Dr. Surinder Kaur Neelam
LagatarDesk : विश्वबंधुत्व की भावना किसी भी समाज या राष्ट्र की नींव होती है, जो हर तरह के बिखराव को समेट कर प्रगति के पंखों द्वारा नयी उंचाइयों को छूने का दम भरती है. धर्म का बुनियादी आधार भी यही है, जिसके बल पर हम जीवन की विभिन्न समस्याओं का समाधान करना सीखते हैं. यह बुनियादी आधार सुदृढ़ हो, जीवन आदर्शों का पालन हो, सामाजिक सद्भावना तथा प्रेम बना रहे, इसकी चिंता प्रत्येक युग में महापुरुषों को उद्वेलित करती रही है. अतः समय-समय पर महापुरुषों, संतों एवं महात्माओं ने अपने उपदेशों, व्यवहारों, समन्वयकारी दृष्टि और आत्मिक साहस के बल पर बिखरे हुए लोगों के बीच एकता के तत्वों को एकत्रित कर विश्वबन्धुत्व की भावना को सुदृढ़ करने का प्रयास किया.
सिखों के प्रथम गुरु नानक देव जी का अवतार ग्रहण करना कलयुग की ऐसी विपरीत परिस्थितियों का परिणाम था, जहां अनीति एवं अधर्म के विष को निर्विरोध पी जाने हेतु जनता विवश थी. ऐसे कठिन समय में गुरुनानक जी ने अपनी दूरदृष्टि, व्यवहारों और उपदेशों द्वारा परंपरागत धर्म, समाज और संस्कृति को एक नया आयाम देकर लोगों में आत्मबल का संचार किया तथा विश्व एकता की भावना को जागृत करने के लिए जनता के दिलों को झकझोरा.
सन् 1469 , कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाहौर के ननकाना साहिब ( तलवंडी) में गुरुनानक रूपी सूर्य का उदय हुआ. पिता मेहता कालू एवं माता ‘ तृप्ता ‘ की कोख से जन्म लेने वाले इस विलक्षण बालक को ईश्वर ने अपने अवतार के रूप में भेजा.
गुरु नानक जी को जो समाज मिला वह विसंगतियों से भरपूर था. तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त थी. समाज में अंधविश्वास, कर्मकांड, बाह्य आडंबरों का बोलबाला था. एक संत पुरुष होने के नाते उन्हें इस बात का गहरा एहसास था कि किस प्रकार समाज का एक रुढ़िवादी स्वरूप भारतीय समाज के एक बहुत बड़े अंश को, भारत के सांस्कृतिक एवं धार्मिक जीवन को रिक्तता एवं गतिरोध की अवांछित भूमिकाओं की ओर बढ़ाता जा रहा है. उन्होंने विविध धर्मों की एकता के महत्व को भी समझा. समय की आवश्यकता भांपकर ही उन्होंने 15 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सिख-धर्म की नींव डाली.
उनकी महानता यह नहीं कि उन्होंने सिख-धर्म की नींव डाली, बल्कि वे इसलिए महान हैं क्योंकि उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों और विसंगतियों को न केवल रेखांकित किया, बल्कि वे हर अन्याय के खिलाफ डटकर खड़े हुए. एक उच्च कोटि के साहित्यकार के रूप में उनकी ख्याति इसलिए भी बढ़ गयी कि उन्होंने मध्ययुगीन भक्ति काव्य परंपरा को नये तेवर दिए. तत्कालीन मुगल साम्राज्य के जुल्मों को उन्होंने अपनी सरल भाषा में लिखे सादगीपूर्ण काव्य से दृढ़ता पूर्वक प्रतिकार किया.
गुरु जी की चार ” उदासियां ‘
उन दिनों जब कहीं कोई आवागमन के साधन उपलब्ध नहीं थे, गुरु जी ने विश्व कल्याण के लिए पूरे विश्व की पैदल यात्राएं की. एक मुसलमान भाई ‘ मरदाना ‘ हमेशा उनके साथ रहा करते थे, जो कीर्तन के समय गुरु जी के साथ रबाब भी बजाते थे. गुरु जी की इन यात्राओं को चार ” उदासियां ‘ भी कहा गया है.
