Faisal Anurag
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल को बहलाने को गालिब ये ख्याल अच्छा है.
किसान आंदोलन को बदनाम करने वालों पर मिर्जा ग़ालिब का यह अशआर पूरी तरह सटीक बैठता है. 62 दिन,लगभग डेढ़ लाख किसान 1.1 डिग्री तापमान,चार बार की बारिश और ओले,शीतलहर 11 दौरों की बेनतीजा बातचीत और 151 किसानों की शहादत के बावजूद किसानों ने न तो हौसला खोया और न ही धैर्य. शातिपूर्ण आंदोलन को नयी परिभाषा दिया. लेकिन एक छोटे समूह की उग्रता का इस्तेमाल कर जिस तरह किसान आंदोलन की साख,लक्ष्य और उर्जा को बदनाम करने का उपक्रम मीडिया और सरकार की ओर से की जा रही है. सरकार और उसके हिमायती यह प्रचार कर रहे हैं कि किसानों का पक्ष कमजोर हो चुका है. किसान आंदोलन की नाकामयाबी यह तो रही है कि वह उन लोगों की पहचान समय पर नहीं कर सका, जिनकी गतिविधि ने इस ऐतिहासिक आंदोलन की साख को प्रभावित किया.
हकीकत दीगर भी है. न तो किसानों ने धैर्य खोया है और न ही पीछे हटने को तैयार है. इस बीच दो किसान संगठनों ने हिंसा का हवाला देते हुए आंदोलन से हटने का एलान कर दिया है. इनमें एक नेता तो सरदार बीएम सिंह हैं और दूसरे भानू गुट के लोग हैं.
इन दोनों नेताओं को आंदोलनकारी पहले से ही संदेह से परे नहीं मानते रहे हैं. जानकार मानते हैं कि इनके अलग हटने के बावजूद आंदोलन पर प्रभाव नहीं पड़ेगा. इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार, केंद्र सरकार बातचीत के लिए किसानों के साथ सशर्त तैयार है. सरकार चाहती है कि किसान सरकार के प्रस्तावों को स्वीकार करने की सहमति देंगें, तब ही बातचीत होगी. क्योंकि अब सरकार दबाव बना सकती है. यह कहा जा सकता है कि 26 जनवरी की पटकथा प्रायोजित थी और इससे सरकार को फायदा हुआ है. लिबरल समूहों में जो थोड़ा बहुत समर्थन किसानों के लिए था, वह कम हुआ है.
तथ्य तो यह है कि जब से किसान दिल्ली बॉर्डर पर डटे हैं, सरकार की एजेंसियां और समर्थक बदनाम करने का प्रयास करते रहे हैं. लाल किले की घटना के बाद उन्हें जरूर राहत मिली है. लेकिन किसान नेता भी सजग हैं. यह सामयिक हालात हैं, क्योंकि किसान आंदोलन का भले ही दम कर दिया जाये, लेकिन उनकी मांगों को लेकर जिस तरह देश में हालात बन गए हैं, उसका असर खत्म नहीं किया जा सकता है. किसानों ने कॉरपारेट और सरकार के संबंधों को देशभर में स्थापित कर दिया है. यदि लालकिले की घटना को आधार बनाकर सरकार कोई बडा कदम उठाएगी तो इससे किसान आंदोलन को और ज्यादा ताकत मिलेगी और उनके प्रति जनसमर्थन बढ़ने से रोका नहीं जा सकता है. अनेक स्वतंत्र पत्रकारों की इस तरह की राय सोशल मीडिया पर तैर रही है.
वरिष्ठ पत्रकार नीरज झा ने गुरुवार की अलसुबह लिखा है: लगभग भोर हो गया है. 4 बज गए हैं. मैं अभी गाजीपुर बॉर्डर पर हूं. प्रशासन ने रात में आंदोलन स्थल का लाइट काट दिया. शंका यह थी कि किसानों को खदेड़ दिया जाएगा, इसी इंतजार में हूं. देखते हैं क्या होता है. सब बात देखने की ही रह गयी है. एनबीटी पटना का रिपोर्टर रहा हूं. सच लिखने की आदत रही है, सो कुछ आप लोगों से कहना चाहता हूं. ट्रैक्टर रैली के दौरान किसानों की ओर से जो हिंसा की खबर टीवी पर दिखाई जा रही है.
