Pankaj Mishra
वर्ष 1994-95 में पहली बार तीन सेवाओं में सर्विस टैक्स (बिल्कुल नया tax जो इसके पहले नहीं था) लगा. वर्ष 2012 तक सेवा क्या है, यह define होता था. और बहुत सी चीजें tax से exempted थी. धीरे-धीरे सेवाओं का दायरा बढ़ने लगा और फिर जुलाई 2012 में एक निगेटिव लिस्ट आयी. यानी इस लिस्ट में जो सेवाएं हैं, वह exempted है. बाकी सब सेवा है. यानी बाकी सब taxable है. उसके बाद आया GST. अब हर सप्लाई TAXABLE है. कुछेक अपवादों को छोड़कर.
कहने का मतलब यह कि जनता के ऊपर, टैक्स, और टैक्स, और ज्यादा टैक्स. यानी सरकार की कमाई और कमाई और बस कमाई ही कमाई.
यह सब उदारीकरण के बाद की परिघटना है. राज्य अपने कल्याणकारी स्वरूप को छोड़कर व्यापारी होने लगा था. उसे सिर्फ कमाने से मतलब रहा, कल्याण से नहीं. आज हमको आपको हर चीज खरीदना है.
इसे एक उदाहरण से समझिये. पहले 131, 1331 पे फोन करके ट्रेन की स्थिति पता चल जाती थी. अब मैसेज पे मैसेज करते रहो और ट्रेन लेट होने (सेवा में कमी ) की सूचना के लिए भी आपको पैसा देना पड़ता है. जबकि आपको इसका मुआवजा मिलना चाहिए (व्यवसाय के नियमों के तहत). और ट्रेन के किराए में बेतहाशा बढ़ोतरी की तो बात ही न करें.
वर्ष 1994-95 में देश की जनसंख्या कितनी रही होगी. तकरीबन 94-95 करोड़ ही होगी. यानी जनसंख्या में कोई डेढ़ गुने भी बढोत्तरी नहीं हुई. मगर GOVT REVENUE चाहे वह टैक्स का राजस्व हो या कल्याणकारी व्यवस्था ध्वस्त कर सेवाओं और उत्पादों को बेच कर प्राप्त राजस्व न जाने कई गुना बढ़ गया होगा.
ऐसी स्थितियों में जब पब्लिक एक-एक चीज़ (हर चीज) खरीद रही है. स्टेट का रोल खत्म हो चुका है. हर सुविधा, हर सेवा ENSURE करने लिए सरकार प्राइवेट बीमा कंपनियों की AGENT बन गई है. हर जरूरत के लिए बैंकों के लिए LOAN AGENT बन गई है.
रोजगार की जगह “रोजगार के अवसर” जैसा नया जुमला गढ़ दिया गया है. ताकि इसके आंकड़े कभी किसी को न मिलें. क्योंकि इसे कभी क्वांटिफाई किया ही नहीं जा सकता.
इसके साथ ही आंकड़े जारी करने की स्वस्थ और अपरिहार्य परंपरा को बंद कर दिया गया है. ताकि सरकार के कृत्यों का पता ही न चले. पता ही नहीं चलेगी तो accountability भी नहीं रहेगी.
बस कथनी ही रहेगी. जिसे मेन स्ट्रीम मीडिया का भोंपू दूर-दूर तक फैलाएगा. दो दिन पहले ही अखबारों में खबर है कि उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय 45,000 से बढ़कर 70,000 हो गई है. लेकिन यह कहीं नहीं लिखा है कि कितने वर्षों में ऐसा हुआ. इसे किन आंकड़ों से पुष्ट किया जा सकता है. बस कह दिया गया और मीडिया इसको फैलाने लग गया.
जब जनकल्याण में सरकारों का रोल खत्म हो गया है और आदमी को हर चीज खरीद के ही मिलना है, तो इतना taxation किसके कल्याण के लिए है?
यह सवाल तो बनता ही है, है कि नहीं.
डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.