- पहली यात्रा सन् 1497 से 1501 तक की गई जिसमें वे हिंदु तीर्थ स्थलों, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, वृंदावन,बनारस एवं जगन्नाथ पुरी गये एवं अपने उपदेश दिए.
- दूसरी यात्रा में सन् 1510 से 1515 तक गुरु जी ने दक्षिण की ओर सुमेर पर्वत,जैन व बौद्ध धर्म से संबंधित स्थलों का भ्रमण किया एवं श्रीलंका तक गए.
- तीसरी यात्रा सन् 1515 से 1517 तक जम्मू, श्रीनगर, कैलाश मानसरोवर आदि हिमालय की श्रृंखलाओं और तिब्बत तक गये.
- चौथी यात्रा में सन् 1517 से 1521 तक मक्का -मदीना ,ईराक, ईरान, अफगानिस्तान आदि देशों में गये. बगदाद में आज भी उनकी स्मृति में गुरुद्वारा सुशोभित है.
“एक ओंकार” पर दर्शन
अपनी रचना “जपु जी” द्वारा उन्होंने अपना दार्शनिक दृष्टिकोण आरंभ किया और “एक ओंकार” पर अपने दर्शन की नींव रखी. मूल मंत्र दिया कि ” एक ओंकार, सतनाम, करता पुरख, निरभौ, निरवैर, अकाल मूरत, अजूनी, सैभंग, गुर प्रसाद” अर्थात ईश्वर एक है, वह सत्य है, वह सृष्टिकर्ता है, उसे किसी का डर नहीं, उसे किसी से वैर नहीं, उसका कोई स्वरूप नहीं, वह पैदा नहीं होता, वह नष्ट नहीं होता और उसे गुरु की कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है.
क्रांतिकारी नारा
गुरु जी ने एक क्रांतिकारी नारा दिया कि ” न हिन्दु न मुसलमान”. अर्थात न कोई हिंदु है और न कोई मुसलमान. सभी एक ईश्वर की संतान हैं और बराबर हैं.
जातिभेद
गुरु जी के अनुसार, जाति का गर्व न करियंहु कोई, ब्रह्म बिंदे सो ब्राह्मण होई”. अर्थात कोई भी अपनी जाति का घमंड न करे. जो ब्रह्म का विचार करता है, वही सच्चा ब्राह्मण है. मानवीय समता की राह में वर्ण और जाति का जो कांटा चुभ रहा है, उसे निकाल फेंकने से ही भाईचारे की भावना का विकास हो सकता है. जाति-पाति के विभाजन को समाप्त करने के लिए उन्होंने स्वयं मुसलमानों के साथ नमाज़ पढ़ी और हिन्दुओं के साथ आरती की.
संगत, कथा और कीर्तन
एक महान साहित्यकार होने के साथ ही गुरु जी एक संगीतज्ञ भी थे. कथा और कीर्तन के द्वारा वे संगत के अवगुणों को दूर करने का प्रयास किया करते थे. कथा के माध्यम से गुरुवाणी के सही अर्थों का ज्ञान होता है और कीर्तन से मनुष्य मोहमाया त्याग कर भक्ति में लीन हो जाता है जिससे हृदय में प्रेमपूर्ण पवित्र भावनाओं का संचार होता है.
लंगर
आपसी भाईचारे की भावना को मजबूत करने के लिए गुरु जी ने लंगर की प्रथा चलाई जिसमें सभी भक्तजन जमीन पर पंक्तिबद्ध होकर एक साथ,एक जैसा भोजन करते हैं जिससे आपसी वैमनस्य दूर होता है. लंगर में छोटे -बड़े ,अमीर -गरीब, ऊंच-नीच आदि का भेदभाव समाप्त हो जाता है.
स्त्री सम्मान
गुरु जी ने कहा -सो क्यों मंदा आखिए जित जम्मे राजान ” अर्थात उसे क्यों बुरा कहा जाता है जो बड़े -बड़े राजाओं को जन्म देती है. उन्होंने नारी को सम्मान देते हुए अपनी भक्ति का आधार ” सुहागन ” का जीवन बनाया. प्रियतम के रूप में ईश्वर को रखा तथा एक सुहागन का सर्वोच्च आदर्श अपने प्रियतम की प्राप्ति बताया.
