Faisal Anurag
आर्थिक तौर पर आगे बढ़ने की दुनिया की प्रतिस्पर्धा के बीच दक्षिण एशिया के देश धार्मिक कट्टरता,अपने ही नागरिकों से नफरत ओर युद्धोन्माद वाली बोली की होड़ में उलझे हुए हैं. दुनिया के जब आंकड़ों में बांग्लादेश आर्थिक प्रगति की झलक दिखने लगी उसी दौर में सांप्रदायिक उन्माद,अल्पसंख्यकों को सबक सिखाने की मध्यकालीन बर्बरता के शिकार दिखने लगे हैं. पाकिस्तान तो एक सच्चे लोकतंत्र और नागरिक आजादी के लिए लड़ने के बजाय अपने कट्टरपंथियों को ही सहलाने में उलझा हुआ है और इसकी कीमत वहां के अल्पसंख्यक और नागरिक आजादी समूहों को चुकानी पड़ रही है. भारत का हाल भी इससे तो बेहतर नहीं ही है.क्रिकेट टी-20 विश्वकप के एक मैच में हार जाने का पूरा दोष एक अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाड़ी को दिया जा रहा है और सोशल मीडिया पर ऐसे गद्दार कहा जा रहा है. राजशाही के खिलाफ क्रांति के बावजूद नेपाल है कि आधुनिक बनना ही नहीं चाहता है. दक्षिण एशिया के ही एक देश अफागानिस्तान में अमेरिका समर्थित लोकतंत्र दम तोड़ चुका है और सत्ता मध्ययुगीन बर्बरता के हिमायितों के पास है.
हालांकि इस तरह के हालत केवल दक्षिण एशिया में ही नहीं है. वह तो तेजी से उभरते दक्षिणपंथी उभार के ख्तरों का केवल अग्रगामी चेहरा है. दुनिया के बाजार बनने या संसाधनों पर कुछ निरंकुश किस्म के कारपारेट के कब्जे के बाद जिस गति से पूंजीवाद का संकट बढ़ रहा है, आधुनिक बनने की चाहत और आकांक्षा उतनी ही कमजोर पड़ती दिख रही है. दक्षिण एशिया इसका सबसे बुरे शिकारों में हैं. आखिर यह वही दक्षिण एशिया है जिसने उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष किया और अंग्रेजी हुकूमत को विदा कर दिया. सवाल तो यह भी है कि आखिर इन देशों में अगर नागरिक समाज की वैज्ञानिक चेतना का विकास अवरूद्ध क्यों हो गया है.
बांग्लादेश के आर्थिक आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले एक दशक में उसने बड़ी कामयाबी हासिल की है और कई क्षेत्रों में तो भारत को भी चुनौती दे रहा है. लेकिन उसी बांग्लादेश में दुर्गापूजा के समय जो कुछ हुआ उससे जाहिर होता है कि वहां भी कट्टरपंथी ताकतें तेजी से मजबूत हो रही हैं. यह दीगर बात है कि अल्पसंख्यकों के पक्ष में अनेक जुलूस भी निकले लेकिन हिंसा की घटना ने यह तो बता ही दिया है कि बांग्लादेश में साप्रदायिक कट्टरपंथ अब भी मजबूत है. बांग्लादेश बना था एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के बंगबंधु मुजीबुर रहमान के सपने के साथ. लेकिन 1975 में सपरिवार उनकी हत्या किए जाने के बाद से उसे सेकुलर निजाम को बदल दिया गया. हालांकि बंगबंधु की ही पुत्री शेख हसीना पर उनके ही देश के नागरिक समाज के समूहों ने तत्वरित तौर पर दंगों को रोकने में नाकामयाब होने का आरोप लगाया है. इन आरोपों के बावजूद शेख हसीना ने कट्टरपंथियों के खिलाफ कदम उठाने का एलान किया और तुरत ही घटना की निंदा की. हिंसा की घटनाएं उन्हीं इलाकों में हुयी जहां महात्मा गांधी ने विभाजना के समय यात्रा कर सद्भाव के लिए काम किया था. नोआखाली की याद किसे नहीं होगी. अब हसीना सरकार कह रही है कि वह फिर से बांग्लादेश को सेकुलर बनाने के लिए संविधान में संशोधन करेगी.
लेकिन मूल सवाल यह है कि आखिर धार्मिक नफरत के बीज को किस तरह जड़ से निकाल कर बाहर किया जाएगा. यह चुनौती केवल बांग्लादेश की ही नहीं है बल्कि दक्षिण एशिया के सभी देशों में है. उन सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संदर्भों को भी समझने की जरूरत है जो दक्षिण एशिया के साझा सरोकार हैं. बांग्लादेश की राजनीति की त्रासदी यह है कि उसमें जो दक्षिणपंथी और कट्टर धार्मिक प्रवृतियों को सहलाने वाले तत्व हैं वे ऐसी ताकतों को हवा देते हैं. जनरल इरशाद के जमाने में ऐसे ही तत्वों को महत्व दिया गया. शेख हसीना की राजनीति में वे हाशिए पर जरूर गए लेकिन अब फिर अपनी ताकत का इजहार कर रहे हैं.
भारत की ताजा दो घटनाएं भी कम चिंताजनक नहीं हैं. क्या पाकिस्तान से हुयी हार के लिए 11 की टीम में केवल मोहम्मद शमी ही जिम्मेदार है. भारत की टीम ने घुटनों पर झुक कर ब्लैक लाइव मैटर्स का समर्थन जताया. लेकिन वही टीम आखिर शमी पर हो रहे हमले के खिलाफ चुप क्यों हैं. यहां तक कि भारत के किसी सरकारी प्रतिनिधि ने नफरत उगलने वाले सोशल मीडिया प्रापेगेंडा के खिलाफ भी बोलना जरूरी नहीं समझा. राहुल गांधी और कुछ पूर्व के क्रिकेटरों ने जरूर शमी का समर्थन किया है. मध्यप्रदेश में फिल्म निदेशक प्रकाश झा की टीम के साथ जो कुछ हुआ वह एक लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती है. मध्यप्रदेश के गृहमंत्री ने जिस तरह का समर्थन घटना करने वालों को दिया है उससे भी कई सवाल पैदा होते हैं. पाकिस्तान और अफगानिस्तान की कहानी तो और भी त्रासद है. दक्षिण एशिया के आर्थिक शक्तिशाली बनने की राह में सांपद्रायिक नफरत सबसे बड़ी बाधा है.