Faisal Anurag
क्या कृषि कानून से केवल पंजाब के किसान आहत हैं? यह सवाल इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि वार्ता के लिए जिन 32 किसान संगठनों के प्रतिनिधियों को केंद्र सरकार ने आमंत्रण भेजा है, वे सभी पंजाब के ही हैं. वार्ता के सूची में दूसरे अन्य राज्यों के किसान संगठनों की उपेक्षा की गयी है. जबकि अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति में पंजाब के अलावे भी देश के अन्य राज्यों के किसान संगठन भी शामिल हैं. केंद्र सरकार के आमंत्रण पर पंजाब के ही एक प्रमुख किसान संगठन किसान मजदूर संघर्ष कमेटी ने साफ कर दिया है कि वे इस बैठक में भाग नहीं लेंगे, क्योंकि केंद्र सरकार देश के किसानों की एकता को तोड़ने का प्रयास कर रही है और एक ही राज्य के किसान संगठनों को बातचीत के लिए आमंत्रित किया है.
पंजाब और हरियाण में किसानों के आंदोलन का व्यापक असर है. लेकिन इस हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता है कि इस आंदोलन में उत्तर प्रदेश,कर्नाटक सहित अनेक राज्यों के किसान संगठनों की भी भागीदारी है. किसानों के दिल्ली कूच के साथ ही यह धारणा बनाने की सुनियोजित की जा रही है. किसान भ्रमित हैं और केवल पंजाब के ही किसान आंदोलन कर रहे हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी में स्पष्ट किया है कि किसानों के बीच भ्रम फैलाया गया है और वे काल्पनिक भविश्य को लेकर चिंतित है. वाराणसी भाषण से संकेत स्पष्ट है कि केंद्र किसी भी तरह के बदलाव के लिए तैयार नहीं है. केंद्र की चिंता यह भी है कि वह कॉरपारेट को नाराज कर किसानों को खुश करेगी तो आर्थिक सुधारों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. देश पहले से ही दो बड़े संकटों में फंसा हुआ है. ये दो संकट हैं आर्थिक मंदी और बेरोजगारी.
मीडिया द्वारा देश की गुलाबी तस्वीर पेश किये जाने के बावजूद पिछली दो तिमाहियों में भारत का इकोनॉमिक ग्रोथ निगेटिव है. इसके साथ एक संकट को कोविड भी है. हालांकि वैक्सिन के प्रचार-प्रसार के बावजूद हकीकत यह है, अब भी अंधेरा छंटा नहीं है. किसान आंदोलन के विस्तार से घबरायी सरकार बातचीत के लिए तैयार तो है लेकिन उसे इरादे को लेकर सवाल बना हुआ है.
किसान संकट से बाहर आने के लिए संकट मोचक के तौर पर राजनाथ सिंह को केंद्र ने आगे किया है. अमित शाह और नरेंद्र सिंह तोमर राजनाथ सिंह के साथ केंद्र का प्रतिनिधित्व करेंगे. इन तीनों मंत्रियों ने भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ मिलकर एक रणनीति तैयार की है. लेकिन किसान संगठनों का साफ कहना है कि वे कृषि कानूनों की वापसी और एमएसपी की कानूनी गारंटी से कम पर समझौता नहीं करेंगे. दोनों ही पक्षों के इस रूख में कितनी नरमी आयेगी, यह तो बातचीत के बाद ही पता चलेगा.
लेकिन आंदोलन के सूत्र बता रहे हैं कि जिस तरह नवंबर में हुए दो दौर की बैठक बेनतीजा साबित हुई थी. उससे भिन्न शायद ही परिणाम निकले. केंद्र की बड़ी समस्या यह है कि वह कानून वापस किये जाने की बात तो दूर उसमें किसी भी तरह के बदलाव के लिए तैयार नहीं दिख रही है. प्रधानमंत्री ने न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रखने की बात कही है, केंद्र चाहता है कि किसान प्रधानमंत्री पर भरोसा करें और उनकी बात मान लें. लेकिन हालात भरोसे से बाहर जा चुकी है.
एमएसपी पर केंद्र पहले भी अपना रूख विभिन्न दस्तावेजों के माध्यम से प्रकट करता आया है. साल भर पहले नीति आयोग के एक दस्तावेज में साफ किया गया था कि एमएसपी जारी रखने का कोई मतलब नहीं है. तीनों कृषि कानूनों का आधार भी नीति आयोग का दस्तावेज ही है.
किसान मजदूर संघर्ष कमेटी पंजाब के महासचिव का कहना है कि हमने बैठक में नहीं जाने का फ़ैसला किया है.समाचार एजेंसी एएनआइ के मुताबिक, उन्होंने इसकी वजह बतायी कि पंजाब के 32 किसान संगठनों को बातचीत का न्योता दिया गया है. लेकिन देश के सभी संगठनों को बुलावा नहीं भेजा गया. कमेटी का कहना है कि ये देश के किसानों में फूट डालने वाली बात है.
किसान मजदूर संघर्ष कमेटी पंजाब के महासचिव के अनुसार, “बातचीत से पहले प्रधानमंत्री जी ने फैसला सुना दिया है कि हमारे कृषि कानून बहुत बढ़िया हैं, तो इस तरह के माहौल में बातचीत का अंदाजा हमें लग गया है.” किसान मज़दूर संघर्ष कमेटी की तरह कई अन्य किसान संगठनों की भी राय है. लेकिन दूसरे अनेक संगठनों ने भी यह तो स्पष्ट कर ही दिया है कि वे कृषि काननों की समाप्ति की मांग से पीछे नहीं हटेंगे.
केंद्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि सरकार से किसानों के इस भरोसे को वह किस तरह कायम करेगी. किसान संगठनों ने अनेक बार कहा है कि केंद्र ने बीच कोरोना काल में जिस जल्दबाजी से अध्यादेश लाया इसकी मांग किसी किसान संगठन ने कभी नहीं की थी. किसानों को अंदेशा है कि सरकार देश के दो बड़े कॉरपोरेट घरानों के लिए ही इन कानूनों को बनाया है. किसान और कॉरपारेट का तनाव की जद से केंद्र के बचने का रास्ता क्या होगा. केंद्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है.