Arun Rai
पहाड़ों के इतिहास की किताब के एक पन्ने के पलटते ही कुछ करोड़ साल यूं ही निकल जाते है. इस हिसाब से हिमालय मात्र पांच करोड़ साल पुराना बच्चा है. भारत के सबसे पुराने पहाड़, बाबा विंध्याचल की उम्र सत्रह करोड़ वर्ष है. पृथ्वी की सतह से 80 से 100 किलोमीटर नीचे तक की परत स्थलमंडल कहलाती है. स्थलमण्डल कई टुकड़ों में बंटा है, जिन्हें प्लेट्स कहते है. प्लेटें स्थिर नही होतीं; प्रति वर्ष हर 10 से 40 मिलीमीटर की रफ्तार से खिसकती रहती हैं. कहीं कहीं इनकी गति 160 मिलीमीटर प्रति वर्ष भी है. प्लेट की अपनी भी परतें होती हैं. ये एक दूसरे के ऊपर सरक सकती हैं. एक पूरी प्लेट दूसरे की प्लेट की ओर भी जा सकती है.
आपने तेज गति से कारों को टकराते हुए देखा होगा. समझते ही होंगे, टकराने के बाद क्यों और कैसे ये ऊपर की ओर उछल जाती हैं. ठीक वैसे ही, विपरीत दिशाओं से आती प्लेटें एक दूसरे से टकरा कर पृथ्वी की सतह से हजारों किलोमीटर दूर ऊपर की ओर चली जाती हैं. कालांतर मे ये पर्वत बन जाती हैं. प्लेटों की खुद की परतें जब एक दूसरे के ऊपर फिसलती हैं, या जब दो प्लेटें आपस मे टकराती हैं तो कंपन उत्पन्न होता है. यह कंपन अगर धरती की सतह तक पहुंच जाये तो भूकंप आते हैं; भूस्खलन होते हैं. हिमालय की पर्वत-शृंखला भारत और यूरेशिया की प्लेटों के टकराने से बनी है. इन प्लेटों के बीच का घर्षण अभी जारी है. परिणामस्वरूप हिमालय प्रति वर्ष करीब एक सेंटीमीटर की दर से ऊपर की ओर उठ रहा है. इसीलिए उत्तर भारत के उपरी हिस्से, भौगोलिक दृष्टि से अस्थिर माने जाते हैं. भूकंप आते रहते है, पहाड़ों पर भूस्खलन होता रहता है.
जोशीमठ और आस पास का इलाका ऐसे ही भूस्खलनों के मलवों पर स्थित है. इनमें से कुछ, ग्लेशियरों के पिघल जाने के बाद छोड़ दिये गये मलवे भी हैं. लाखों वर्षों में ये मिले जुले मलवे पहाड़ बन तो गये, मगर उनमें दूसरे पहाड़ों जैसी स्थिरता नहीं है. जाहिर है, बड़े निर्माण, विस्फोटों से तोड़े गये पहाड़, खोदी गई सुरंगें, मलवे से बने पहाड़ों को हिला कर अस्थिर कर सकती हैं. यही हो रहा है. 1976 की एम सी मिश्रा समिति ने भी कहा था – ‘जोशीमठ मे हिस्सों के ढहने का इतिहास पुराना है. जोशीमठ को बचाना है तो एनटीपीसी की परियोजना बंद करनी पड़ेगी’. वह तो नही हुआ, उल्टे, नई सड़कें बनाने के लिए नये पहाड़ तोड़े जाने लगे– बाहर से भी और अंदर से भी; सुरंगों की खुदाई के लिए. मलवे के पहाड़ आधुनिकतम शक्तिशाली विस्फोटों को कब तक सह पाते, दरकने लगे हैं. नीचे कर्ण प्रयाग से ऊपर दो सौ किलोमीटर तक इसका प्रभाव है, बद्रीनाथ मंदिर की दीवारों मे क्रैक दिखने लगा है.
