Prof.Sanjay Dwivedi
टेलीविजन न्यूज चैनलों पर हो रही बहसें डराने लगी हैं. चीख-चिल्लाहटों और शोर से भरा स्क्रीन अजीब से भाव जगा रहा है. संवाद और शास्त्रार्थ की संस्कृति में रचा-बसा समाज इस ‘वितंडावाद’से हैरत में है. बहसें कि जारी हैं. उनका अंत नहीं है. वे संवाद और बातचीत के बजाए ‘कलहप्रिय’ज्यादा हैं. उन्हें संवाद के बजाए शोर पसंद है. उन्हें सुझाव के बजाए तल्खियां पसंद हैं. वे इन बहसों से कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहते. वे चाहते हैं अंतहीन शोर और विवाद के नित नए विषय. इससे टीवी को क्या हासिल है, यह तो पता नहीं, किंतु समाज को इससे कोई उम्मीद नहीं. टीवी के साथी बातचीत में कहते हैं, टेलीविजन ड्रामे का माध्यम है, यहां स्क्रीन पर ड्रामा रचना होता है. मैं बिल्कुल इस बात से असहमत नहीं हूं. ड्रामे रचे जाएं, पर वे सुखांत लेकर आएं. अगर ये ड्रामे दुखांत का कारण बनें, समाज में सद्भाव को तोड़ने का कारण बनें, दुखों का कारण बनें, उकसावे का कारण बनें तो इससे क्या हासिल है? मुझे लगता है कि टेलीविजन न्यूज मीडिया को अपनी भूमिका पर विचार करने का समय आ गया है. जरूरी है कि वे अपने द्वारा रचे जा रहे कंटेंट और खासकर बहसों के स्वर पर एक बार जरूर सोचें.
एक समय में प्रिंट मीडिया ही सूचनाओं का वाहक था, वही विचारों की जगह भी था. 1991 के बाद टीवी घर-घर पहुंचा और उदारीकरण के बाद निजी चैनलों की बाढ़ आ गयी. इसमें तमाम न्यूज चैनल भी आए. जल्दी सूचना देने की होड़ और टीआरपी की जंग ने माहौल को गंदला दिया. इसके बाद शुरू हुई टीवी बहसों ने तो हद ही कर दी. टीवी पर भाषा की भ्रष्टता, विवादों को बढ़ाने और अंतहीन बहसों की एक ऐसी दुनिया बनी जिसने टीवी स्क्रीन को चीख-चिल्लाहटों और शोरगुल से भर दिया. इसने हमारे एंकर्स, पत्रकारों और विशेषज्ञों को भी जगहंसाई का पात्र बना दिया. उनकी अनावश्यक पक्षधरता भी लोगों से सामने उजागर हुई. ऐसे में भरोसा टूटना ही था. इसमें पाठक और दर्शक भी बंट गए. हालात ये हैं कि दलों के हिसाब से विशेषज्ञ हैं, जो दलों के चैनल भी हैं. पक्षधरता का ऐसा नग्न तांडव कभी देखा नहीं गया. आज हालात यह है कि टीवी म्यूट (शांत) रखकर भी अनेक विशेषज्ञों के बारे में यह बताया जा सकता है कि वे क्या बोल रहे होंगे. इस समय का संकट यह है कि पत्रकार या विशेषज्ञ तथ्यपरक विश्लेषण नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे अपनी पक्षधरता को पूरी नग्नता के साथ व्यक्त करने में लगे हैं.
ऐसे में सत्य और तथ्य सहमे खड़े रह जाते हैं. दर्शक अवाक रह जाता है कि आखिर क्या हो रहा है. कहने में संकोच नहीं है कि अनेक पत्रकार, संपादक और विषय विशेषज्ञ दल विशेष के प्रवक्ताओं को मात देते हुए दिखते हैं. ऐसे में इस पूरी बौद्धिक जमात को वही आदर मिलेगा, जो आप किसी दल के प्रवक्ता को देते हैं. मीडिया की विश्वसनीयता को नष्ट करने में टीवी मीडिया के इस ऐतिहासिक योगदान को रेखांकित जरूर किया जाएगा. यह साधारण नहीं है कि टीवी के नामी एंकर भी अब टीवी न देखने की सलाह दे रहे हैं. ऐसे में यह टीवी मीडिया कहां ले जाएगा, कहना कठिन है. मीडिया के साथ गहरी जिम्मेदारी का भाव संयुक्त ही है. उसे अंततः प्रामाणिक, जवाबदेह और जनपक्ष में होना है. वह समाज को बांटने का काम नहीं कर सकता. उसे लोगों को साथ लेकर चलना है और ऐसा वातावरण बनाना है, जिससे मुल्क की तस्वीर बदरंग न नजर आए. आजादी की लड़ाई लड़ते समय भी मीडिया का मूल स्वर यही रहा. सामने अंग्रेजी हूकूमत थी, किंतु हमारे संपादकों ने अपनी शाब्दिक मर्यादा नहीं खोई.
एक लड़ता-झगड़ता भारत जैसा स्क्रीन पर दिखता है. क्या वह सच है? हम भारत के लोग इसे मानने को तैयार नहीं हैं. जिस प्रेम, सद्भाव और मैत्री के साथ समाज रहता और संवाद करता है, उसकी छवियां हमारे टीवी मीडिया से नदारद हैं. सनसनी और कलंक कथाओं के अलावा भी इस देश में बहुत कुछ अच्छा हो रहा है. मीडिया की नजर वहां जाती है, पर उस मात्रा में नहीं, जिससे यह सकारात्मक भाव का सृजन कर सके. मीडिया का कर्म बेहद जिम्मेदारी का कर्म है. सच के साथ खड़े रहना कभी आसान नहीं था. हर समय अपने नायक खोज ही लेता है. इस कठिन समय में भी टीवी मीडिया पर कुछ चमकते चेहरे हमें इसलिए दिखते हैं, क्योंकि वे मूल्यों के साथ, आदर्शों की दिखाई राह पर अपने सिद्धांतों के साथ डटे हैं. समय ऐसे ही नायकों को इतिहास में दर्ज करता है और उन्हें ही मान देता है. हर समय अपने साथ कुछ चुनौतियां लेकर सामने आता है, उन सवालों से जूझकर ही नायक अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं. नए समय ने अनेक संकट खड़े किए हैं तो अपार अवसर भी दिए भी हैं. भरोसे का बचाना जरुरी है, क्योंकि यही हमारी ताकत है.
डिस्क्लेमर: लेखक भारतीय जन संचार संस्थान नई दिल्ली के महानिदेशक हैं और ये इनके निजी विचार हैं.