गांव की कहानी
(राम मुंडा ग्राम प्रधान और सनिका टूटी)
ग्राम डेओ झारखंड के खूँटी जिला का डाड़ीगुटु पंचायत में स्थित है. खूंटी से यह गाँव पूरब दिशा में 17 किमी की दूरी पर बसा हुआ है. मारंगहादा से इसकी दूरी 4 किमी है. इस गाँव की कुल आबादी 309 है. इस समय गाँव में कुल 62 बासठ परिवार रह रहे हैं. जिसमें से दो परिवार सांगा किलि के मुण्डा, एक परिवार महतो और 59 परिवार टुटी किलि के मुण्डा हैं. यह गाँव खूँटी तैमारा सड़क पर डाड़ीगुटु से थोड़ा पहले ही सड़क की बायीं ओर पश्चिम दिशा में स्थित है.
इस गाँव के सभी घर मिट्टी के बने हुए हैं. जिसे खपड़ा से छारा गया है. इन्दिरा आवास योजना के तहत चार पांच घर पक्का मकान बनाया गया है. यह गाँव पूरब से पश्चिम की ओर लम्बाई में फैला हुआ है. इस गाँव में एक मिडिल स्कूल है जो मिशनरियों के द्वारा संचालित किया जाता है.
सीमान
डेओ गाँव के पूरब में डाड़ीगुटु गाँव है. पश्चिम दिशा में गुटुआ गाँव बसा हुआ है. उत्तर दिशा में लामडुमा गाँव का जंगल स्थित है तथा दक्षिण दिशा में गाड़ीगाँव बसा हुआ है. इस गाँव में दो नदियाँ बहती हैं. इन दोनों नदियों का नाम डेओ है. ये यह दोनों नदियाँ आगे चलकर काँची नदी में मिल जाती हैं. इस गाँव के उतर दिशा में एक छोटा सा जंगल तथा एक छोटा सा बुरू पहाड़, है जिसे चापड़ा बुरू के नाम से जाना जाता है.
दक्षिण दिशा में राजा का बगीचा स्थित है. जिसमें आज भी 70-80 आम के पेड़ और कुछ जामुन के पेड़ लगे हुए हैं.
नामकरण
इस गाँव के लोग पहले मारंगहादा से पूरब दिशा में बांडी नामक गाँव में बसे हुए थे. इस गाँव का एक धांगर काड़ा चराने पश्चिम दिशा में जाया करता था. उसका एक काड़ा रोज कहीं से कीचड़-मिट्टी में सनकर आता था. एक दिन गाँव के लोग को खोजते-खोजते उस जगह पर गए, जहाँ वह कीचड़ में लोटपोट था. उसी जगह एक कोरकोट्टा पक्षी डेओ-डेओ करके रो रही थी. पूरब और पश्चिम में नदी से घिरी हुई टापू नुमा यह जगह लोगों को अच्छी लगी. फिर यहा नया गाँव बसा. जो डेओ के रूप में जाना गया.
हातु बोंगा का इतिहास
बुरू इकिर तथा हेड़ेलता इकिर
डेओ गाँव के उतर दिशा में चपड़ा बुरू: पहाड़ पर बुरू इकिर तथा पश्चिम दिशा में हेड़ेलता इकिर स्थित है. ये दोनों स्थल गाँव का प्रमुख पूजा स्थल है. गांव में बसे मुंडा समुदाय का मानना है कि इन दोनों स्थानों पर आँधी, तूफान, पानी तथा बाढ़ के बोंगा का निवास है.
गाँव के लोग जयर पूजा : सरजोम बा अथवा सरहूल के अवसर पर अप्रैल माह में जयर में पूजा करते वक्त बुरू इकिर और हेड़ेलता इकिर की भी आराधना करते हैं. आराधना करने की यह परम्परा वर्षें से चली आ रही है. इकिर की पूजा करते वक्त पहान यह प्रार्थना करते हैं .गाँव में किसी भी प्रकार की रोग-बीमारी तथा किसी भी प्रकार का विध्न-बाधा न घुसे.
