित हो सका. प्रजातंत्र में विरोध व्यक्त करने का सबको अधिकार है. प्रजातंत्र के तथाकथित स्वयंभू देश इंगलैण्ड ने भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में कैसे-कैसे मापदण्ड बनाये हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. इसका एक लम्बा इतिहास रहा है.यद्यपि भारत में राजसत्ता राजा तथा राजतंत्र में अन्तर्निहित रही थी, लेकिन वह जागरूक राजतंत्र रहा था. राजा तथा राजतंत्र रूपी राजसत्ता पर नियंत्रण सदैव रहा है. एक तरफ संस्कार द्वारा जनता के धर्म के बारे में प्रशिक्षित कर जागरूक बनाया जाता तो दूसरी ओर राजा एवं राजतंत्र को उनके कर्त्तव्यों के प्रति क्रियाशील बनाया जाता. यहां हम इसलिए हिन्दू राजव्यवस्था को रूढ़, गलत, प्राचीन अव्यावहारिक एवं परम्परागत नहीं कह सकते क्योंकि यहां राजसत्ता का प्रमुख राजा होता था.
प्रजातंत्र में भी सत्ताधारी का निरंकुश तानाशाह बन जाने की गुंजाईश नहीं रहती है, ऐसा कहना गलत होगा. इन्द्रिरा गांधी के आपातकाल को याद कीजिए. हिटलर मुसोलिनी इसी प्रजातांत्रिक व्यवस्था के तहत स्वेच्छाचारी बने. नेहरू, रूजवेल्ट, चर्चिल, मारगेट थैचर, फिडल कास्त्रो आदि इसी प्रजातंत्र में एक राष्ट्राध्यक्ष (राजा) की तरह वर्षों सत्ता सुख भोगे हैं. प्रजातंत्र के अन्य बुराइयों तथा अयोग्यों की पूजा जनशक्ति का शक्ति में बदलाव, अनुत्तरदायी शासन, बहुमत का अत्याचार, दलगत आदि बुराइयों को छोड़ भी दिया जाए तो प्रजातंत्र में बहुसंख्या के निर्णयों को स्वीकारने की बात अव्यवहारिक एवं प्रजातांत्रिक मूल्यों के क्षरण का ही प्रतीक है. प्रजातंत्र का मतलब राजसत्ता पर जनशक्ति के नियंत्रण से है. परन्तु यदि 51 प्रतिशत लोग 49 प्रतिशत के खिलाफ कार्य करेंगे तो यह स्वतंत्रता एवं प्रजातांत्रिक भावना के विरुद्ध है. ठीक इसी प्रकार एक व्यक्ति भी अगर राष्ट्रीय हित में कार्य करता है, धर्माचरण व्यवहार करता है तो बहुमत उसके पक्ष में न होते हुए भी, वह सही है.
अतः उसके आचरण, कार्य का बहुमत के आधार पर निर्धारण नहीं हो सकता. श्रीकृष्ण का युद्ध में प्रतिज्ञा भंग, राणा प्रताप का स्वतंत्रता संघर्ष, सुभाषचन्द्र बोस का स्वेच्छाचारी शासकों का सहयोग राजधर्म, राष्ट्रीयता के आधार पर सही है. आज कहने के लिए हम कह सकते हैं कि भारत में प्रजातांत्रिक व्यवस्था है. जनता के द्वारा चुना व्यक्ति देश का मुख्य शासक (प्रधानमंत्री) होता है. परन्तु यथार्थ कुछ दूसरा ही है. 50 साल से अधिक के शासनकाल में लगभग 45 एक ही पार्टी का और उसमें से भी 37-38 साल एक ही परिवार (नेहरू) का शासन रहा है. और जनता द्वारा ये चुनकर जाते हैं. तो इसका क्या मतलब मिलता है? यह राष्ट्र क्या आज भी भारतीय परम्परावादी लोकतंत्र (राजतंत्र) को ही बेहतर मानता है? आज भी प्रधानमंत्री जनता के द्वारा सीधे निर्वाचित नहीं होते. उन्हें सांसद चुनते हैं. यहां इस चुनने की प्रक्रिया एवं मापदण्ड का प्रश्न नहीं उठा रहा हूं. जब जनता को यह मालूम ही नहीं कि (कम से कम प्रत्यक्षरूप में) किस दल की सरकार बनने पर कौन प्रधानमंत्री होगा तो क्या इसे जनता द्वारा चुना प्रधानमंत्री कहना न्यायसंगत होगा?
विचारक प्राचीन भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था को समस्त अच्छाई की बावजूद इसलिए स्वीकार नहीं करते कि वह राजतंत्र था. परन्तु पाश्चात्य दुनिया में प्रजातंत्र के जननी के रूप में विख्यात इंगलैण्ड में आज भी प्रजातांत्रिक राजतंत्र है, गणतंत्र (गणराज्य) नहीं. वहां का शासन प्रधान राजा होता है और उस पद पर उसका अधिकार वंशानुगत था. परन्तु भारत में जिस किसी के पास राजा की योग्यता हो गई, वह अपने राजपद को वैधानिक रूप देता है. उसी परम्परा के कारण आज भी भारत के राष्ट्रपति के पद पर कोई भी योग्य व्यक्ति पहुंच सकता है. हिन्दुस्तान की राष्ट्रीयता, इतिहास, जीवन-पद्धति और दर्शन का श्रीगणेश वैदिक युग के ऊषाकाल से हुआ है. इसी परम्परा के अनुसार राजा एवं राजतंत्र अभ्युदय भारत में लोगों को प्रजातांत्रिक भावना के कारण हुआ था. प्राचीन भारतीय विचारकों के मतानुसार मानव-सृष्टि के ऊषाकाल में राजा का दण्ड विद्यमान नहीं था.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.