बद्रीनाथ से कुछ ही दूरी पर भारत की सीमा चीन से मिलती है. वहां साल भर से तनाव की स्थिति है. 1962 के युद्ध के बाद, त्वरित गति से वहां युद्ध-सामग्री और सैनिक पहुंचाने के लिए पुरानी सड़क बनाई गई थी. सिर्फ वह सड़क ही नहीं, आज वह पूरा का पूरा परिवेश खतरे मे पड़ गया है. आश्चर्य नहीं है कि चीन की सरकारी मीडिया लगातार दरकते घरों, असुरक्षित रास्ते और लोगों के पलायन की तस्वीरें दिखा रही है. भूस्खलन के दूसरे बड़े कारण –पहाड़ों और पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के विरोध में 1972 मे सुन्दरलाल बहुगुणा, गौरादेवी आदि के नेतृत्व में (पेड़ों से) ‘चिपको आंदोलन’ शुरू हुआ. भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि इतनी बड़ी संख्या में पहाड़ी औरतों ने किसी आंदोलन में भाग लिया हो. रेणी गांव की सत्ताइस महिलाओं ने प्राणों की आहुति दी.
आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली, पद्म पुरस्कार मिले. कुछ दिनों के लिए पेड़ों की कटाई रुक गई. मगर फिर, जैसा कि देश की दुर्नियति है, सब कुछ पहले जैसा हो गया. रेणी वही गांव है, जहां 2021 मे एक बार फिर 200 से अधिक लोग मारे गये थे! वाराणसी के घाटों का भी दरकना शुरू हो गया है, होना ही था. गंगा के रास्ते के टेढ़े सिरे पर वाराणसी स्थित है. इसके घाटों से टकरा कर नदी अपना रास्ता बदलती है. घाट उतने नुकीले तो नही हैं मगर उन पर दबाव तो पड़ता ही है. शिव मंदिर का नये परिसर का ब्लू प्रिंट देखते ही, गुजरात से आये आर्किटेक्ट को, बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय के भूगर्भ शास्त्रियों ने और शहर निर्माण विभाग के अभियंताओं ने कहा था, “महाशय, यह डिजाइन वही बना सकता है जिसे न बनारस के भूगोल का पता है न इतिहास का” .उनकी बात किसी ने नही सुनी.बनारस को क्योटो बनाने का वादा था. मगर स्पष्ट चेतावनी रिकार्ड मे दर्ज है, ‘दस सालों के अंदर, घाटों को तोड़कर गंगा शहर के अंदर आ जायेंगी’. वैसे, सैकड़ो वर्षों से घाटों पर धर्मशालाएं बनी हुई हैं. छोटे बड़े आश्रम भी हैं. मगर इनको बनाने के पहले इनके निर्माताओं ने घाटों को मजबूत पत्थरों से लाद दिया था.
इन्हें नया परिसर बनाने के लिए खोद दिया गया. इतने गहरे तक खुदाई हुई है कि शिव मंदिर और घाटों के बीच 400 मीटर की जमीन के नीचे से सैकड़ों मूर्तियां और शिवलिंग निकले थे. धर्म और आस्था की बात अलग कर दें तो भी वैज्ञानिक यह संभावना तो व्यक्त करते ही हैं कि ये छोटे-बड़े मंदिर, मूर्तियां और शिवलिंग नदी के बहाव से घाटों की रक्षा कर रहे थे. वैसे ही जैसे कि मुंबई में समुद्र के किनारे लगाये गये पत्थरों के बड़े बड़े बोल्डर करते हैं. ब्रह्मांड की चेतना को हल्के में मत लेना. इसकी फ्रीक्वेन्सी तो है मध्यम, मगर ये मांजती जबरदस्त है. तुम्हारी चेतना ने जिसे पवित्र मान लिया हो उसे प्रकृति भी पवित्र बना देती है. पवित्र भूमियों को अप्सरा-दरबार बनता देख चुप रहोगे तो मंज जाओगे. आदर्श पुरूष भीष्म पितामह याद हैं? चुप रहे; प्रकृति ने मांज दिया.पूरे छः महीने तीरों पर लिटाये रखा था. आत्मा छलनी हो गई होगी! ब्रह्मांडीय चेतना सबको मांजती है.जोशीमठ और बनारस तो बस शुरुआत हैं.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के नजी विचार हैं.