Shravan Garg
अठारह से 22 सितंबर तक आहूत किए गए संसद के विशेष सत्र को प्रधानमंत्री द्वारा उनके दूसरे कार्यकाल के अंतिम पंद्रह अगस्त पर लाल क़िले से अत्यंत विश्वासपूर्वक की गई घोषणा के साथ जोड़कर देखा जाए तो भाजपा के कार्यकर्ताओं को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. मोदी ने कहा था, अगले साल भी लाल क़िले से तिरंगा वे ही फहराएंगे. लाल क़िले से जी-20 तक का घटनाक्रम इसी ओर इशारा करता है कि चुनाव चाहे जब भी हों, प्रधानमंत्री तो मोदी ही रहने वाले हैं. यानी विपक्षी गठबंधन इंडिया चाहे जो कर ले.
प्रधानमंत्री रहस्य की परतों के बीच जीते और शासन चलाते हैं. कहा जाता है कि अपने इर्द-गिर्द जो आभामंडल वे बनाए रखते हैं, उसकी परतों के पार कोई झांक नहीं पाता, उनके सबसे नज़दीक माने जाने वाले सहयोगी भी नहीं! वाराणसी में भगवान विश्वनाथ के कॉरिडोर के भव्य लोकार्पण समारोह के छाया चित्रों को गूगल पर खोजिए. 13 दिसंबर 2021 को रेवती नक्षत्र में दिन के 1.37 बजे से 1.57 तक के शुभ मुहूर्त में कॉरिडोर के लोकार्पण से पूर्व जब उन्होंने गंगा माता में डुबकी लगाकर उसकी पूजा की, तब भी वे ऊपर से नीचे तक भगवा वस्त्रों से आच्छादित थे.
पूछा जा सकता है कि संसद के विशेष सत्र की कार्यसूची प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व की तरह ही पहरों में क्यों है? प्रधानमंत्री कार्यालय या लोकसभा सचिवालय विज्ञापनों के ज़रिए उसे अख़बारों में उस तरह क्यों नहीं प्रकाशित करवा देता, जिस तरह प्रधानमंत्री के नेतृत्व में प्राप्त हुई उपलब्धियों की गाथाएं जनता के पैसों से छपवा कर जनता के बीच ही प्रसारित की जाती हैं ? पीएमओ या लोकसभा सचिवालय ऐसा नहीं करेगा! कांग्रेस की चेयरपर्सन सोनिया गांधी चाहें तो इस सिलसिले में एक और चिट्ठी प्रधानमंत्री को लिखकर विशेष सत्र के एजेंडे पर अपनी और विपक्ष की चिंताएं व्यक्त कर सकतीं हैं.
‘स्वतंत्रता दिवस’के दिन लाल क़िले से की गई प्रधानमंत्री की घोषणा को सुनने वालों में कई विदेशी राजनयिक भी थे. निश्चित ही दुनिया भर के इन राजनयिकों ने प्रधानमंत्री के उद्बोधन का सार चेतावनियों के साथ अपने-अपने शासनाध्यक्षों को लाल क़िले के परिसर से ही स्मार्ट फ़ोनों के ज़रिए भिजवा दिया होगा. सवाल यह है कि ऐसा दावा कि अगले साल भी तिरंगा झंडा वे ही फहराएंगे प्रधानमंत्री ने अपने प्रथम कार्यकाल के अंतिम पंद्रह अगस्त (2018) के उद्बोधन में क्यों नहीं किया था? दूसरे कार्यकाल के अंतिम पंद्रह अगस्त को ही क्यों किया ? क्या विशेष सत्र के रहस्यमय एजेंडे में ही सारे सवालों के जवाब छुपे हुए हैं? या इन सच्चाइयों से भी कुछ अनुमान लगाए जा सकते हैं कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में पार्टी न सिर्फ़ एक के बाद एक विधानसभा चुनाव हार रही है, उपचुनावों में भी उसकी पराजय हो रही है. छह राज्यों की सात सीटों के लिए हुए उपचुनावों में सबसे महत्वपूर्ण नतीजा प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र वाराणसी के निकट स्थित घोसी का है, जहां मुख्यमंत्री योगी द्वारा हर संभव ताक़त और संसाधनों का इस्तेमाल किए जाने के बावजूद भाजपा भारी मतों से हार गई. यूपी की अस्सी लोकसभा सीटें तो भाजपा के लिए सत्ता की रीढ़ हैं! उन पर आगे क्या होने वाला है?
क्या मान लिया जाए कि घोसी में पराजय से सत्ता की रीढ़ यूपी के भी चटकने की शुरुआत हो चुकी है और संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ की तरह भाजपा को लग गया है कि सिर्फ़ मोदी की छवि और हिंदुत्व के बल पर ही पार्टी फिर सत्ता में नहीं आ पाएगी? ज़ाहिर है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन के बेटे द्वारा (दो सितंबर को) थमाया गया सनातन धर्म पर हमले का मुद्दा घोसी के लिए हुए मतदान (पांच सितंबर) में भाजपा के काम नहीं आया!
आख़िरी सवाल यह कि लोकसभा चुनावों में हार की आशंकाओं के चलते प्रधानमंत्री अगर किन्हीं कमज़ोर क्षणों में सत्ता का मोह त्याग केदारनाथ की उस चर्चित गुफा में ध्यान लगाने का मन बना लें, जहां वे 18 मई 2018 को फ़ोटोग्राफ़रों की टीम के साथ पहुंचे थे तो क्या ऐसा कर पाएंगे? शायद नहीं! निहित स्वार्थों की भक्त मंडली ने उनकी आंखों में भारत को दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताक़त (लोकतंत्र नहीं ?) बनाने का ऐसा काजल रोप दिया है कि वह उन्हें ऐसा कुछ नहीं करने देगा. चाटुकार उद्योगपतियों का समूह वर्तमान हुकूमत को बचाने के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा देगा. यह समूह बारीकी से नोटिस ले रहा है कि राहुल गांधी उसके ख़िलाफ़ संसद और विदेशों यात्राओं (हाल में ब्रुसेल्स) में किस तरह के भाषण दे रहे हैं! संसद के विशेष सत्र का एजेंडा देश की नज़रों से दूर रहस्य की परतों में छुपा है. पीएमओ के अलावा कोई अन्य दावे से नहीं कह सकता कि 18 से 22 के बीच क्या होने वाला है!
‘मोदी हैं तो मुमकिन है’ की तर्ज़ पर सोचा जाए तो सब कुछ संभव है! मतलब कुछ भी हो सकता है. प्रधानमंत्री के अब तक के (गुजरात और दिल्ली के) बाईस सालों के कार्यकाल को ध्यान में लाएं तो मोदी ने कभी चिंता ही नहीं की कि उनके फ़ैसलों से जनता की ज़िंदगी पर क्या असर पड़ सकता है! उनकी नज़रें हमेशा विपक्षी दलों की ज़िंदगी पर पड़ सकने वाले असर पर ही केंद्रित रहीं! क्या संसद के विशेष सत्र के दौरान या उसके बाद कुछ ऐसा चमत्कार नहीं हो सकता कि किसी आकस्मिक परिवर्तन के ज़रिए निर्धारित समय पर चुनाव कराए बग़ैर भी लाल क़िले से अगले साल झंडा फहराने (या बाद ) तक मोदी ही देश के मुखिया बने रहें? विशेष सत्र की उलटी गिनती गिनना शुरू कर दीजिए. बस अगले सोमवार को ही अठारह सितंबर है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.