Faisal Anurag
बात 2016 की है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केरल की तुलना सोमालिया से कर दी थी. सोमालिया दुनिया का सबसे गरीब देश है और जहां के भूखग्रस्त और कुपोषित बच्चों की तस्वीरों ने जाने कितने लोगों को द्रवित किया है. लेकिन नीति आयोग के ताजा आंकड़ों के अनुसार केरल गरीबी उन्मूलन के दरवाजे पर है और मात्र 0.17 प्रतिशत आबादी ही बहुआयामी गरीबी की गिरफ्त में है. ठीक इसके विपरीत वे तीन राज्य जहां के 90 प्रतिशत लोकसभा सदस्य भारतीय जनता पार्टी के हैं वहां गरीबी का मकड़जाल टूटने का नाम ही नहीं ले रहा है. गरीबी के मकड़जाल में फंसे पांच राज्यों में चार बिहार,उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और मेघालय तो भाजपा शासित हैं. झारखंड में 2019 के बाद से भाजपा शासन से बाहर है. इनमें तीन राज्यों में तो भाजपा लंबे समय से शासन करती आयी है. नीति आयोग के आंकड़े न केवल राज्यों के निवेश और विकास संबंधी दावों की पोल खाल रहे हैं बल्कि यदि इसमें पांचवें राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे को जोड़ कर देखा जाए तो साफ होता है कि सामाजिक सांस्कृतिक असमानता और आर्थिक न्याय के संकट से निपटने का राजनैतिक प्रयास और कौशल किस तरह दिग्भ्रम का शिकार है.
चीन और भारत लगभग एक ही समय आजाद हुए. भारत ने अंग्रेजी सामाज्यवाद से 1947 में में मुक्त हुआ और चीन उसके दो साल बाद. लेकिन विश्व बैंक के आंकड़े बता रहे हैं कि 80 करोड़ लोग चीन में गरीबी रेखा से बाहर हो चुके हैं. चीन ने आर्थिक सुधारों की राह 1980 के आसपास पकड़ा और भारत ने 1991 में. लेकिन भारत संबंधी आंकड़े बता रहे हैं कि 2030 तक गरीबी उन्मूल के निर्धारित लक्ष्य की दिशा में भारत की पहल कोई उम्मीद नहीं जगाती है. चीन ने गरीबी से लड़ने और उससे लोगों को बाहर निकालने के लिए 800 अरब डॉलर का खर्च किया. हालांकि चीन में अलग किस्म की असमानता बड़ी है लेकिन नीति आयोग के आंकड़े ही बता रहे राज्यों को गरीबी से निपटने के लिए लंबी लड़ाई की जरूरत है. डा. मनमोहन सिंह के समय में मनरेगा सको गरीबी रेखा से नागरिकों को बाहर निकालने के बड़े सफल अभियान के रूप में देखा गया था. लेकिन नोटबंदी के बाद से भारत में गरीबों की संख्या बढ़ी है. इसके ठोस कारणों पर विचार की जरूरत है.
दरअसल गरीबी उन्मूल के संदर्भ में चीन का हवाला देते समय अक्सर यह भूल की जाती है कि चीन ने माओ जे दुंग के जामने में जमींदारी उन्मूलन का लक्ष्य हासिल कर लिया था. इसका लाभ यह हुआ कि चीनी समाज की रूढ़िगत मान्यताओं से लोगों को बाहर निकालने में मदद मिली. लेकिन भारत में न तो पूरी तरह जमींदारी का उन्मूलन हुआ और न ही समाजिक जड़ता को तोड़ने का प्रयास हुआ. इन दोनों का गहरा संबंध आधुनिक विकसित समाज बनाने से है. आर्थिक सुधारों के एक सूत्री लक्ष्य न तो असमानता को खत्म करने में कारगर हैं और ही समाज की सांस्कृतिक चेतना में मूलचूल बदलाव लाने में. यही कारण है कि दुनिया के बड़े हिस्से अब भी प्रगति के अपने नुस्खे को तय नहीं कर पाए हैं. विकासशील देशों की यही त्रासदी है कि वह विकसित तो बनना चाहता है लेकिन अपने ही समाज के बहुआयामी विषमता से निपटने का राजनैतिक प्रयास नहीं करता.
गुजरात मॉडल की तो बहुत बात की गयी लेकिन नीति आयोग के आंकड़े बता रहे हैं कि 15वें स्थान पर है. यानी गुजरात भी केरल या पंजबा या तमिलनाडु की तरह पिछले 28 सालों में विकास के बहुआयामी आंकड़ों में पिछड़ा हुआ है. इससे एक मतलब साफ है कि न तो केवल पूंजी निवेश के दावे हालात बदलते हैं और न ही राजनीतिक प्रवृति में लोकप्रियतावादी तरीका. धार्मिक कट्टरता और विकास का घालमेल सत्ता को तो दिला सकता है लेकिन गरीबी जैसे सवाल को हल करने का रास्ता नहीं निकाल सकता. केरल के समाजिक कल्याण,पंचायती राज और समाजिक निवेश की नीतियों को गहराई समझने की जरूरत है. पंचायती राज तो बंगाल में भी कारगर है लेकिन केवल उससे ही बंगाल गरीबी उन्मूल का मकसद नहीं हासिल कर सका और बहुआयाबी गरीबी इंडेक्स में 12 स्थान पर ही है.केरल के समाज में आए बदलाव की वैज्ञानिकता को भी समझने की जरूरत है.
आशीष नंदी ने बिहार,उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान को बीमारू राज्य की संज्ञा दे दी थी. राजस्थान तो इस बीमारू अभिशाप से बाहर निकल गया है लेकिन बिहार उससे अलग हुए झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश इस अभिशाप के गर्त को दूर करने के बजाय राजनीति में धार्मिक और जातिवादी कट्टतरात के ही शिकार बने हुए हैं. बिहार तो शिक्षा के आंकड़ो में भी बुरी तरह फिसल गया है. गरबी से मुक्ति की राह यदि बनानी है तो सामाजिक कल्याण और निवेश के साथ राजनीति के तरीके बदलने की जरूरत है.