तीन मूल सिद्धांत
- नाम जपना – अर्थात सच्चे मन से ईश्वर को याद करना। जिसने हमें जन्म दिया, सभी सुख साधन दिए,उस सृष्टिकर्ता को याद करना,उसका गुणगान करना,उसका शुक्रिया अदा करना,हमारा प्रथम कर्तव्य होना चाहिए.
- किरत करनी- अर्थात मेहनत और ईमानदारी की कमाई ही सफल जीवन का आधार है. अपने श्रम से कमाई गई दौलत से ही अपनी आजीविका चलानी चाहिए. पराई संपत्ति पर अपना हक जताना गुनाह है.
- वंड छकना – अर्थात बांटकर खाना. परोपकार करना. जरूरतमंद की सहायता करने से भाईचारा बढ़ता है और स्वयं को भी सुख तथा आनन्द मिलता है.
गुरु नानक जी ने तीन प्रकार की सेवाएं बताईं
शारीरिक, मानसिक और राजकीय
- शारीरिक सेवा का अर्थ है – समर्थ व्यक्तियों द्वारा असमर्थ लोगों की सेवा करना अर्थात दया भाव पैदा करना.
- मानसिक सेवा का अर्थ है भक्तों द्वारा जिज्ञासुओं को गुरु सिद्धांतों का अध्ययन और पठन पाठन कराना.
- राजकीय सेवा का अर्थ है- राजकीय प्रबंधन को मानवतावादी तत्वों पर आधारित करना. धर्म और देश की उन्नति के लिए सेवा और बलिदान की भावना का विकास होना चाहिए. गुरु जी ने जाति को नहीं बल्कि कर्म को प्रधानता दी.
ईश्वर की स्तुति, जीवात्मा में परमात्मा का अंश, सभी धर्मों का आदर, स्त्री- पुरुष समानता भाव,पराए हक का त्याग,जाति-पाति का विरोध,प्रभु भक्ति आदि सिद्धांतों का प्रतिपादन कर गुरु नानक जी ने मानवता वादी दृष्टि कोण अपनाया एवं सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक विषमताओं को दूर कर विश्वबन्धुत्व की भावना का बीजारोपण किया.
गुरु जी ने जिस अभिनव दर्शन द्वारा विश्वबन्धुत्व का संदेश दिया वह समय की आवश्यकता थी. आज दरकते मानवीय मूल्यों के इस नाजुक दौर में पुनः गुरु जी के संदेशों और उपदेशों का अनुसरण करने की अत्यंत आवश्यकता है ताकि प्रेम भाव में वृद्धि कर हम सभी एकता के सूत्रों को मजबूत कर विश्व शांति स्थापित करने में अपना योगदान दे सकें. गुरु नानक जी के प्रकाशोत्सव पर संपूर्ण मानवता को कोटि-कोटि बधाइयां और शुभकामनाएं.
“सतगुरु नानक प्रगट्या, मिटी धुंध जग चानन होया”
गुरु नानक देव जी के जन्मदिवस पर ये पंक्तियां हर गुरुद्वारे साहिब में गुंजायमान होती है. नानक देव जी ने विश्व भ्रमण किया और इस भ्रमण के दौरान उन्होंने समाज मे फैल रही कई कुरीतियों को अपनी शिक्षा से दूर करने की कोशिश की. मनुष्य को ये बताने की चेष्टा की कि वे धरती पर अच्छे कर्मों को करने आया है ना कि अपनी मानवता भूल कर पाप करने. भ्रमण के दौरान कई अनुभव और शिक्षा उनसे जुड़े किस्सों के जरिए हम तक पहुंचते हैं. आइए, इन किस्सों पर डालें एक नजर-
अच्छे हो तो उजड़ जाओ
नानक देव जी जब अपनी यात्रा करते एक गांव में पहुंचे तो उन्होंने देखा कि वहां के लोग बहुत मतलबी, नास्तिक और कई गलत आदतों के शिकार हैं, तब उन्होंने उन्हें आशीर्वाद दिया- बसे रहो. फिर जब वो आगे बढ़े तो एक बहुत ही सुंदर गांव में पहुंचे. यहां के लोगों ने उनका सत्कार किया. भोजन करवाया. उनसे अच्छी बातें सुनी- सीखी. तब गुरुजी ने उन्हें जाते वक्त आशीर्वाद दिया- उजड़ जाओ.
