Faisal Anurag
बंगाल का बैटल. कमोवेश राजनैतिक टकराव की दिशा का संकेत तो यही है. टैगोर और सत्यजीत राय का सांस्कृतिक बंगाल क्या सचमुच बदल रहा है. आजादी के बाद के बंगाल की ताजा घटनायें बता रही हैं कि विधानसभा का चुनाव ज्यादा से ज्यादा ध्रुवीकृत होने जा रहा है. आजादी के बाद बंगाल ने नक्सलवाद का दौर देखा और भूमि सुधारों का गवाह बना.
वाममोर्चे के शासन के बाद भी नंदीग्राम और सिंगुर ने बंगाल के राजनैतिक विमर्श को ही नहीं बदला, बल्कि वामफ्रंट को सत्ता से बाहर कर दिया. बंगाल के सामाजिक तानेबाने को भूमि सुधारों और पंचायती राज ने नये तरीके से गढ़ा. अब बंगाल एक ऐसे राष्ट्रवाद की राज धकेला जा रहा है. जिसमें रिजनल पहचान के ओझल किये जाने का खतरा है. बंगाल अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करता रहा है. इसी ने एक रिजनल सांस्कृतिक अस्मिता का सृजन किया.
सांस्कृतिक बंगाल ने राजनीति में एक ऐसी अस्मिता खड़ा किया. जो शेष भारत से अलग समझा जाता रहा है. लेकिन 2019 के चुनावों में पहली बार इसपर खतरा देखा गया. बंगाल के सांस्कृतिक समाज के सांप्रदायिक विभाजन के सहारे चुनावी समर को साधने के तेज प्रयास जारी हैं.
वैसे तो आजादी के पहले बंगाल ने सांप्रदायिकता का भयावह दौर देखा था. लेकिन वामफ्रंट की सरकार बनने के बाद देश में बंगाल उन तीन प्रदेशों में एक था. जिस पर बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उभरे सांप्रदायिक उभार का असर नहीं पड़ा. बावजूद इसके यदि बंगाल में घुसपैठियों के बहाने ध्रुवीकतरण का स्वर सुनायी पड़ रहा है. तो इसका मतलब साफ है कि रिजनल सांस्कृतिक अस्मिता की एकता प्रभावित हुई है.
दूर से भले ही बंगाल एकीकृत इकाई की तरह दिखता रहा हो. आंतरिक सच्चाई इसके उलट है. यही वह आधार है, जहां से भारतीय जनता पार्टी अपने लिए समर्थन जुटाने की रणनीति कामयाब बनाना चाहती है. तीन महीने बाद होने वाले चुनावों के लिए बंगाल तैयार दिख रहा है. बंगाल में जहां भाजपा अपने ही राष्ट्रवाद को सहारा बना रही है. वहीं ममता बनर्जी रिजनल पहचान के संदर्भ को एक बार फिर अपनी ताकत बनाना चाहती है.
बंगाल के चुनाव नतीजों के बाद ही यह स्प्ष्ट होगा कि दोनों कौन सा कारक प्रभावी होगा. क्योंकि बंगाल की सामाजिक संरचना शेष भारत के लिए पहेली बनी रही है. मीडिया तो पूरे चुनाव समर को भाजपा बनाम ममता बनर्जी बनाने में लगा हुआ है. लेकिन लेफ्ट और कांग्रेस के मोर्चे को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता है. बंगाल के भावी चुनाव के लिए कोई आर्थिक या रोजमर्रे के अन्य मुद्दों की चर्चा सुनायी नहीं पड़ रही है.
भाजपा के नेताओं अमित शाह और जेपी नड्डा की सभाओं की भीड़ हो या बांग्लादेश से सटे इलाकों में बसे पश्चिमी बंगाल से आये हिंदुओं के बीच शुरू किये गये प्रार्थनाओं का कार्यक्रम. इनके अपने संदर्भ हैं.
बंगाल में भीड़ या सभाएं चुनावी परिणाम के आंकलन का कारक कभी नहीं रहा है. बावजूद इसे नकारा भी नहीं जा सकता है. भाजपा तृणमूल कांग्रेस में तोड़फोड़ करने में कामयाब हुई है. उन नेताओं को भी भाजपा ने अपना हिस्सा बना लिया है, जिन्हें वह भ्रष्ट बताती रही है.
हाल के दिनों में सुवेंदु अधिकारी की खूब चर्चा हुई है. ममता सरकार के वे दूसरे नंबर के ताकतवर नेता माने जाते रहे थे. नंदीग्राम में उनकी भूमिका को लेकर मीडिया में बहस हो रही है. लेकिन ये वही सुवेंदु अधिकारी हैं. जिनपर भारतीय जनता पार्टी ने चिटफंड कंपनियों के घोटाले का केंद्र बताया था.
अधिकारी के भाजपा में शामिल होने के अगले ही दिन उनपर सोशल मीडिया से उनके संदर्भ के पोस्ट भाजपा ने डिलिट करा दिये. अधिकारी इकलौते ऐसे व्यक्ति नहीं हैं, जिनके साथ ऐसा हुआ हो. इसके पहले भी ममता बनर्जी के नजदिकियों के भ्रष्टाचार के आरोपों को भाजपा ने तरजीह नहीं दिया.
बंगाल के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को लेकर अनेक बंगाली सेलेब्रिटी चिंतित हैं. बंगाल ने बमुश्किल इस तरह के विभाजन से खुद को अलग करने का प्रयास किया था. 2021 के चुनावों के बाद यह तो साफ दिख रहा है कि बंगाल बदलेगा. यानी जिस बंगाल को भारत का अग्रदूत माना जाता रहा है. इसके ही बदल जाने की आशंका व्यक्त की जा रही है.
इस चिंता को खारिज भी नहीं किया जा सकता है. नंदीग्राम के किसानों ने ही ममता बनर्जी की जीत की राह बनायी थी. आज जब पूरे देश के किसान तीन कृषि कानूनों के खिलाफ निर्णायक लडाई लड़ रहे हैं, वैसे में बंगाल की दिशा क्या होगी? क्या बंगाल के किसान चुनावों को प्रभावित करेंगे या राष्ट्रवाद की अंधधारा बनाम रिजनल अस्मिता की दुविधा में फंसे रहेंगे.