गाँव वाले अच्छी तरह से रहें. गाँव के पशु भी स्वस्थ्य रहें. गांव के लोग मानते हैं पूजा ठीक ढंग से सम्पन्न नहीं होने पर गाँव के लोगों को इसका संकेत तुरंत मिल जाता है. एक दो दिन के अन्दर ही गाँव के किसी पशु को लकड़बग्घा, सियार या भालू उठाकर ले जाता है.
जयर में दो दिन की पूजा होती है.
इस अवसर पर सात मुर्गा : आरा, पुन्डी, माण्डी, हेन्दे आरा पुरती तोराईन रंगों की बलि दी जाती है. इस मौके पर 40 पैला : चालीस किलो चावल से इलि बनाया जाता है. पूजा के लिए तपन इलि अलग से बनाया जाता है. रविवार के दिन पानी चढ़ाया जाता है. इसी दिन लोग जुटते हैं और सामूहिक रूप से नाच-गान करते हैं. सातों मुर्गें की बलि सोमवार को दी जाती है.
इसी स्थान से बुरू इकिर हातू सीमान के और बाकी बोंगाओं को बुलाया जाता है. वहीं पर खिचड़ी बनाई जाती है और सभी लोग प्रसाद के ग्रहण करते हैं. उस प्रसाद को घर लाना मना है. लड़कियां इस प्रसाद को नहीं खाती हैं.
लड़कियों को यह प्रसाद नहीं देने के पीछे गांव के लोगों का मानना है कि लड़कियों के आज नहीं तो कल अपने ससुराल चले जाना है या जो लड़की इस गांव में विवाह करके आयेगी वह भी शुरू से इस मिट्टी की नहीं होती है. अर्थात इस गाँव के लिए दोनों स्थिति में लड़कियाँ अस्थाई होती हैं. इसलिए इन्हें न तो पूजा करने का अधिकार है और न ही प्रसाद खाने का. इस पर्व में पहान का पैर धोकर तेल लगाने की परम्परा है.
इस गांव में एक महीने के बाद छोटा सरहुल मनाने की परम्परा है. सरहुल के अवसर पर जिस घड़ा में तपन इलि बनाया गया था, उसी घड़ा में तपन इलि बनाया जाता है. उस दिन के बाद लोग खेतों में धान बुनना शुरू कर देते हैं. इस पूजा के पहले दोनों बेला हल नहीं चला सकते हैं.
केलेम सिंग
केलेम सिंग पोरोब मागे पोरोब से पहले यानी नवम्बर-दिसम्बर में मनाया जाता है. इस पर्व में पहान अपने खलिहान में सुकड़ा मुर्गा की बलि देता है. मुर्गे की बलि के बाद केलेम सिंग पूजा सम्पन्न होती है. पूजा के सम्पन्न किए बिना खलिहान में पुआल को नहीं चढ़ा सकते. यह परम्परा शुरू से ही बनी हुई है.
वाद्य-यंत्र
इस गांव में नाच-गान के समय पारंपरिक तरीके से ढोल, नगाड़ा, रबका, मांदर, गुगुरै: घुंघरू और झांझ का उपयोग किया जाता था. अब इन वाद्य-यंत्रों के उपयोग में कमी आयी है. पहले इन सभी वाद्य-यंत्रों को हर पर्व-त्योहार में बजाया जाता था. आज इस गाँव के कुछ लोग ऐसे हैं जो इन वाद्य-यंत्रों को बजाना जानते हैं.
युवा वर्ग इन वाद्य-यंत्रों को बजाने में इतना मन नहीं लगाते हैं. क्योकि आधुनिकता उन पर हावी होती जा रही है. आधुनिक बाजा और गीतों की धुन पर वे नाचना-गाना पसंद करते हैं.
खान-पान
डेओ गाँव के लोगो का मुख्य भोजन चावल-दाल है. अपने मुख्य भोजन के साथ प्रकृति से प्राप्त शुद्ध साग-सब्जी, कंद मूल, फल-फूल शुरू से ही इस गाँव भोजन के लोग रुप में उपयोग करते आ रहे हैं. इस गाँव में कंटई साग, माटा साग, फुटकल साग, मुनगा साग, कोइनार का साग, चाकोंडा साग, बेंग साग रूप में इस्तेमाल करते हैं. इसे वह सुखाकर पाउडर बनाकर माड़ के साथ डबकाकर खाते हैं.