उनके साथ भ्रमण कर रहे शिष्य को उनकी ये बात अच्छी नहीं लगी. उससे रहा नहीं गया और आखिर उसने गुरु जी से पूछ लिया कि आपने ऐसा आशीर्वाद क्यों दिया जिन्होंने आपका स्वागत नहीं किया, मजाक उड़ाया, उन्हें आपने बसे रहने को कहा और जिन्होंने आपको मान-सम्मान दिया, आपका सत्कार किया, उन्हें आपने उजड़ने का आशीर्वाद दे दिया. तब गुरु जी मुस्कुराते हुए बोले मैंने ऐसा जग की भलाई के लिए किया. बुरे लोग अपनी बुरी आदतों और सोच के साथ बसे रहेगे तो जग मे बुराई का विस्तार नहीं होगा. अच्छे लोग संसार मे जहां भी जाएंगे वे अपने अच्छे संस्कार,अपनी अच्छी आदतें, विचार सब खुशबू की तरह हर जगह फैलाएंगे. इसलिए मैंने उन्हें उजड़ जाने का आशीर्वाद दिया.
ईमानदारी का धन ही सच्चा धन
भ्रमण के दौरान जब गुरु जी अपना उपदेश दे रहे थे तब एक गांव में बहुत लोग उन्हें अपने घर ले जा कर भोजन करवाना चाह रहे थे. सभी कि इच्छा थी कि नानक देव उनके घर आएं. एक गरीब ग्रामीण लालू उनके लिए अपने घर से थाली में सूखी रोटी और सब्जी सजा कर ले आया और उनके सामने रख दिया. यह देखकर गांव के अंहकारी जमींदार भागू का सेवक जो गुरुनानक देव को अपने मालिक के घर ले जाने आया था, क्रोध में आ गया और नानक जी को लेकर जाने की जिद करने लगा. नानक देव ने लालू कि थाल से रोटी उठाई और जमींदार भागू के सेवक के संग चल दिए. वहां उनका बहुत आदर हुआ. तरह तरह के पकवान परोसे गए. तब नानक देव ने भागू के परोसे भोजन से एक रोटी उठाई और उसे एक हाथ की मुठ्ठी में कस कर दबाया और एक हाथ मे लालू की रोटी को दबाया लालू की रोटी से दूध की धार बह निकली और भागू की रोटी से खून. तब गुरु नानक देव जी ने कहा कि तुम्हारी रोटी गरीबों का खून चूस कर उन्हें परेशान कर के और धोखे से कमाई गई है. इसलिए उसमें से खून निकल रहा है. लालू की रोटी मेहनत से ईमानदारी से काम कर के कमाई गई है. इसलिए इसमें से दूध की धार बह रही है. मेहनत का धन ही सच्चा धन होता है. जमींदार नानक देव जी के चरणों में गिर पड़ा. माफी मांगी. सभी गलत काम छोड़ दिए. उसने अपने अपना जीवन ईमानदार हो कर जीने का वादा कर बिताया.
ईश्वर चारो दिशाओं में व्याप्त है
नानक देव जी यात्रा करते हुए मक्का मदीना पहुंचे. जब वे सराय (आरामगाह) में आराम कर रहे थे, तब अचानक उन्हें वहां के देख रेख कर रहे मौलवी ने आ कर उठाया और तीखे शब्दों में कहा तुम ये क्या कर रहे हो. जिधर अल्लाह का घर है, उधर तुम पांव पसारे सो रहे हो. नानक देव जी मुस्कुराते हुए अपने सोने की दिशा बदल लिए. तब एक आश्चर्यजनक दृश्य हुआ. जिधर उन्होंने अपने पैर किए, उधर ही अल्लाह का घर दिखा. इस तरह चारों दिशाओं में जिधर वो घूमे, उधर ही ईश्वर दिखते. मौलवी साहब ने माना और जाना कि ये कोई आम इंसान नहीं. ये अल्लाह का बंदा है जो धरती पर कल्याण करने आया है.