सरजोमा गाँव की कहानी
सरजोमा गाँव बसने से पहले यहाँ जंगल ही जंगल था. उस जंगल में सखुआ के बहुत सारे पेड़ थे. सखुआ को मुण्डारी भाषा में सरजोम कहते हैं. यही कारण है कि यहाँ के बसे पूर्वजों ने इस जगह का नाम सरजोमा रख दिया. इस गाँव में मुण्डा समुदाय के लोग दस पीढ़ी से भी अधिक समय से यहाँ पर रहते आ रहे हैं. इस गाँव के बसाने वालें के पूर्वज पहले बुन्डू में रहते थे.
इस गाँव के बसने की कथा सुनाते हुए गाँव के लोगों ने बताया कि आज से बहुत पहले बुण्डू के मुण्डा समुदाय के कुछ लोग का एक दल उपजाऊ जमीन और सुविधाजनक व बेहतर जगह की तलाश में बुन्डू से निकल पड़े थे. रास्ते में चलते-चलते उन्होंने एक जगह डेरा डाला था. उस जगह पर उन्होंने धान कूटने की एक सेल (ओखलीनुमा गढा) बनाई थी. उस जगह के आज भी रोओ सेल के नाम से जाना जाता है. रोओ मुण्डारी भाषा का शब्द है. जिसका अर्थ होता है धान कूटने वाला गढा. वहाँ से आगे बढ़ने के बाद उन लोगों ने दूसरी जगह पर डेरा डाला. उसी जगह पर सब गांव के पूर्वज ने आपस में चावल का बंटवारा किया था. उस गाँव को आज भी हटिंगचाउली के नाम से जाना जाता है. हटिंगचाउली भी मुण्डारी भाषा का शब्द है.
यह शब्द मुण्डारी भाषा के दो शब्दों हटिंग तथा चाउली के मिलने से बना है. हटिंग का अर्थ होता है बंटवारा करना या परोसना तथा चाउली का अर्थ होता है चावल. उपजाऊ जमीन तथा बेहतर जगह की तलाश में निकले दल के मुखिया के सात पुत्र थे. हटिंगचाउली के बाद छह भाईयों ने अलग-अलग गाँव बसाये. उनमें से एक ने सण्ड़ासोम, दूसरे ने सोदाग, तीसरे ने तारूब, चौथे ने सरजोमा, पाँचवे ने मारंगडीह, छठवें ने वापस बुन्डू और सातवें ने डंगीयादाग को बसाया. सरजोमा गाँव के बसाने वाले व्यक्ति का नाम पुन्डी हल्लु दसकन था और वह सातों भाईयों में सबसे बड़ा था.
सरजोमा गाँव खूँटी जिले के मारंगहादा पंचायत में स्थित है. यह खूँटी से 17 किलोमीटर की दूरी पर पूर्तर्वोर दिशा में है. जंगलों से घिरा और छोटी टुँगरियों (पहाडि़यों) की तराईयों में बसा यह गाँव दो शीट में फैला है. इस गाँव में जोम टुटी किलि के 87 परिवार और पाँच परिवार दूसरे किलि के लोग रहते हैं.
सरजोमा के पूरब दिशा में ग्राम सेतागड़ा गाँव स्थित है, पश्चिम दिशा में गड़ीगाँव टोला बाड़ेडीह स्थित है. उत्तर दिशा में ग्राम डाड़ीगुटू और दक्षिण दिशा में मारंगहादा स्थित है. ग्राम सरजोमा के पूरब दिशा में एक छोटी नदी बहती है, जिसे होन गड़ा के नाम से जाना जाता है. गाँव के पश्चिम दिशा में प्रवाहित होने वाली नदी का नाम करम गड़ा है.
पूर्व दिशा में बहने वाली नदी आगे चलकर उत्तर की दिशा में मुड़ी है. जो कति इकिर के नाम से जानी जाती है. चेडे बुरू (पक्षी पहाड़) और हुड़ँग बुरू नामक दोनों पहाड़ गाँव के दक्षिण दिशा में स्थित है. इनके बीच में गटी जोला नामक एक नदी बहती है. स्कूल के बच्चों के लिए पिकनिक मनाने हेतु यह जगह काफी बेहतर है.