डेओ गाँव के लोग खान-पान में शामिल चावल, मकई, गेहूँ, मड़ुवा गंगई, तथा दाल की खेती करते हैं. दलहन के रूप में वे उरद दाल-अरहर,कुर्थी,तथा तेलहन के रूप में सुरगुजा: मागा एवं सरसों की खेती करते हैं. खान-पान में डोरी तेल: महुआ बीज का तेल का भी उपयोग किया जाता है. साग-सब्जी, फल-फूल, कंद-मूल एवं अनाज के अलावे इस गाँव के खान-पान में भेड़,बकरी, सुअर, बतख, मुर्गा-मुर्गी, मछली को लोग चाव से खाते हैं.
श्रम व्यवस्था
श्रम व्यवस्था के अन्तर्गत मदइत की परंपरा अन्य मुंडा गांव की तरह ही है. इस परंपरा के तहत लोग बिना किसी पैसा के या स्वार्थ के एक-दूसरे की मदद किया करते हैं. किसी व्यक्ति के घर की धरना का लकड़ी टूट जाए तो लोग जंगल से लकड़ी लाकर घर की मरम्मत करने में उसकी सहायता करते हैं. इसके बदले में उन्हें हंडिया: चावल का बना हुआ पेय पिलाया जाता है. किसी के खेत की आड़: मेढ़ टूट जाती है तो पहाड़ से पत्थर लाकर उसे बनाया जाता है. यह एक बड़ा काम है जिसके लिए खेत का मालिक मदइत करने आए लोगों को खस्सी भोजन कराता है.
जंगल से संबंध
प्राचीन काल से ही जंगल से इस गाँव के लोगों का घनिष्ठ संबंध रहा है. जंगल इनकी सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक संरचना को मजबूत करता है. जलावन के लिए लकड़ी पतल एवं दोना बनाने के लिए पत्ते जंगल से लाए जाते हैं. शादी-विवाह एवं पूजा की आवश्यक सामग्री जंगल से ही मिल जाती है.
स्वशासन की स्थिति
डेओ गाँव मुण्डा बस्ती है. इस गाँव की शासन प्रणाली मुण्डा की परंपरिक स्वशासन पद्धति पर आधारित है. इस पद्धति के अन्तर्गत गांव के सभी लोग मिलकर एक ग्राम सभा बनते हैं. जो गाँव का मुख्य होता है उसे मुण्डा कहा जाता है. साथ ही गाँव के जयर तथा अन्य अवसरों पर पूजा-पाठ करने या कराने का काम करता है, उसे पहान कहा जाता है. मुण्डा और पहान ग्राम सभा का संचलना करते हैं. गाँव के किसी भी प्रकार की समस्याओं का निपटरा ग्राम सभा द्वारा सबों की सहमति से की जाती है.
इस सभा में पर्व-त्योहार अथवा किसी अन्य उत्सव की तैयारी का भी निर्णय लिया जाता है. गाँव की आपसी झगड़ों का निपटारा गाँव के मुण्डा सब की सहमति से करते हैं. वर्तमान में इस गाँव के मुण्डा राम मुण्डा हैं. सप्ताह के प्रत्येक गुरुवार को ग्राम सभा की बैठक होती है.
सांस्कृतिक महत्व के केंद्र
इस गाँव में दो अखड़ा हैं और दोनों ही अखड़ा सांस्कृतिक महत्व के केन्द्र हैं. पहला अखड़ा डेओ पुराना टोली में स्थित है वहीं दूसरा अखड़ा बड़का टोली में स्थित है. सरहुल के अवसर पर पुराना टोली के अखड़ा में जदुर नाच होता है. वहीं पास्का पर्व के अवसर पर बड़का टोली के अखड़ा में ईसाईयों का भजन होता है.