Apoorv Bhardwaj
पटना में एक हिस्से में वोटिंग हो रही है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दूसरे हिस्से में रैली कर रहे हैं. सारी मीडिया उनके लाइव भाषण दिखा रही है और आचार संहिता की धज्जियां उड़ा रही है. यह सब बिहार विधानसभा के पहले चरण के चुनाव के दिन हो रहा है. भारत का चुनाव आयोग 2014 के चुनाव से पंगु हो गया है, इतना लाचार और बेबस चुनाव आयोग किसी ने नहीं देखा होगा.
टीएन शेषन ने जो अभूतपूर्व काम और नाम चुनाव आयोग को दिया था, वो इस संस्था की साख को कई गुना बढ़ा गया था. लेकिन अफसोस है कि यह सर्वोच्च संस्था आज एक औपचारिकता बन कर रह गयी है. वो एक्जिट पोल को बंद कर सकती है. लेकिन इस सरेआम हो रही आचार संहिता के उल्लंघन के खिलाफ कुछ नहीं कर सकती है.
देखा जाये तो मोदी ने चुनाव आयोग नाम की संस्था को गुजरात से ही नकारना शुरू कर दिया था. पहले वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह को जेम्स माइकल लिंगदोह बोलकर उनके धर्म को उछाल कर इटली से जोड़ा. फिर मियां मुशर्रफ बोलकर पोलराइज किया. वो लगातार इस संस्था को कमजोर शिद्ध करते आये हैं. वो लगातार अपने भाषणों में चुनाव आयोग को गाहे-बगाहे निशाना बनाते रहे हैं.
मोदी वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान बूथ से कुछ दूरी पर अपना चुनाव चिन्ह दिखा रहे थे. जैसे वो चुनाव आयोग को मुंह चिढ़ा रहे हों कि मैं तो सरेआम उल्लंघन कर रहा हूं. आप रोक सको तो रोक लो. दरअसल 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार बंद करना एक पुराना ढकोसला है. भारत के वोटर के विवेक पर प्रश्नचिन्ह लगाता है. सरकारों को हमें हर बार लाइन में खड़ा करने का शौक है. चाहे नोटबंदी हो या तालाबंदी या फ़ॉर वोटिंग लाइन हर जगह आपको एक नागरिक नहीं, बल्कि गुलाम समझा गया है.
भारत बदल रहा है. लेकिन चुनाव आयोग नहीं बदल रहा है. अमेरिका में 2 महीने से मतदान चल रहा है तो हमें क्यों लाइन में लगना चाहिए? इसलिए अब समय आ गया है कि चुनाव आयोग को भी पुराना नियम बदलना होगा. उन्हें भारत की जनता को विवेक शून्य समझना बंद करना होगा. सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दौर में भारत में आचार संहिता का कोई मतलब नहीं रह गया है.
सरकारों को काम करने देना चाहिए. इससे बहुत से विकास के काम रुक जाते हैं. हमें जनता के विवेक पर भरोसा करना होगा. अगर वो किसी को सत्ता में बिठा सकती है, तो उतार भी सकती है. फिर वो चाहे पल-पल नौटंकी करने वाला कोई जादूगर हो या पल-पल रंग बदलने वाला हो.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.