गाँव के लोग अपने पूर्वजों के समय से ही प्रकृति के उपासक रहे हैं. ये लोग खुद को प्रकृति का एक हिस्सा मानते हैं और इसलिए इसके अनेक रूपों का बोंगा के रूप में पूजते हैं. इनका अस्तित्व जल, जंगल, जमीन में निहित है या यूँ कह सकते हैं कि सरजोमा के निवासियों का अस्तित्व एवं पहचान जल,जंगल,जमीन है.
गाँव के दक्षिण दिशा में गटी जोला के नीचे इकिर बोंगा नाम के पूजा स्थान है. जहाँ पर लोग वर्ष के जून महीने में एक बार मुर्गा या काले भेड़ की बलि देते हैं. गाँव के लोगों का मानना है कि इकिर बोंगा की पूजा करने से गाँव में अच्छी वर्षा होती है. यहाँ के लोग की कृषि मुख्यत: वर्षा पर ही निर्भर है. अच्छी बारिश होने से इनके घरों में अन्न का अभाव नहीं रहता है. इसलिए इकिर बोंगा इनके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. इस जगह पर पूजा के वक्त बलि दिए गए मुर्गे का सिर अथवा भेड़ के सिर को वहीं पर पकाया जाता है और खिचड़ी बनाई जाती है. गाँव के पुरुष तथा बच्चे उस प्रसाद को पूजा स्थान पर ही ग्रहण करते हैं. प्रसाद को घर ले जाना वर्जित है. बलि दिये गये भेड़ का माँस वहीं पर बाँट लिया जाता है और लोग उसे अपने परिवार के बाकी लोगों के लिए ले जाते हैं. इकिर बोंगा की पूजा की प्रथा शुरू से चली आ रही है.
गाँव के दक्षिण सीमांत में दिबि स्थान स्थित है. पूर्वजों के काल से ही गाँव में दिबि पूजा की प्रथा चली आ रही है. ग्रामीणों का विश्वास है कि दिबि इनके गाँव के सीमान की रक्षा करती हैं. किसी भी प्रकार के रोग अथवा विध्न-बाधा से दिबि ही गाँव को बचाती है. गाँव के पशुओं की रक्षा भी दिबि ही करती हैं. गाँव के लोग वर्ष में दो बार दिबि पूजा करते हैं. फरवरी के माह में मागे पोरोब के दौरान और जुलाई माह में रथ यात्रा के बाद दिबि की पूजा की जाती है. पूजा के वक्त गाँव के लोग मिलकर चंदा इकट्ठा करते हैं और लाल मुर्गा या सफेद मुर्गा या माली मुर्गा (काला एवं गर्दन के पास हल्का सफेद) या काले रंग की बकरी की बलि दी जाती है.
माडा बुरू देशाउली
गाँव कि पश्चिम दिशा में नदी के किनारे मांड़ाबुरू देशाउली स्थित है. पंद्रह-बीस साल के बाद जब भी अकाल पड़ता है, तब गाँव में देशाउली की पूजा की जाती है. गाँव के लोगों का विश्वास है कि यहाँ पर पूजा करने से जमकर बारिश होती है और अकाल की स्थिति खत्म हो जाती है. इस जगह पर दो-तीन सखुआ के पुराने पेड़ हैं जिस वर्ष आकाल पड़ता है उस वर्ष यहाँ गाय या भौंस की बलि देने की प्रथा है. जिसका प्रसाद गाँव के लोहरा लोग खाते हैं.
जयर पूजा
हर वर्ष सरहुल (बा पोरब) में जयर पूजा की जाती है. इनका जयर स्थान गाँव के पश्चिम दिशा में स्थित है. वहाँ पूजा स्थान में तीन-चार बड़े सखुआ के पेड़ एवं अन्य दूसरे छोटे पेड़ लगे हुए हैं. इस जगह के जयर या सरना भी कहा जाता है. जयर के पीछे इस गाँव का यह मानना है कि इनके पूर्वजों ने अंग्रेजों से लड़ाई की थी. लड़ाई के मैदान में उन लोगों ने अपनी पहचान के लिए सखुआ के फूलों और टहनियों के अपने सिर में बाँधा था. इससे अंग्रेज उनकी उचित संख्या नहीं जान कर पाये और मुण्डाओं की जीत हुई थी. लड़ाई के वक्त महिलाओं ने अपने खोंपा में और पुरुषों ने अपने कान में सखुआ के फूल खोंसे थे. तब से सरहुल के विजय पर्व के रूप में मनाते हैं और जयर में सखुआ के पेड़ों के नीचे पूजा करते आ रहे हैं.
