गांव की कहानी – किन्दुवासोकड़ा गांव
लेखक – रेजन टूटी
गांव का क्षेत्रफल228 एकड़ (टाँड़-जंगल मिलाकर)
किन्दुवासोकड़ा एक खूँटकट्टी गाँव है. जो झारखण्ड राज्य के खूँटी जिले में स्थित है. यह खूँटी प्रखण्ड के डाड़ीगुटू पंचायत में पड़ता है. यह गाँव खूँटी से पूरब दिशा में 22 किलोमीटर और मारंगहादा से 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. इस गाँव में 150 एकड़ भूमि खेती लायक है. 12 एकड़ जमीन हाबुईडीह के लोग खेती करते हैं. इस गाँव में एक प्राथमिक विद्यालय है. गाँव के बच्चे उसी स्कूल में पढ़ने जाते हैं. उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को मारंगहादा,खूँटी एवं राँची जाना पड़ता है.
सीमान
किन्दुआसोकड़ा गाँव के पूरब में हाबुईडीह गाँव स्थित है. गाँव के पश्चिम में लोबोदाग गाँव है. गाँव के उत्तर दिशा में हाकाडुवा गाँव और दक्षिण दिशा में कुरकुट्टा गाँव स्थित है. जो एक पठारी क्षेत्र है. इस गाँव के पूरब में जंगल व पोगो बुरू पहाड़ है. गाँव के उतर दिशा में यहाँ का ससन (हड़सरी) तथा उत्तर दिशा में ही जयर व मांड़ाबुरू तथा पूरब में दिबि गुड़ी, देशाउली, जिलु जयर, इकिर स्थित है. किन्दुवासोकड़ा के उत्तर सीमान में हाकाडुवा नदी है जो दक्षिण से उतर की ओर बहती है. हाबुईडीह सीमान से सटा एक पहाड़ी क्षेत्र है.
गाँव का नामकरण
किन्दुवासोकड़ा दो शब्दों से मिलकर बना है. किन्दुवा और सोकड़ा. किन्दुवा एक पेड़ का नाम है और सोकड़ा का शाब्दिक अर्थ है दोन. इस गाँव में पहले अत्याधिक मात्रा में केन्दु के पेड़ और कई दोन थे. इसलिए इस गाँव का नाम किन्दुवासोकड़ा पड़ा. गाँव के सबसे पहले बसाने वाले व्यक्ति का नाम टिंडियाँ मुण्डा था. हाबुईडीह के पूर्वजों ने ही इस किन्दुवासोकड़ा गाँव को बसाया था. गाँव के पूर्वज पहले दुलमी गाँव में रहते थे. वहाँ से वे लोग सर्वप्रथम हाबुईडीह गाँव में आए. टिडिंयाँ मुण्डा एक रिची (बाज पक्षी) पाला करते थे. उन्होंने एक दिन सुकनबुरू (पहाड़) से उस बाज पक्षी को उड़ा दिया. गोंड नामक टाँड़ पर एक बरगद का पेड़ था, उसी पेड़ पर बाज पक्षी जा कर बैठ गया. कुछ देर के बाद वह पक्षी नीचे जमीन पर आ कर बैठ गया. जहाँ पक्षी बैठा वह हाकाडुवा गाँव था. टिडिंयाँ मुण्डा ने हाबुईडीह गाँव में रहते हुए किन्दुवासोकड़ा गाँव की तलाश की और उस गाँव में रहने भी लगा. इस गाँव में टिडिंया मुण्डा ने ही अपना घर सबसे पहले बसाया था.
हातु बोंगा
इस गाँव के पूरब में पोगो बुरू पहाड़ स्थित है. गाँव के लोग पोगो बुरू की पूजा बरसात होने से पहले अच्छी फसल की कामना करते हुए बकरा और लाल मुर्गे की बलि देकर करते हैं. गाँव में विभिन्न पूजा-पाठ के लिए अलग-अलग स्थान हैं. गाँव के लोग उन स्थानों पर आज भी इकट्ठा होते हैं पूजा-पाठ किया करते हैं.
