Deepak Ambastha
चीन की धमकियों से बेपरवाह अमेरिकी संसद की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी ताइवान पहुंच गई, वे वहां ताइवानी नेताओं से मिलीं, पेलोसी वह अमेरिकी राजनेता हैं, जिन्होंने अमेरिकी अधिकारी के रूप में 1991 में चीन के थियेनमन स्क्वायर का दौरा किया था, जहां चीनी सरकार ने आंदोलन कर रहे सैकड़ों छात्रों को मौत के घाट उतार दिया था. अमेरिकी स्पीकर के ताइवान दौरे का कार्यक्रम काफी पहले से घोषित था. लेकिन दिन तारीख तय नहीं था, यह जानकारी आते ही कि अमेरिकी संसद अध्यक्ष ताइवान के दौरे पर जाने वाली हैं, चीन ने धमकियां देना शुरू कर दिया था. चीन ने यहां तक कहा था कि अगर अमेरिकी विमान ताइवान की सीमा में घुसने की भी कोशिश करेंगे तो उन्हें मार गिराया जाएगा. यह गंभीर चेतावनी थी, जिसे लेकर दुनिया चिंतित थी कि पता नहीं अब क्या हो, लेकिन वह दिन भी आ गया जब दर्जनों युद्धपोत और लड़ाकू विमानों के साथ पेलोसी न केवल ताइवान पहुंच गईं, बल्कि वहां पहुंच कर उन्होंने यह भी कहा कि वह ताइवान की धरती पर आकर अपने को सम्मानित महसूस कर रही हैं. यह चीन के जले पर नमक वाला बयान था. लेकिन अमेरिका इन बातों से बेपरवाह है. उसने शायद अफगानिस्तान,यूक्रेन और मध्य पूर्व की घटनाओं से सबक लेते हुए यह दुनिया को बताना तय किया कि अमेरिका को अपने मित्रों की चिंता है और वह मित्रता निभाने को प्रतिबद्ध है. इसके लिए वह कोई भी जोखिम लेने को तैयार है.
ज्ञात है कि वर्ष भर पूर्व अफगानिस्तान से अमेरिका को जैसे विदा होना पड़ा था, यूक्रेन युद्ध में वह जिस तरह असहाय साबित हुआ, उससे विश्व शक्ति के रूप में उसकी छवि को भारी नुकसान पहुंचा था. दुनिया यह समझने मानने लगी थी कि अमेरिका कहता कुछ है और करता कुछ और है. वह संकट का साथी नहीं है. अमेरिका की इस कमजोरी ने न केवल यूरोप, बल्कि रूस, चीन के भी हौसले बढ़ा दिए थे. ताइवान एक ऐसी जगह थी, जहां अपने पैर जमा कर अमेरिका पूरी दुनिया को फिर से संकेत दे रहा है कि वह अभी भी निर्विवाद रूप से आर्थिक और सैन्य महाशक्ति है, उसे चुनौती देना आसान नहीं है, साथ ही उसे अपने साथी देशों की सुरक्षा का पूरा-पूरा ख्याल भी है. चीन के वन चाइना वन नेशन सिद्धांत के तहत चीन ताइवान को अपना हिस्सा मानता है और वह लगातार देश दुनिया और विशेषकर अमेरिका को यह जताता रहा है कि चीनी अखंडता और संप्रभुता से खेलना पूरी दुनिया को महंगा पड़ेगा, लेकिन अमेरिका ने चीनी धमकियों को दरकिनार कर ताइवान की धरती पर अपना राजनयिक उतार दिया है. चीन ने जवाब में ताइवान के इर्द-गिर्द 7 जगहों पर सैन्य अभ्यास शुरू कर दिया है. मिसाइलें और तोपें गरज रही हैं, लेकिन बड़बोले चीन का यह कदम ठीक वैसा ही है जैसे कोई पहलवान घर में तो खूब कसरत करता हो, लेकिन अखाड़े में उतरने से बच निकलता है.
कई मोर्चों पर अमेरिका की विदेश नीति को दुनिया संदेह की दृष्टि से देख रही है. उसे भारत के संदर्भ में देखा जाना जरूरी है. दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में देश की मूल विदेश नीति में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिलते हैं. परंपरागत रूप से रूस का सहयोगी रहा भारत, अमेरिका के नजदीक आया है. चीन के साथ सीमा संघर्ष और चीन का आक्रामक रवैया तथा रूस-चीन की गलबहियां भारत की चिंता का विषय है. पाकिस्तान श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों में चीन की मौजूदगी भारत को परेशान करने वाली रही है. साथ ही अमेरिका की विदेश नीति, जिसमें वह कभी भी चुपचाप करवट बदल लेने का हिमायती रहा है. भारत की दूसरी बड़ी चिंता का विषय है. ताइवान में अमेरिकी दृढ़ता और चीन की बेबसी भारत के लिए अच्छे संकेत हो सकते हैं. भारत रूस की ऐतिहासिक मित्रता संबंधों के बावजूद भारत को स्पष्ट है कि रूस को यदि भारत और चीन के बीच अपना एक साथी ही तलाशना हो तो उसकी प्राथमिकता चीन बनेगा भारत नहीं. यह परिस्थिति भारत के लिए मुश्किलें खड़ी करने वाली है. स्वाभाविक है कि इसकी तोड़ या काट अमेरिका है, पर उसकी विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है, लेकिन ताइवान प्रकरण से अमेरिका जो संकेत दे रहा है वह भारत के लिए भी सुखकर हो सकते हैं.
भारत अमेरिका के साथ न केवल व्यापारिक, बल्कि सैन्य और सामाजिक संबंधों को भी मजबूत कर रहा है. दूसरी ओर चीन से टकराव के बाद अमेरिका के लिए भारत की अहमियत बढ़ेगी. अमेरिका ने भारत को अब पहले की तुलना में अधिक महत्व देना शुरू किया है. यह उसकी मजबूरी भी है. दूसरी ओर विश्व मंच पर भारत बेहद मजबूती से उभरता हुआ आर्थिक और सामरिक शक्ति के रूप में स्थापित हो रहा है, चीन से बढ़ती तनातनी के बीच अमेरिका भारतीय बाजार को नजरअंदाज करने की स्थिति में नहीं है, भारत इस स्थिति से अवगत है और स्वाभाविक है कि वह अपने कदम सोच-समझकर उठाएगा. ताइवान में अमेरिकी उपस्थिति से नाराज चीन ने ताइवान से कई तरह के आयात पर पूरी तरह रोक लगा दी है. एक तरह से कहें तो ताइवान के खिलाफ उसने कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाएं हैं. चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि पेलोसी की ताइवान यात्रा उकसाने वाली कार्रवाई है, लेकिन अमेरिका भी समझता है कि चीन जितना बयानों में तर्क है जमीन पर चीन कोई हिमाकत करने की स्थिति में नहीं है. दुनिया कितनी भी आशंकित क्यों ना हो, लेकिन दो महाशक्तियां एक दूसरे से टकराने के पहले सैकड़ों बार सोचेंगी. ताइवान से दक्षिण कोरिया रवाना होते होते नैंसी पेलोसी का यह कहना है कि अमेरिकी कांग्रेस सांसदों का यह दौरा सुनिश्चित करने के लिए था कि ताइवान के लोगों के साथ अमेरिका खड़ा है. पेलोसी का ट्वीट बहुत कुछ कहता है और उसकी भाषा चीन समझ रहा है. वह उछल कूद तो मचा सकता है, लेकिन अमेरिका से सीधे टकराना उसके लिए अभी दूर की बात है.