सरहुल पूजा के पहले दिन पहान एवं ग्राम प्रधान पूरे गाँव के लिए पूजा करते हैं. पूजा के बाद शाम में पूरे गाँव के लोग वहाँ से नाचते हुए पहान के घर तक आते हैं. तथा पहान के आँगन में कुछ देर तक नाचते-गाते हैं. उसके बाद अखड़ा में चले जाते हैं, और रातभर अखड़ा में गीत-नृत्य चलता है. सरहुल पूजा के दिन भी पहान जयर में सात रंग के मुर्गे जैसे:-काला, सफेद, लाल, मलि, (काला और गर्दन में हल्का सफेद), सुकड़ा (हल्का लाल) की बलि दी जाती है. सभी मुर्गे का गाँव से खोज कर लाया जाता है और बलि के बाद अरवा चावल के साथ खिचड़ी बनायी जाती है. इस खिचड़ी को तपन हड़िया के साथ प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं. सरहुल के दिन, रात भर एवं बासी दिन (दूसरे दिन) भी रात तक लोग अखड़ा में जोर-शोर से नाच-गान करते हैं.
उत्सव
इस गाँव के मुण्डा मागे पोरोब, बा पोरोब, फागु पोरोब, हुडिंग बा, करमा और सोहराई पोरोब मानते हैं. इनके त्यौहार मुख्यत: दीये की रोशनी, खेल, ठाठ-बाट और जतरा से हुए होते हैं. बा पोरोब चैत महीने के पाँचवें दिन (सरहुल मार्च-अप्रैल में) मनाया जाता है. यह मुण्डाओं का मुख्य पर्व है. इस पर्व में मुण्डा जंगल से साल के फूल को काटकर अपने-अपने घर में लाते हैं और घर का मालिक नहाकर अपने-अपने पूर्वजों के नाम से ईष्ट देवों की पूजा अर्चना करके संतुष्ट करते हैं.
पौष की पूर्णिमा में मुण्डाओं के द्वारा मागे पोरोब मनाया जाता है. गाँव के लोगों का मानना है कि खेतों में साल भर काम करने के बाद अपनी तैयार फसलों के खलिहान में लाते हैं. उसके बाद एक दिन भर खाने-पीने का आयोजन करते हैं. मागे पोरोब के दिन फुदी खेलने की परम्परा है. खेल के अन्त में फुदी खेलने वाले फुदी (लकड़ी से बना गेंद) ग्राम प्रधान के घर ले जाते हैं और धान कूटने की सेल (ओखली या ढेंकी का गढा) में फुदी को डाल देते हैं. इसे मागे पोरोबा के नाम से जाना जाता है.
कुछ गाँव वालों के अनुसार, खाने-पीने के साथ-साथ इस पर्व में अपने पूर्वजों की पूजा की जाती है. मागे पोरोब के दिन घरों में चावल गुण्डी और चीनी या गुड़ से आरसा पीठा बनाई जाती है. घर के अंदर में करंज तेल का दीया जलाकर टाटी में रख दिया जाता है. सखुआ पता के दोना में ईल और अरवा चावल की रोटी अपने पूर्वजों के नाम अर्पित करते हैं. मागे पोरोब के दूसरे दिन नदी के बगल वाले टाँड़ में मेला लगाया जाता है और मेहमानों के वहाँ घुमने के लिए ले जाते हैं. वहाँ पर टुसु मेला लगाया जाता है. फरवरी-मार्च माह में फागु पोरोब मनाया जाता है. यह मुख्यत: सामुहिक शिकार का पर्व है. फागु के समय पुरुष और बच्चे समूह बनाकर जंगल में शिकार करने के लिए जाते हैं. जंगल से वे गिलहरी, खरगोश, जंगली, सुअर, सियार आदि का शिकार करके लाते हैं और उसके माँस को आपस में बाँट लेते हैं.