जयर: सरहुल पर्व के अवसर पर जयर में सुकड़ा मुर्गा, लाल मुर्गा, काला मुर्गा, सफेद मुर्गा, माली मुर्गा कुल पाँच तरह के मुर्गे गाँव से खोजकर लाए जाते हैं. पहान और ग्राम प्रधान पूरे गाँव के लिए जयार में पूजा करते हैं. सरहुल पूजा के एक दिन पहले शाम में पूजा स्थान को गोबर से लीप दिया जाता है और दो नये घड़े में पानी भर दिया जाता है. घड़े के पानी को सखुआ की डंटी से चिन्हित किया जाता है. यानी नाप लिया जाता है. अगर दूसरे दिन घड़े का पानी घट जाता है तो ऐसा माना जाता है कि बारिश कम होगी और पानी नहीं घटा तो खेती के लिए भरपूर वर्षा होगी. इस गाँव में मांड़ाबुरू देशाउली,जयर,जिलु जयर, इकिर सभी बोंगा (देवताओं) के एक ही जगह से मनाया जाता है.
सपरा इकिर: लोग बताते हैं कि इकिर पूजा अच्छी वर्षा, सुख को पानी को सामने लाने व दुख के पानी को दूर भगाने के लिए किया जाता है. पूजा में गाँव के सुखी-सम्पन्न करने तथा दुख तकलीफ को दूर करने के लिए प्रार्थना करते हैं. पूजा जून महीने में वर्षा शुरू होने से पहले की जाती है. इस पूजा में काला मुर्गा या काले भेड़ की बलि दी जाती है. यह पूजा वर्ष में एक बार होती है. इकिर पूजा में दिबि देवता से प्रार्थना की जाती है कि किसी को साँप न काटे, किसी प्रकार का रोग न आए, बाघ भी किसी पर हमला न करे.
दिबि गुड़ी: दिबि गुड़ी ही पूरे सीमान एवं गाँव की रक्षा करती हैं. इनकी पूजा से गाँव में किसी भी प्रकार की बीमारी नहीं फैलती है. पूजा में लाल व सफेद मुर्गें की बलि दी जाती है. देवताओं के लिए काला बकरा या बकरा नहीं मिलने पर जोड़ा कबूतर तथा दुर्गा माँ के नाम से सीमान रक्षा के लिए बत्तख की बलि दी जाती है. दिबि गुड़ी की पूजा हरेक प्रकार की बीमारियों से रक्षा करने के लिए की जाती है. यदि गाँव में कोई बीमारी आ जाती है तो तुरंत दिबि गुड़ी की पूजा की जाती है.
दिबि स्थान एवं अन्य पूजा स्थान पर चढ़ाए गए मुर्गा एवं बकरी के सिर को वहीं पर अरवा चावल के साथ खिचड़ी बनाकर खाया जाता है. वह खिचड़ी सिर्फ लड़के ही खा सकते हैं. खिचड़ी को घर नहीं लाया जाता है. वहीं पर पूरे गाँव के पुरुष प्रसाद के रूप में उसे ग्रहण करते हैं.
विवाह प्रणाली
वैसे तो मुण्डाओं में चार प्रकार की रीति-रिवाज से शादी होती है. परन्तु इस गाँव में लोग शादी की एक ही विधि को अपनाते हैं. अगर युवक एवं युवती अपनी पसंद से शादी करते भी हैं, तो शादी के समय गाँव में चली आ रही पंरपरा को ही अपनाया जाता है. लेकिन यह शादी माँ-बाप की इच्छा से होने वाली शादी से थोड़ी अलग होती है.
यदि कोई लड़का अपनी पसंद से शादी करता है तो उसे अपने घर में हर नियम को पूरा करना पड़ता है. यदि कोई लड़की अपनी मर्जी से ससुराल चली जाती है तो बाद में लड़के के घर में ही नया कुटुम्ब भोज का आयोजन होता है. इस प्रकार की शादी में सिर्फ लड़के के घर पर शादी की पूरी रस्म अपनाई जाती है. इस गाँव में इस तरह की शादी का रिवाज बहुत कम है. इस गाँव में अधिकांशत लड़के और लड़कियों की शादी माँ-बाप की इच्छा से होती है.
