Faisal Anurag
बौखलाहट है या सुचितिंत विचार. नीति आयोग के सीईओ अमिताभकांत की टिप्पणी पहले से ही कमजोर हो रहे लोकतंत्र के लिए बड़ी चिंता का सबब है. अमिताभकांत ने कहा है कि भारत में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है. इसका असर आर्थिक सुधारों के लागू करने पर हो रहा है. अमिताभकांत ने लोकतंत्र बनाम विकास की एक नयी बहस शुरू कर दिया है. यह तानाशाही की खुली वकालत है. क्या लोकतंत्र समावेशी विकास में बाधा है या किसी देश की आर्थिक संरचना के कॉरपारेटीकरण के लिए. मुख्य तथ्य यह उभर कर आया है कि यह टिप्पणी अमिताभकांत की निजी है या केंद्र सरकार की अब खुली नीति बनने जा रही है.
पहले से ही भारत के लोकतंत्र को लेकर चिंता प्रकट की जा रही है. विश्व डेमोक्रेसी इंडेक्स में शीर्ष पचास देशों में भी शामिल नहीं है. दो साल पहले तक भारत इस इंडेक्स में 41 नबंर पर था, लेकिन अब वह 10 अंक गिरकर 51वें पर खिसक चुका है. पनामा और जमैका जैसे देशों भी भारत से ऊपर हैं. यह इंडेक्स हर साल इकॉनामिक इंटलेंस यूनिट जारी करती है.
जैसे-जैसे किसानों और सकार के बीच गतिरोध बढ़ता जा रहा है, सरकार की बौखलाहट साफ दिखने लगी है. अमित शाह और 12 किसान नेताओं की बैठक भी कोई साकारात्मक संकेत नहीं मिला है. गृहमंत्री ने साफ कर दिया है कि सरकार कुछ संशोधनों के लिए तो तैयार है. लेकिन कानून निरस्त नहीं किये जायेंगे. किसानों ने एक बार और साफ कर दिया है, वे कानून रद्द किये जाने से कम पर तैयार नहीं हैं.
कृषि कानूनों की नींव अमिताभकांत ने ही तैयार किया था. वे न केवल आर्थिक सुधारों के लिए किसानों और मजदूरों के अधिकारों को कम किये जाने के पक्षधर हैं, बल्कि मोदी सरकार की लोकतांत्रित प्रतिबद्धता को लेकर दुनिया में भी सवाल उठे हैं. लोकतंत्र इंडेक्स किसी देश की विधिता,मानावाधिकर के प्रति नजरिया और राजनीतिक संस्कृति को आधार बनाकर तय किया जाता है. भारत में मानवाधिकरों को लेकर अनेक वैश्विक संगठन चिंता प्रकट करते रहे हैं.
कोविड काल में अनेक देश के शासकों ने लोकतांत्रिक अधिकारों को सीमित किया और निरंकुशता की ओर कदम तेज कर दिया है. गंभीर महामारी के बावजूद सत्ता में बैठे नेताओं ने कोविड को अपनी राजनैतिक भविष्य के लिए इस्तेमाल किया है. दुनिया के तीन देशों में तो इसी दौर में शासकों ने आजीवन सत्ता में बने रहने की गारंटी कर लिया है. हंगरी जैसे देश इसकी अगुवायी कर रहे हैं.
रूस में व्लादिमिर पुतिन ने ऐसा प्रबंध कर लिया है कि वे अगले 20 सालों तक सत्तासीन बने रहेंगे. उन्होंने यह भी प्रबंध कर लिया है. सत्ता से हटने के बाद भी उन पर किसी तरह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है. भारत में चुनावों पर अंकुश नहीं है, लेकिन भारत का लांकतांत्रिक कल्चर प्रभावित हुआ है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से ही असहमति को देशद्रोह से जोड़ दिया गया है. इसके अलावे देश में वंचितों के हक में आवाज उठाने वाले कार्यकर्ताओं को जिस बड़े पैमाने पर यूएपीए के तहत जेलों में बंद रखा गया है, उससे भी भारत की छवि प्रभावित हुई है.
उदारीकरण व निजीकरण की वैश्विक आंधी के मुकाबले भारत गति नहीं पकड़ पाया. इसका एक बड़ा कारण आजादी के बाद की वह लोकतांत्रिक प्रवृति है, जिसने भारत को दुनिया की बड़ी महाशक्तियों से बचाकर रखा है. भारत ने तो कभी अमेरिका के खेमे में गया और न सोवियत संघ के. लेकिन सावियत संघ के पतन के बाद भारत में भी बदलाव आया.
2014 के बाद से तो भारत जिस तरह अमेरिका का रणनीतिक पार्टनर बनता जा रहा है, उसका असर वह दबाव है जो सार्वजनिक क्षेत्र को खत्म करने की बात करता है.
दुनिया की कई रेटिंग संस्थाओं और विश्व बैंक भी भारत में सुधार की गति को लेकर दबाव बनाये रहते हैं.
भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश करते हुए मोदी सरकार ने अपना इरादा जाहिर किया था कि वह निजी क्षेत्र के लिए भूमि सरंक्षण कानूनों में बदलाव करेगी. लेकिन भारी जनविरोध के कारण वह विधेयक संसद में स्व्त: निरस्त होने दिया गया.
लेकिन कोविड के दौर में नरेंद्र मोदी सरकार का इरादा खुलकर सामने आया है, जब से रक्षा, खदान,बैंक,खेती सहित तमाम सेक्टर को निजी क्षेत्र के लिए खोलने का फैसला किया. 2015 के बाद से नीति आयोग ने आर्थिक मामलों को लेकर जितने में रिपोर्ट पेश किये हैं, लगभग सभी में निजी क्षेत्र की वकालत की गयी है. 2018 से ही कृषि क्षेत्र में निवेश और निजी क्षेत्र के लिए ज्यादा अवसर का प्रस्ताव नीति आयोग ने दिया था.
जिन देशों में बेहतर लोकतंत्र हैं, वहां लोगों की आवाज को दरकिनार नहीं किया जा सकता है. फ्रांस और ब्रिटेन इसके बड़े उदाहरण हैं. किसानों और रेल मजदूरों के आंदोलन के मुद्दों को न तो ब्रिटेन और न ही फ्रांस दरकिनार कर पाया.
बेकरों सरकार की नींव को किसानों के आंदोलन ने हिलाकर रख दिया है. भारत में किसानों के आंदोलन के बाद केंद्र सरकार पहली बार दबाव में है. यह तो वक्त ही साबित करेगा किसानों और मजदूरों पर कॉरपारेट की सरपरस्ती का इरादा केंद्र बदलता है या नहीं. लेकिन जिस तरह के गतिरोध से भारत गुजर रहा है, इससे भारत के लिए लोकतंत्र इंडेक्स में और पिछड़ जाने का खतरा है.