भादो (सितम्बर माह) के 10-11 दिन में करमा मनाने की परंपरा है. इस समय गाँव के अविवाहित लड़के जंगल से कुड़म्बा दारू (करम पेड़) के दो छोटे पौधे के नाचते-गाते हुए लाते हैं और गाँव के अखड़ा में गाड़ देते हैं. इस गाँव के कुछ लोग अपने-अपने आंगन में भी करम पौधा के गाड़कर पूरे खानदान के लोग पूजा करते हैं. पूजा करने के समय गाँव के अन्य लोग भी वहाँ उपस्थित होते हैं. गाँव के लोग समूह में रात भर हंड़िया पीकर नाच-गान करते हैं. करमा में सिर्फ गुड़-चिउरा, रोटी, दूध-दही एवं तपन हंड़िया से पूजा की जाती है. करमा पूजा में हिन्दुओं के जैसा सावन माह की तरह ही माँस, मछली नहीं खाते हैं और पूजा के बाद रात के घर में चावल भी नहीं पकाया जाता है.
इस दिन कोवल चिउड़ा-गुड़ और रोटी खाते हैं. यह पूजा अपने घर में अच्छी फसल एवं गाय-बैल, पशु-पक्षियों के लिए ही की जाती है. करमा पूजा के दिन खानदान के सभी लोग सामूहिक उपवास करते हैं. जवा उठाने के लिए दो युवती (लड़कियाँ), दो युवक (लड़के), एवं खानदान के अन्य लोग सामूहिक रूप से नदी नहाने के लिए जाते हैं. जवा उठानेवाली लड़कियों को नई साड़ी देने की परम्परा है. जवा के मांदर बाजा के साथ घर लेकर आते हैं. उसके बाद, जवा डालिया को फूलों से सजाने के बाद पूजा करते हैं, तथा रात में करम डाली को मांदर, नगाड़ा और ढोल के साथ लाते हैं और आंगन में गाड़ते हैं.
उसके बाद फिर से पूजा-पाठ करते हैं. पूजा सम्पन्न होने के बाद करम के चारों ओर घूम-घूम करके प्रणाम करते हैं. उसके बाद महिलाएँ भी करम डाली को चुमवान करके तीन चक्कर घूम कर प्रणाम करती हैं. करमा के दिन कहानी भी सुनाने की परम्परा है. पूजा के बाद कहानी सुनने के लिए गाँव के लोग पूजा स्थल पर उपस्थित होते हैं. वहाँ उपस्थित सभी लोगो को हंड़िया और चूड़ा दिया जाता है. उसके बाद मांदर की धुन और करम गीतों के सुर पर रात से दिन तक नाच-गान करते हैं.
कार्तिक माह की पूर्णिमा के 16 दिन बाद (अक्टूबर-नवम्बर) की अमावस्या के सोहराई पर्व मनाया जाता है. इस पर्व में मुख्यत: पालतू पशुओं की पूजा की जाती है. तीन दिन पशुओं के सींग में तेल लगाया जाता है एवं गोहाल (पशुशाला, पशुओं को रखने वाला घर) में तीन रात करंज तेल का दीया जलाया जाता है. दीपावली की रात में दरवाजे के पास एवं पशुशाला में दीया जलाया जाता है. लड़के रातभर पूरे गाँव के सभी घरों में ढोल, मांदर, नगाड़ के साथ सोहराई गीत गाते हुए पशुओं के सींग में सुरगुजा का तेल लगाते हैं. इस दिन सबसे पहले अहीर लोगों के घर जाकर इनके पशुओं के सींग में तेल लगाया जाता है. इसके उपरान्त गाँव के सभी घरों के पशुओं की सिंग में तेल लगाते हैं. इस विधि को मुण्डारी में जगवार कहते हैं. इस रात गाँव के सभी घरों में जाकर जगवार किया जाता है.
