Faisal Anurag
दो चुनाव परिणाम. संदेश बिल्कुल अलग -अलग. ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में जहां तेलगना राष्ट्र समिति को नुकसान का सामना करना पडा है वहीं भारतीय जनता पार्टी ने अपनी ताकत का एहसास कराया है. लेकिन दूसरी ओर विधान परिषद के चुनावों मे भारतीय जनता पार्टी को महाराष्ट्र में भारी नुकसान का सामना करना पडा है. उत्तर प्रदेश में भी विधान परिषद के चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन बेहतर नहीं है. ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव का महत्व यह है कि उसे तेलंगना पर राज की चाबी माना जाता है. तेलंगना में पहली बार भाजपा ने एक ऐसा प्रदर्शन किया है जिसके खास राजनीतिक अभिप्राय हैं. दक्षिण भारत में भाजपा की निगाह कर्नाटक के बाद तेलंगना और आंध्रप्रदेश पर है. लेकिन भाजपा की कामयाबी की चमक को महाराष्ट्र के नतीजों ने शामिल किया है. नागापुर और पुणे जैसे अपने असर वाले इलाकों में भाजपा को पराजय का सामना करना पडा है.
सवाल उठ सकता है कि आखिर के चंद्रखेर राव की पार्टी को हैदराबाद में ही नुकसान क्यों हुआ है. पिछले चुनाव में उसे 99 स्थानों पर जीत मिली थी जब कि इस बार वह 55 पर सिमट कर बहुमत से दूर रही है. हालांकि वह सबसे बडी पार्टी बन कर उभरी है. लेकिन इसका राजनीतिक संदेश तो साफ है कि केसीआर की राजनीतिक पकड़ कमजोर हो रही है. ओबैसी की पार्टी ने पिछले चुनाव जैसा ही प्रदर्शन किया है लेकिन कांग्रेस तेलंगना में हाशिए पर चली गयी है. कांग्रेस संयुक्त आंध्र पदेश की सबसे बडी पार्टी होती थी लेकिन राज्य के विभाजन के बाद दोनों ही राज्यों में उसका अस्तित्व हाशिए पर चला गया. जिस पार्टी ने नये राज्य का गठन किया उसे ही तेलंगना के वोटरों ने नकारा है.
हैदराबाद के चुनाव परिणाम से एक बार फिर जाहिर होता है कि वोटरों का मनमिजाज बदल चुका है. वे आर्थिक या विकास के सवाल पर वोट नहीं करते हैं बल्कि भावनात्मक मुद्दो से वे प्रभावित होते हैं. भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार में न केवल हैदराबाद का नाम बदलने को मुद्दा बनाया था बल्कि उसेने अपने हिंदू मुस्लिम एजेंडों को ही केंद्र में रखा था. अमित शाह ने परिणाम के बाद भाजपा के विकास नजरिए पर वोट की बात कही है लेकिन ज्ञात ही है कि चुनाव अभियान को सांप्रदायिक बनाने का पूरा प्रयास किया था. बिहार में भी देखा गया कि वोटरों पर विभाजनकारी सवाल ही प्रभावी रहे. विपक्ष के रोजगार के सवाल को वोटरों के एक तबके ने महत्व नहीं दिया. हालांकि हैदराबाद के नागरिक दो बार हुई भारी बारिश की तबाही से निपटने में राव सरकार की नाकामी से नाराज थे. बावजूद इसके भाजपा की कामयाबी केवल सरकार विरोधी रूझान ही नहीं बल्कि वे मुद्दे भी थे जिन्हें भाजपा ने शहर का नाम बदलने और निजाम के बहाने सांप्रदायिकीकरण का प्रयास किया था. हैदराबाद के वोटरों पर किसानों के सवाल या लॉकडाउन के बाद के हालात का असर नहीं दिखा है.
हैदराबाद के बाद भारतीय जनता पार्टी का पूरा ध्यान बंगाल पर है. अमित शाह खुद ही बंगाल में घुसपैठियों का सवाल उठा रहे हैं. यह तो सब को पता ही है घुसपैठियों का सवाल वोटरों के ध्रुवीकरण के लिए ही उठाया जा रहा है. असम में तो पांच साल के शासन के बावजूद भाजपा घुसपैठिनों के सवाल का हल नहीं निकाल सकती है. बंगाल के साथ असम में भी चुनाव होने जा रहे हैं. यानी अगले साल असम और बंगाल की पूरी राजनीति सांप्रदायिक सवालों के इर्दगिर्द ही होगी. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के नाराज नेता शेभंद्र अधिकारी की खूब चर्चा हो रही है जिन्होंने हाल ही में ममता सरकार से इस्तीफा दिया है. नंदीग्राम के इलाके में अधिकारी की मजबूत पकड है. अधिकारी क्या निर्णय लेते हैं बंगाल पर इसके असर का आकलन राजनीतिक प्रेक्षक कर रहे हैं. हालांकि अधिकारी ने अभी तक तृणमूल से इस्तीफा नहीं दिया है. भाजपा की उन पर गहरी निगाह है. तृणमूल सांसद सोग्त राय पार्टी में अधिकारी की नारजगी खत्म करने के प्रयास में लगे हुए हैं.
के चंद्रशेखर राव ओर ममता बनर्जी में एक फर्क है. राव ने भाजपा को पिछले छह सालों में संसद के भीतर और बाहर भरपूर मदद किया है. यहां तक की कृषि विधेयक को पास कराने में भी एनडीए का ही साथ दिया है. इससे तेलंगना में भाजपा को लाभ मिल रहा है. ऐसा तो नहीं हो सकता कि राज्य में भाजपा का विरोध और केंद्र में उसका सहयोग वोटरों की समझ में नहीं आयेगा. लेकिन ममता बनर्जी ने पिछले छह सालों में भाजपा विरोधी तेवर बनाये रखा है. बावजूद इसके लोकसभा चुनाव में भाजपा को बंगाल में उल्लेखनीय कामयाबी मिली.
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