Anand Kumar
कोरोना का प्रकोप धीरे-धीरे कम हो रहा है. सरकार इसे और कम करना चाहती है. इसलिए जैसे-जैसे कोरोना कमजोर पड़ रहा है, सरकार टाइट हो रही है. जब कोरोना पीक पर था, अस्पताल ठसाठस थे, ऑक्सीजन के बिना जानें जा रही थीं और रोजाना 6 हजार से ज्यादा लोग संक्रमित हो रहे थे, तो सरकार वेट एंड वॉच की मुद्रा में थी. उसे पता था कि जब दुश्मन मजबूत हो, तो उस पर हमला करना अक्लमंदी नहीं है. बड़ी जंग जीतने के लिए छोटे-छोटे मोर्चों की कुर्बानी देनी पड़ती है.
सरकार का लक्ष्य कोरोना को पूरी तरह खत्म करना था. उसने इंतजार किया कि कोरोना कब पीक से उतरता है. मध्य मई से कोरोना पीक से उतरा. उससे पहले सरकार एक्शन में आ गयी. 22 अप्रैल से उसने बंदिशें लागू कर दी ताकि कमजोर कोरोना को पटका जा सके. उसके बाद सप्ताह दर सप्ताह थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ बंदिशें चल रही हैं. अब सरकार ने कोरोना को आखिरी चोट देने की ठानी है. सप्ताहांत में फुल लॉकडाउन लगा कर कोरोना को झारखंड से खदेड़ देने की तैयारी है. शनिवार शाम पांच बजे से सोमवार सुबह छह बजे तक संपूर्ण बंदी है. सरकार ने अर्थव्यवस्था की रफ्तार को ईंधन देने के लिए पेट्रोल पंपों को प्रतिबंधों से मुक्त रखा है. यह अलग बात है कि सड़क पर गाड़ियों को चलने की इजाजत नहीं दी है. जब गाड़ियां ही नहीं चलेंगी तो पंप वाले तेल किसमें डालेंगे, यह तो सरकार के बुद्धिमान अफसर ही बता पायेंगे.
अलबत्ता दूध नहीं मिलेगा. झारखंड एक गरीब राज्य है. ऐसा हम नहीं, सरकार कहती है. हर बयान में यह जुमला कहा जाता है कि झारखंड गरीब राज्य है. अब गरीब है तो जाहिर है कि सबके घर में फ्रिज भी नहीं है. और ज्यादा देर बाहर रहने से दूध फट जाता है. यह बात शायद सरकार के अफसरों को पता नहीं होगी. क्योंकि वे तो बिना फ्रिज के किसी घर की कल्पना नहीं कर पाते होंगे. फिर कल कितने ही नौनिहाल दूध के बिना बिलख-बिलख कर बेहाल हो जायेंगे, सरकारजी ने सोचा नहीं होगा.
सरकार कहती है कि वह किसानों का हित सोचती है. बारिश का मौसम है. खेतों से सब्जियां समय से न तोड़ी जायें, तो खेतों में गल जाती हैं. और अगर तोड़ कर न बिकें तो बासी हो जाती हैं. उनकी कीमत नहीं रह जाती. लेकिन सरकार ने सोचा होगा कि उन्होंने गांव-गांव में कोल्ड स्टोरेज बनवा रखे हैं. गांववाले सब्जियां वहां रख लेंगे. यही हाल फल बेचनेवालों का भी है. ठेला-खोमचा लगानेवाले और रोज कमाने-खानेवाले एक दिन नहीं कमायेंगे, तो कौन सा स्टेट जीडीपी औंधे मुंह गिर जायेंगी. असल मुद्दा कोरोना को हराना है. तो क्या हुआ अगर रविवार को मनपसंद खाना नहीं खा सकेंगे. बकरों और मुर्गों की जिंदगी एक दिन तो जरूर बढ़ जायेगी. उनकी दुआएं भी तो सरकार को ही मिलेंगी.
संडे को, जब सब कुछ बंद रहेगा कोरोना सड़क पर शिकार की तलाश में निकलेगा. किसी को न देख इधर-उधर भटकेगा. पेट्रोप पंप खुला देख वहां जायेगा. बस, तभी सरकार उसे धर-दबोचेगी. पुलिसिया डंडों की मार से कोरोना बाप-बाप चिल्लायेगा. लेकिन किसी की नाक में घुस नहीं पायेगा. हार कर उसे सरेंडर करना पड़ेगा. इस तरह सरकार कोरोना को काबू में कर लेगी और उसे तड़ीपार कर देगी. इस महती कार्य में सहयोग देना जनता का धर्म है. लॉकडाउन का यही मर्म है. बच्चे एक दिन दूध के बिना रह लेंगे. किसान सब्जी की बर्बादी सह लेंगे. हमलोग मटन-चावल खाकर सोफे पर पसरने का सुख त्याग देंगे. मगर सरकार को कोरोना को हराने में सहयोग जरूर देंगे.
बस दिक्कत यही है कि हमारी हालत कहीं अनारकली जैसी न हो जाये. सरकार बाहर जाने नहीं देगी और बीवी घर में चैन से रहने नहीं देगी. पंखे की धूल, छत के जाले, गमले की मिट्टी पता नहीं क्या-क्या मंसूबे उसने अभी से पाल रखे होंगे. तो संडे के लॉकडाउन में राज्य की सरकार और घर की सरकार के बीच पिस रहे भाइयों तक मेरी संवेदना और सहानुभूति पहुंचे!
Wah,bahut hi acha likha hai aapne.
सही बात जनता के दुखती रग पर हाथ रख दिया लेखक ने ,
बात में सच्चाई है,
एक दिन के सम्पूर्ण लॉक डाउन का क्या फायदा मिलेगा ये तो पता नही ,
पर ये ये जरूर हैं की रविवार को जो लोग अपने काम को निपटा लेते , उन्हे सोमवार का इंतजार करना पड़ेगा और तंग सड़को में भीड़ बढ़ेगा,
वो भी सीमित समय में,
जिससे सामाजिक दूरी का पालन हो नही सकेगा,
बैठक में शामिल अफसर अधिकारी का iQ किस स्तर
का हैं..!,
जिन्होंने wet मार्केट को बंद रखा,
सब्जी दूध को बंद से मुक्त रखना चाहिए था, इस व्यापार से जुड़े लोग दैनिक आवश्यकता की पूर्ति करते हैं ,
जो व्यापारी की पूंजी और जनता के अवश्यकता को बहुत ज्यादा प्रभावित करता हैं।