सोहराई के दिन पशुओं की पूजा के लिए उपवास करते हैं और इस दिन पते में रचटियाँ बनाई जाती हैं. सोहराई के दिन पशुओं को खिला-पिला कर नहलाते हैं. दोपहर में पशुओं को घर वापस लाया जाता है. घर की औरतें अरवा चावल की गुण्डी का घोल कर उटू पता और दूबिला (दूब घास) घास से पशुओं के रास्ते में आंगन से गौरेया (खूंटा) तक मड़वा(अल्पना) बनाया जाता है. इस विधि के बाद ही पशुओं के गोहाल में अंदर किया जाता है. बैलों अंदर करने के बाद ही गौरेया (खूँटा) के पास पशुशाला में काला या लाल मुर्गे एवं रोटी, से पूजा होती है. पूजा के बाद तेल सिंदूर, रंग एवं फूल से पशुओं के शरीर को सजाते हैं. उसके बाद शाम के समय गाँव के सारे पशुओं को निकालकर गाजे-बाजे के साथ गाँव का तीन चक्कर घुमाते हैं. पशुओं के उस दिन माला भी पहनायी जाती है.
सोहराई के दिन पशुओं के द्वारा अगर फसल या अनाज नष्ट कर दिया जाता है तो पशु के मालिक को दण्ड नहीं दिया जाता है. उस दिन पशुओं को निकालने से पहले और अन्दर करने के बाद औरतें उनका चुमवान करती हैं. अंत में सभी नाचते-गाते अखड़ा में चले जाते हैं और अखड़ा में रात भर नाचते-गाते हैं.
श्रम व्यवस्था
इस गाँव में लड़को की एक समिति बनी है और महिलाओं का अलग मंडल बना हुआ है. लड़कियों की ओर से हर टोली में एक-एक महिला मंडल बना हुआ है. लड़कों की समिति श्रमदान करके या मदइत की परंपरा के तहत किसी व्यक्ति का काम किया करती है. काम करने के बाद हँडि़या दिया जाता है एवं 200 रुपया जमा किया जाता है. मदइत के रूप में समिति के लड़के आड़ बाँधने का काम, जंगल से लकड़ी लाने के काम, घर बनाने का काम, घर बनाने के लिए लकड़ी लाने का काम और पत्थर ढोने का काम करते हैं. धान काटने और खेत से धान लाने का भी काम करते हैं. समिति किसी का घर बनाना हो तो घर की नींव कोड़ने से लेकर छत में खपड़ा चढ़ाने का भी काम किया करती है.
लड़कियों का महिला मंडल धान काटने, धान रोपने, खाद्य ढोने, घर लीपने और पताल सीने का काम करती है. मदइत का काम सिर्फ आधा बेला का होता है. इस गाँव में दिन भर काम करने पर मजदूरी दर 80 रुपया एवं धान काटने के समय में धान ही दिया जाता है जो ग्राम सभा में लोग ने सामूहिक रूप से तय किया है. पुरुषों एवं महिला मंडल की साप्ताहिक बैठक हर गुरुवार को होती है और हर सप्ताह मदद के रूप में पैसा जमा करते हैं. उस पैसे से जरूरत मंद लोगों की मदद की जाती है. जो लोग महिला मंडल से पैसे लेते हैं वे कुछ दिनों के बाद पैसे वापस लौटा देते हैं. क्षमता के अनुसार, लोग मदइत करने वाले को खाना एवं हँडि़या देते हैं. ज्यादा काम रहने पर मदइत के लिए खस्सी, मुर्गा और भेड़ दिया जाता है.
जंगल से संबंध
इस गाँव का जंगल से बहुत गहरा संबंध रहा है. आर्थिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक ये तीनों स्थिति में ये लोग जंगल पर ही निभर करते हैं। घर बनाने के लिए लकड़ी से लेकर खाने कक् लिए फल सब्जी और आर्थिक स्थिति के मजबूत करने के लिए फल, पत्तों, लकड़ी, औषाधियां, फूल, तेल, वन उत्पाद इन्हें जंगल से प्राप्त होते हैं. सांस्कृतिक रूप से भी ये अपने पूर्वजों के समय से ही जंगलों से जुड़े हुए हैं. देखा जाए तो मुख्य तौर पर आज भी इस गाँव के लोग अपनी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जरूरतों के लिए जंगल पर ही निर्भर हैं. ग्राम सभा में पाँच-पाँच लोगों का दल बना दिया जाता है और वे ही बारी-बारी से जंगल की देखभाल करते हैं.
गांव आज भी आत्मनिर्भर है और बाहर की दुनिया पर कम से कम निर्भर है. सरजोमा 21वीं सदी में भी अपनी उन विशेषताओं को जीवित रखे हुए हैं, जो मुंडा समाज की अस्मिता का हिस्सा है.