Girish Malviya
हिंदी मीडिया ने राष्ट्रीय शर्म की एक घटना को पूरी तरह से छिपा दिया. क्योंकि इसमें ‘अडानी‘ का नाम हाइलाइट हो रहा था. और किसान आंदोलन में अडानी वैसे ही अभी आम जनता के निशाने पर हैं.
हम बात कर रहे हैं श्रीलंका द्वारा भारत के साथ किये गए ETC यानी ईस्ट कंटेनर टर्मिनल के करार के रद्द किए जाने की. स्ट्रैटिजिक मोर्चे पर इस डील का रद्द होना भारत के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है.
भारत, श्रीलंका और जापान की सरकारों ने मई 2019 में एक त्रिपक्षीय ढांचे के रूप में कोलंबो पोर्ट के ईस्ट कंटेनर टर्मिनल के विकास और संचालन के लिए सहयोग के एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए थे. यह करार श्रीलंका, भारत सरकार और जापान की सरकार के बीच था. जिसमें 51 फ़ीसदी हिस्सेदारी श्रीलंका की और 49 फ़ीसदी हिस्सेदारी भारत और जापान की होनी थी.
भारत की मोदी सरकार ने किसी सरकारी कंपनी से यह कॉन्ट्रैक्ट पूरा करने के बजाए अडानी ग्रुप को यह पूरा सौदा सौंप दिया. घोषणा की गयी कि भारत की ओर से अडानी ग्रुप इस सौदे को पूरा करेगा. जबकि चीन जैसे बड़े देश भी इस तरह के कॉन्ट्रैक्ट अपनी सरकारी कंपनियों को ही देते हैं.
मोदी सरकार यहां भूल गयी कि यह भारत नहीं श्रीलंका है. भारत में तो सरकार की दादागिरी चल जाती है कि हर बड़े कॉन्ट्रैक्ट किसी खास कंपनी को सौंप दिये जाते हैं. लेकिन श्रीलंका या किसी दूसरे देश की सरकार पर यह दवाब लागू नहीं हो सकता.
श्रीलंका की 23 ट्रेड यूनियंस ने इस तरह से पोर्ट डील का निजीकरण करने का विरोध किया. भारत की अडानी समूह के साथ ECT समझौता सही नहीं है, यूनियंस ने यह आरोप भी लगाया. दरअसल श्रीलंका में बंदरगाहों के निजीकरण के विरोध में एक मुहिम चल रही है. ट्रेड यूनियन, सिविल सोसाइटी और विपक्षी पार्टियां भी इस विरोध में शामिल हैं.
जैसे विभिन्न परियोजनाओं में निवेश को लेकर अडानी समूह का भारत में विरोध होता है, वैसा ही श्रीलंका में भी हुआ. श्रीलंका बंदरगाह श्रमिक संघ के प्रतिनिधियों ने पिछले हफ्ते साफ-साफ कह दिया कि वे अभी भी कोलंबो बंदरगाह के ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल में 49 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदने के अडाणी समूह के प्रस्ताव के पक्ष में नहीं हैं. निजीकरण का विरोध कर रहे ट्रेड यूनियन वालों के साथ श्रीलंका की सिविल सोसायटी भी आ गयी. उसने भी पूरी तरह से श्रमिक संघों का साथ दिया. तब श्रीलंका की सरकार को झुकना पड़ा और करार रदद् कर दिया गया. प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने कहा कि ईस्ट कंटेनर टर्मिनल में 100 फ़ीसदी हिस्सेदारी अब श्रीलंका पोर्ट अथॉरिटी (एसएलएपी) की ही होगी.
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श्रीलंका के प्रमुख अखबार कोलंबो टेलीग्राफ ने इस सौदे के अडानी एंगल के बारे में लिखा- ‘ECT के 49% शेयरों को किसी भारतीय कंपनी को सौंपने के प्रस्ताव पर बहुत विवाद हुआ था. एक नाम का उल्लेख किया गया था और इस नाम से जुड़े पिछले रिकॉर्डों की संदिग्ध प्रकृति के कारण इस मुद्दे की गंभीरता तेज हो गई थी.’
अखबार का इशारा अडानी की ओर था. ऑस्ट्रेलिया में अडानी को दिलवाईं गयी खदान की ओर था. पिछले साल के आखिर में जब भारतीय टीम क्रिकेट श्रृंखला खेलने ऑस्ट्रेलिया गई थी, तो पहले टेस्ट मैच में सिडनी में ऑस्ट्रेलियाई नागरिक अडानी की परियोजना के विरोध में बैनर लेकर मैदान में आ गए थे.
ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार और अडानी के इस गठजोड़ की खबर दुनिया को नहीं है. विश्व के प्रमुख आर्थिक अखबारों में इस गठजोड़ की आलोचना हो रही है. पिछले महीने फाइनेंशियल टाइम्स ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि गौतम अडानी का बढ़ता व्यापारिक साम्राज्य आलोचनाओं का केंद्र बन गया है. अडानी के नए करार करने की भूख और राजनीतिक पहुंच ये बात सुनिश्चित करती है कि वो आगे एक केंद्रीय भूमिका निभाने जा रहे हैं.
कल एशिया के बड़े आर्थिक अखबार निक्केई एशिया ने अडानी और मोदी की एक साथ हंसती हुई तस्वीर लगाकर हेडिंग दिया ‘Modi risks turning India into a nation of gangster capitalists.’
कितनी शर्म की बात है, पूरी दुनिया में भारत के इस क्रोनी केपेटेलिज्म के सबसे बड़े उदाहरण को बेनकाब किया जा रहा है. लेकिन यहां सब उस पर पर्दा डालने की कोशिश में जुटे हुए हैं.
डिस्क्लेमरः लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं और ये इनके निजी विचार हैं.