पांच फीसदी नर्सिंग होमों में ही उपलब्ध है बॉयलेक्स मशीन, यह खेल चलता है हर दिन
Pramod Upadhyay
Hazaribagh : हजारीबाग के अधिकांश नर्सिंग होमों में बिना मशीन के मरीजों को बेहोश किया जाता है. एनेसथेसिया के डॉक्टर इससे बाज नहीं आ रहे हैं और अंदाज पर ही मरीजों का इलाज कर रहे हैं. दरअसल पांच फीसदी नर्सिंग होमों में ही मरीजों को बेहोश करनेवाली बॉयलेक्स मशीन उपलब्ध है. ऐसे में मरीजों की जान खतरे में डालकर उन्हें ऑपरेशन में जाने के पहले बेहोश किया जाता है. डिग्रीधारी एनेसथेसिया के डॉक्टर सुप्रभात किरण बताते हैं कि एनेसथेसिया के लिए दो तरह की मशीनें होती है. एक सामान्य और दूसरा पूरी बेहोशी की मशीन.
नॉर्मल बॉयलेक्स मशीन की कीमत 70 हजार रुपए से लेकर एक लाख तक ही है. वहीं पूरी तरह बेहोश करने की मशीन की कीमत पांच से 10 लाख तक की आती है. ऐसे में अधिकांश नर्सिंग होम के संचालक महंगी मशीन लगाना नहीं चाहते हैं और चार माह की ट्रेनिंग लेनेवाले एनेसथेसिया के विशेषज्ञों को बुलाकर कम पैसे में उनसे काम लेते हैं. जो खुद डिग्रीधारी डॉक्टर हैं और उन्होंने ही नर्सिंग होम खोल रखा है, उन्हीं पांच फीसदी नर्सिंग होमों में बॉयलेक्स मशीन का इस्तेमाल होता है.
तीन माह बनाम तीन साल की ट्रेनिंग पर उठाया सवाल
इस संबंध में पहले एनेसथेसिया के डॉक्टर सुप्रभात ने बताया कि स्पेशलाइजेशन करने के लिए एमबीबीएस के बाद तीन साल की अतिरिक्त पढ़ाई करनी पड़ती है, तब जाकर एमडी और एमएस की डिग्री मिलती है. इन तीन वर्षों में मरीजों की जान बचाते हुए ऑपरेशन कैसे करना है, उस बारे में विस्तार से जानकारी दी जाती है. इन तीन सालों में बॉयलेक्स मशीन पर मरीज को कैसे बेहोश किया जाता है, यह भी सूक्ष्मता से सिखाया जाता है. कौन सी दवा किसलिए और कब नहीं इस्तेमाल करनी है, यह पढ़ाया जाता है.
वहीं एनेसथेसिया के डॉक्टरों की कमी को देखते हुए सरकार की ओर से कई डॉक्टरों को चार माह का अस्थायी कोर्स कराया गया था. ऐसे में डॉक्टर सुप्रभात सवाल उठाते हैं कि आप ही बताइए कि कौन अनुभवी हैं, तीन साल की डिग्री लेनेवाला या चार माह का कोर्स करनेवाला. जो काम हम तीन साल में करते हैं, वह महज 14 सप्ताह में कैसे संभव है.
इन तीन साल में हमें खुद का रिसर्च करना होता है और किताब भी लिखनी होती है, पर चार माह के ट्रेनर के पास न तो पूरा अनुभव है और न ही कोई उपलब्धि.
ऐसे में मरीजों का क्या होगा हश्र ?
एनेसथेसिया के डॉक्टर सुप्रभात किरण कहते हैं कि कोरोना काल में चार माह की ट्रेनिंग लेनेवाले डॉक्टरों को सरकारी अस्पताल में सीनियर डॉक्टरों के अधीन सेवा देने को कहा गया था, न कि नर्सिंग होम अथवा प्राइवेट अस्पतालों में अपना अनुभव दिखाने को कहा गया था. उसके बाद भी अगर सेवा दे रहे हैं, तो अपनी जानकारी के बारे में खुद परखकर सेवा देने की दरकार है. हड्डी के डॉक्टर अगर ब्रेन खोलने लगे और ब्रेन का डॉक्टर अगर डिलिवरी कराने लगे, तो मरीजों का हश्र क्या होगा ? ऐसे में गांव में प्रैक्टिस करनेवाले झोला छाप डॉक्टरों को भी सरकार यह अधिकार दे दे कि वे लोग भी खुद ऑपरेशन करने लगें.