गांव की कहानी
(सनिका मुण्डा : ग्राम प्रधान,किशुन मुण्डा,जेम्स टुटी,पौलुस टुटी)
श्रम व्यवस्था
जितना पुराना यह गांव है, उतनी ही पुरानी यहां की श्रम व्यवस्था है. इस व्यवस्था के अन्तर्गत दो परंपराएं प्रचलित हैं. पहला मदइत और दूसरा बनिहारी. मदइत का मतलब है मदद करना. गांव में सामूहिक रूप से एक दूसरे को मदद करने की परंपरा है. इस व्यवस्था में काम करवाने के बदले लोगो को हंडि़या: चावल से बना हुआ पेय पदार्थ के साथ-साथ भोजन कराया जाता है. धान रोपाई या धान कटाई के मौकों पर कोई-कोई लोग मुर्गा अथवा खस्सी निकालते हैं.
अन्यथा अपनी क्षमता के अनुसार ही भोजन करवाते हैं. मदइत के बाद अगर कोई खस्सी अथवा मुर्गा मिलता है तो उस मांस को लोग आपस में बांट लेते हैं और अपने-अपने घरों में ले जाकर पकाते हैं. मदइत में काम के बदले पैसा नहीं लिया जाता है.
मदइत के अन्तर्गत ही गांव के छोटे रास्तों की साफ-सफाई और रख-रखाव किया जाता है. कुंआ की साफ-सफाई भी इसी के अन्तर्गत आता है. ग्रामीणें का मानना है कि मदइत का काम शरीर को चुस्त रखने के लिए थकावट दूर करने के लिए अथवा मनोरंजन के लिए करते हैं.
बनिहारी का शाब्दिक अर्थ है मजदूरी. इस परंपरा में काम के बदले पैसा दिया जाता है. उसे बनिहारी अथवा मजदूरी कहते हैं. बनिहारी दर हर वर्ष बढ़ती है. इस दर को ग्राम सभा के बैठक में तय किया जाता है. तय किया हुआ दर उसी वर्ष के लिए निर्धारित रहता है.
जंगल से आर्थिक संबंध
जंगल इन्हें आर्थिक आजादी देता है और इनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाता है. जंगल से ये लोग तरह-तरह के फल, लकड़ी, पत्तों,जड़ी,बूटियों,साग-सब्जी प्राप्त करते हैं. जंगल से प्राप्त उत्पादों को ये लोग अपने उपयोग में लाते हैं. कभी-कभार इसे आमदनी के लिए बाजार में बेचते हैं. साल का बीजए चार का बीजए आमए महुआ के फूल की बिक्री करते हैं.
इससे इनकी आर्थिक स्थिति ठीक-ठाक बनी रहती है. अधिकाधिक जरूरत की चीजें इन लोगों को जंगल से ही प्राप्त होता आया है. इसलिए प्राचीन काल से ही ये लोग जंगल और पेड़ों को देवता के रूप में पूजते आ रहे हैं.
जंगल से सांस्कृतिक संबंध
सांस्कृतिक रूप से भी जंगल के साथ इनका बहुत ही घनिष्ठ संबंध हैं. इनके सांस्कृतिक में शुरू से ही जंगल का बहुत बड़ा योगदान रहा है. जंगल ही आज तक इनकी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को बचाकर रखे हुए हैं. शादी-विवाह हो अथवा किसी की मृत्यु हो गयी हो या फिर कान छेदाई की रस्म हो जंगल से प्राप्त उत्पादों से ही ये सारी क्रिया पूरी होती है.
सरहुल पूजा में जंगल से फूल लाने के बाद ही पूजा सम्पन्न होती है. किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के उपरांत दफनाने के समय जंगल से सखुआ लकड़ी लाते हैं. जमीन में गड्ठा खोदकर मृत शरीर को उसमें रख दिया जाता है.
जंगल से लायी गयी सखुआ की लकड़ी से इसके ऊपर मचान बनाया जाता है. उसके बाद ही मिट्टी डाली जाती है. लोग ऐसा इसलिए करते हैं कि मिट्टी सीधे मृत व्यक्ति के शरीर पर न पड़े. शादी-विवाह के अवसर पर झामड़ा : लकड़ी और पत्तों का बना हुआ पारम्परिक मंडप बनाने के लिए लकड़ी: साल, आम, नीम, जामुन, कुसुम इत्यादि के लिए ये लोग जंगल पर ही र्निभर रहते हैं. नया घर बनने के बाद गृह प्रवेश के अवसर पर सबई घास से बनाई गई रस्सी में आम घर के चारों ओर एक चक्कर घुमाकर लपेट देते हैं. इसके बाद ही घर को शुभ माना जाता है. नया कुंआ बनाने पर भी यही विधि अपनायी जाती है.
जंगल से सामाजिक संबंध
समाज की संरचना में भी जंगलों का बहुत बड़ा हाथ रहा है. ये लोग रहने के लिए घर बनाते हैं तो उसके लिए लकड़ी जंगल से ही लाते हैं. छप्पर बनाने के लिए कांड़ की जरूरत हो अथवा दरवाजा-खिड़की बनाने के लिए पटरा, इन सभी के लिए लकड़ी की व्यवस्था जंगल से ही होती रही है.
जंगल से लकड़ी काटकर बेचना सख्त मना है. गाँव में किसी व्यक्ति को लकड़ी की जरूरत पड़ती है तब ग्राम सभा ही इस विषय में फैसला लेती है और उस व्यक्ति को लकड़ी काटने दिया जाता है. जंगल की रक्षा के लिए गाँव के लोग पारी-पारी से दल में पहरा देते करते हैं. जंगल से सखुआ की लकड़ी काटकर बेचना सबसे बड़ा जुर्म माना जाता है और इसके लिए ग्रामसभा में दण्ड देने का भी प्रावधान है.
सांस्कृतिक महत्व के केन्द्र
गाँव में कुछ ऐसे स्थान हैं जो गाँव के लोगों के लिए सास्कृतिक महत्व सदियों से हैं. इनमें अखड़ा, सामुदायिक वन, कुम्बा, ढेंकी, सेलतुक जांता और घानी शामिल हैं. गाँव में कोई भी सरकारी अखड़ा नहीं है.पूर्वजों के बनाए तीन अखड़ा हैं, उसी में पर्व त्योहार के अवसर पर लोग नाचते-गाते हैं. गाँव में तीन अलग-अलग अखड़ा हैं. जदूर अखड़ा, करम अखड़ा और जन अखड़ा. ग्राम सभा की बैठक सामुदायिक भवन में होता हैं. गाँव के लड़का लोग रात को समूह बनाकर सामुदायिक भवन में सोया करते हैं. इस सामुदायिक भवन को प्राचीन काल का गीतिओड़ा का नया स्वरूप भी मान सकते हैं.
यही कारण है कि सामुदायिक भवन का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र के रूप माना जाता है.आर्थिक परेशानियां और सिंचाई के साधनों की कमी गांव में बनी हुई है. गांव से पलायन नहीं के बराबर होता है. गांव के दर्जनभर लोग सरकारी नौकरियों में हैं. लेकिन गांव अपनी परंपरागत जीवन में खुश है.