उसमें पूरा लाग लपेट है. किसानों के दिमाग में अगर हिंसा होती तो अपने 62 दिनों के आंदोलन में वह ऐसा कर गुजरते होते, यह बात आसानी से समझी जा सकती है. आप जो लाल किला, अक्षरधाम मंदिर, आईटीओ, अप्सरा बॉर्डर पर हिंसा की तस्वीर देख रहे हैं, यह सब सरकार द्वारा प्रायोजित था. क्या दिल्ली पुलिस इतनी निकम्मी है कि वह लाल किले पर लोगों को चढ़ने से रोक नहीं सकी. दरअसल पुलिस ने ऐसा होने दिया. ताकि आंदोलन पर दाग लग सके और सरकार किसान विरोधी काले कानून को लागू करने में महफूज रहे.
विपक्षी दलों के नेताओं ने भी किसानों के साथ पूरी एकजुटता दिखायी है. कांग्रेस,एनसीपी,तृणमूल कांग्रेस,शिवसेना, सीपीएम के नेताओं ने किसानों के साथ एकजुटता दिखायी है. इन दलों ने संकेत दिया है कि किसानों की मांग के समर्थन में वे एकजुट अभियान भी चला सकते हैं.
अब तक किसान आंदोलन के नेताओं ने राजनीतिक दलों से दूरी बना रखी है. किसान संगठनों ने अपने आंदोलन में राजनीतिक दलों को शिरकत नहीं करने देने का एलान कर रखा है. बावजूद इसके राजनैतिक दलों ने किसानों के पक्ष में आवाज उठाकर केंद्र सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है. किसान नेता चढूनी एकमात्र ऐसे नेता हैं, जो राजनैतिक नेताओं के समर्थन को महत्वपूर्ण मानते रहे हैं.
लेकिन किसान आंदोलन की सबसे बड़ी चुनौती 26 जनवरी की परिघटना से परे जा कर एक नए त्वरा और विश्वसनीयता को हासिल करने की है.
महात्मा गांधी की शहादत के दिन 30 जनवरी को एक दिवसीय उपवास का कार्यक्रम उनके शांति के प्रति प्रतिबद्धता को ही बयान करता है. किसानों के हिंसक होने के आरोप को देर तक प्रचार का हिस्सा बनाए रखना भी मुश्किल ही होगा, क्योंकि किसान आंदोलन की मुख्य प्रवृति यह नहीं है. इस पर केंद्र सरकार के लिए किसान आंदोलन एक ऐसी चुनौती बनकर खड़ा है, जिसे प्रचलित आरोपों से खारिज नहीं किया जा सकता और दमन की कार्रवाई भी किसानों के आंदोलन को शायद ही कमजोर करे. एक ऐसे समय में भी जब किसानों के आंदोलन को अपनी मासूमियत,उर्जा और ताकत के संकट का भी सामना करना है, जो मुख्यधारा मीडिया के हमले का निशाने पर है.
जनांदोलनों को तोड़ने और कमजोर करने के हथकंडे पहले भी आजमाए गए हैं. जनविरोधी सरकारों और कॉरपारेट का ही शगल रहा है. हाल ही में नागरिकता विरोधी आंदोलन को भी तोड़ने के प्रयास किए गए. किसान आंदोलन की यह एक बड़ी परीक्षा की घड़ी है कि वह इस तरह के हथकडों से कैसे निजात पाए और मीडिया के अंधप्रचार के असर को खत्म कर एक नयी साख के साथ देशभर में समर्थन को मजबूत बनाए.
केंद्र सरकार इस अवसर का इस्तेमाल करने को जहां बेताब नजर आ रही है. वही किसान नेताओं का जज्बा भी कमजोर पड़ता नजर नहीं आ रहा है. केंद्र सरकार इस अवसर का इस्तेमाल कर कृषि कानूनों को न्यायसंगत ठहराने के अभियान में है. वहीं किसानों को इस कानून की वापसी के लिए नए तेवर और दबाव हासिल करने की रणनीति के दौर से बढ़ना है. आंदोलन के समर्थक बुद्धिजीवी अनिल चौधरी के शब्दों ने फिर से एकजुट होने और आगे बढ़ने की जरूरत है.