उत्सव मनाने के तरीके
अन्य मुंडारी खूंटकटी गांव कि तरह इस गाँव में बुरू पोरोब, मागे पोरोब, सरहुल पोरोब,सोहराई पोरोब, करमा पोरोब ,फागु पोरोब एवं अन्य छच्टे-मच्टे पोरोब मनाये जाते हैं. अखाड़े में सामूहिक नाच-गान किया जाता है.
गाँव की लोक कलाएँ
किन्दुवासोकड़ा गाँव में लोक कलाओं की एक परंपरा रही है. पर्व-त्योहारों के उत्सवों में नाच-गान की अलग-अलग शैलियां हैं. नाच-गान की शैलियों में प्रमुख है-करम गीत, खेमटा, चिट्टिद, मागे, जदुर, गेना,जापि.
खान-पान
इस गाँव के लोग अपने खान-पान में अनाज,दलहन, तेलहन, कंद-मूल,फल-फूल, साग-सब्जी का प्रयोग करते हैं. साग के रूप में विभिन्न तरह के पत्ते का उपयोग किया जाता है. कंदप्रमुख अंग आज भी है.
श्रम व्यवस्था
खूंटकट्टी क्षेत्र के अन्य गाँव की तरह इस गाँव में भी श्रम व्यवस्था को परंपरागत तरीके से बांटा गया है. 1. मदइत परंपरा 2. मजदूरी की परंपरा.
घर का स्वरूप
किन्दुवासोकड़ा गाँव के प्राय: सभी घर एक दो को छोड़ सभी कच्ची मिट्टी के बने हुए हैं तथा खपरैल हैं. सरकारी योजनाओं से बने घर ही पक्के इटे के बने है.
गाँव की बसाहट/बनावट
गाँव की जमीन सर्वे जमीन है. इस गाँव के लोग अपनी-अपनी जमीन पर ही घर बनाते हैं. लोग एक-दूसरे की जमीन अदला-बदली करके भी कुछ घर बने हैं. हाबुईडीह के पूर्वजों ने ही किन्दुवासोकड़ा गाँव को भी बसाया था. टिडिंयाँ मुण्डा के ही वंशज दोनों गांवो (हाबुईडीह और किन्दुवासोकड़ा) में बसे हुए हैं.
सांस्कृतिक महत्व के केन्द्र
गाँव के किनारे एक हिद सेरेंग (चट्टान) है. वहीं पर साप्तहिक बैठक होती है. इस चट्टान पर ही सामूहिक उठना-बैठना होता है. यह गाँव की सामूहिक जगह पर स्थित है. दिबि मंडप उसी के बगल में बनाया गया है. उस स्थान का नाम सपरा बुरू है. वहाँ पर हर सप्ताह गुरुवार को गांव की बैठक होती है. गाँव में एक अखड़ा है. वहाँ पर पर्व-त्योहार में और समय-समय पर नाच-गान होता है. पहले यहाँ पर सप्ताह में एक बार नाच-गान होता था. परन्तु यह रिवाज अब खत्म हो गया है. बहा (सरहुल) पूजा के पहले दिन जयर से पहान के घर आंगन तक लोग नाचते हुए आते हैं. वहाँ से आने के बाद पहान का आंगन में जापि और जदुर नाचते हैं. उस दिन पहान के घर का सेल यानी धान कूटने के गढे में गाँव के मुण्डा एवं पहान का पैर धोया जाता है. उसके बाद आंगन में जोर-शोर से वाद्य यंत्र के साथ गाना और सामूहिक नाच किया जाता है.
उपचार के तरीके
छोटी बीमारी होने पर गाँव के वैद्य लोग झाड़ फूँक करते हैं. रोग बीमारी का इलाज अस्पताल में कराने के अलावे दाई और गत गुरु से भी इलाज करवाने की परंपरा है. हाथ-पैर मुड़ जाने (मोच आ जाने) पर सोटाई गाँव में ही हो जाती है. वैद्य लोग पेशाब पानी जाँच करना जानते हैं. बीमारी के अनुसार जड़ी-बूटी देकर इलाज करते हैं. भगत डालिया या चावल देख कर झाड़-फूँक करते हैं और जड़ी-बूटी बताते हैं. जड़ी-बूटी से ठीक न होने पर मारंगहादा से दवा खरीदते हैं.