Faisal Anurag
एक समय था जब हूल और उलगुलान के महानयकों सिदो कानू और बिरसा मुंडा ने न केवल सांस्कृति—राजनैतिक अस्मिता और स्वायत्तता के लिए संघर्ष का नेतृत्व किया बल्कि आदिवासी समाज में घुस आयी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ सांस्कृतिक आत्मालोचना और सुधार का आह्वान किया. बिरासाइतो का पूरा फलसफा हो या होड़ सफा का आंदोलन आदिवासी समाज के नवजागरण का ही प्रयास था, जिसका पूरा जोर आंतरिक बुराइयों और विकृतियों के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा से ओतप्रोत था. लेकिन उसी आदिवासी समाज में एक युवा शिक्षिका रजनी मूर्मू के एक पोस्ट ने न केवल हलचल मचा दी है बल्कि रजमी मुर्मू के खिलाफ सामाजिक बहिष्कार की प्रवृति को हवा दी जा रही है.
संताल परगना में रजनी मूर्मू के विचारों के पक्ष और विपक्ष में जिस तरह की गोलबंदी हो रही है वह आदिवासी चेतना के कई अनछुए पहलुओं को उजागर कर रही है. क्या आदिवासी समाज आंतरिक बुराइयों,अंधविश्वास और विकृतियों के खिलाफ उठने वाली आवाज पर विचार करने के बजाय उसके बहिष्कार की बात क्यों कर रहा है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब एक लेखक डॉक्टर हांसदा सोवेंद्र शेखर के खिलाफ भी संतालपगना के आदिवासियों के एक समूह के हंगामे के कारण मुख्य सवालों को दरकिनार कर दिया गया था और लेखक की नौकरी ही ले ली गयी थी.
ताजा विवाद रजनी मूर्म के एक पोस्ट से खड़ा हुआ है. गोड्डा कॉलेज में समाजशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफेसर रजनी मुर्मू ने 7 जनवरी को फेसबुक पर एक पोस्ट लिखा जो मुख्यत: आदिवासी समाज के पुरूष वर्चस्व और पितृसत्ता को चुनौती देती है. इस पोस्ट में सोहराय त्योहार के समय आदिवासी लड़कियों की सुरक्षा को लेकर कुछ चिंताएं प्रकट की गयी हैं. रजनी ने सोहराय के महत्व को रेखांकित करते हुए अपने पोस्ट में लिखा : जब से संताल शहरों में बसने लगे तो यहां भी लोगों ने एक दिवसीय सोहराय मनाना आरंभ किया…खासकर के सोहराय मनाने की जिम्मेदारी सरकारी कॉलेज में पढने वाले बच्चों ने उठाई… मैंने दो बार एसपी कॉलेज दुमका का सोहराय अटेंड किया है…. जहां मैं देख रही थी कि लड़के शालीनता से नृत्य करने के बजाय लड़कियों के सामने बदतमीजी से ” सोगोय” करते हैं… सोगोय करते करते लड़कियों के इतने करीब आ जाते हैं कि लड़कियों के लिए नाचना बहुत मुश्किल हो जाता है.. सुनने को तो ये भी आता है कि अंधेरा हो जाने के बाद सीनियर लड़के कॉलेज में नयी आई लड़कियों को झाड़ियों की तरफ जबरजस्ती खींच कर ले जाते हैं… और आयोजक मंडल इन सब बातों को नजरअंदाज कर चलते हैं.
इस पोस्ट को आदिवासी यथास्थितिवादी आपत्तिजनक करार दे कर रजनी मूर्म को नौकरी से हटाने ओर उनके सामाजिक बहिष्कार की मांग करने लगे, तो एक समूह रजनी के पक्ष में भी खड़ा हो गया. दो आदिवासी कवियों ने रजनी मूर्म के पक्ष में पोस्ट लिख कर बहस को धार दिया है. युवा कवियित्री जसिंता केरकेट्टा ने एक धारदार टिप्प्णी की है. जसिंता कहती हैं : आदिवासी समाज के भीतर कोई पुरुष भ्रष्टाचारी निकल जाय, बलात्कारी निकल जाय, हिंसक निकल आए, हत्यारा निकल आए तो भी मैंने ऐसे लोगों के खिलाफ़ इतनी ताकत से उनका विरोध करते किसी आदिवासी समुदाय को नहीं देखा, जितनी ताकत वे एक स्त्री के खिलाफ़ लगाते हैं. अगर मुखर स्त्री किसी नौकरी में हो तो सबसे पहले उसे आर्थिक रूप से तोड़ना इनका मूल मकसद हो जाता है. और क्या हो जो कोई नौकरी न करती हो? तो उसकी हत्या या मॉब लिंचिंग करने से भी यह समाज पीछे नहीं हटेगा.मेरा पूरा बचपन संताल समाज के बीच बीता है. गांव-गांव, गली-गली कूचा-कूचा. इस समाज के भीतर स्त्रियों की स्थिति क्या है? समाज की अपनी ताक़त और कमियां क्या है? यह उदाहरण और प्रमाण के साथ दिए जा सकते हैं. और यह भी कि आदिवासी समाज के भीतर पितृसत्ता किस तरह काम करती है. परंपराओं को समाज के लोग ही बनाते हैं और यह कोई न बदलने वाली चीज़ नहीं है. परंपराएं कितनी मानवीय रह गयी हैं? उसमें कौन सी बातें घुस गयी हैं? इसपर अपनी बात रखने का अधिकार उस समाज के स्त्री/ पुरुष सभी को है. विचार/ मंथन करने का काम भी समाज का है.
युवा कवि और सेंट्रल यूनिवसर्टी गया के शिक्षक अनुज लुगुन ने भी लिखा है :समाज में अगर आपराधिक प्रवृत्तियाँ पनप रही हों तो उनका तुरंत प्रतिरोध होना चाहिए. रजनी मूर्मू के जिस फेसबुक पोस्ट पर विवाद हो रहा है उसे मैंने गंभीरता से पढ़ा है. रजनी मुर्मू ने सोहराय परब को लेकर कोई अभद्र टिप्पणी नहीं की है और न ही उसका अनादर किया है. उन्होंने सोहराय परब की परंपरा को लेकर कोई आपत्तिजनक बात नहीं कही है. वे तो खुद भी उस महा-उत्सव में शामिल होती हैं. उन्होंने तो केवल एक कॉलेज में उस महा-उत्सव के आयोजन में घुस रही आपराधिक प्रवृत्ति पर सवाल उठाया है और आदिवासी लड़कियों की सुरक्षा पर चिंता जाहिर की है. हम सब जानते हैं कि आदिवासी समाज में परब-त्योहार शालीनता और सामूहिकता के साथ मनाया जाता है. कुछ लोगों की गलत प्रवृत्तियों की वजह से समाज का सौहार्द बिगड़ता है, उस पर चिंता करना जायज है. रजनी मुर्मू के खिलाफ कार्रवाई की जो मांग उठ रही है उससे मैं सहमत नहीं हूं. मैं महिलाओं के ऊपर होने वाले किसी भी तरह के अपराध के विरुद्ध हूँ, और यह मैंने अपने पुरखों से सीखा है.
श्याम मुर्मू ने लिखा है :क्या हम संताल युवा इतने असहिष्णु हो गए कि किसी सवाल को सवाल की तरह देख ही नहीं सकते. रजनी मुर्मू का पोस्ट सिर्फ एक कॉलेज में सोहराय के दौरान महिलाओं द्वारा छेड़छाड़ का सामना करने पर उनकी आपत्ति पर था. आपको उनके तरीके से आपत्ति हो सकती है बहुत तीखा बोल जाती हैं जिससे लग सकता है कि वो वास्तविक मुद्दे से डाइवर्ट हो रही हों , जिस प्लेटफार्म पर उन्होंने कहा आपको उससे आपत्ति हो सकती है लेकिन आप उनके सवाल को नकार नहीं सकते. श्याम ने लिखा है.
आदिवासी गुरू गोमके ने बहुत पहले ही कहा था –
आमाक जति लागिद , अमाक धोरोम लागिद जाहाएं दो बाय ञेलाये आमगेम ञेला . अर्थात तुम्हारे समुदाय के लिए , तुम्हारे धर्म-संस्कृति के लिए कोई और नहीं देखने वाला तुम ही देखोगे.
क्या आदिवासी समाज अपने समाज की बुराइयों के पक्ष में खड़ा होगा या उसके खिलाफ आवाज उठाने वालों की बातों पर संजीदगी से विचार करेगा. आज यह सवाल आदिवासी सांस्कृतिक असिमता के भविष्य के लिए बेहद अहम है. पितृसत्ता बनाम आदिवासी समाज में स्त्री की अस्मिता और स्वतंत्रता की यह बहस किस दिशा में जाती है यह देखना दिलचस्प होगा.