Arvind Jayatilak
मिश्र में संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन के मौके पर जारी रिपोर्ट बेहद चिंताजनक है कि पूरी दुनिया में 2022 में वातावरण में 40.6 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन हो सकता है. अगर यह अनुमान सच हुआ तो फिर वैश्विक तापमान में वृद्धि तय है, जिसे अभी 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने का लक्ष्य रखा गया है. रिपोर्ट के अनुसार 2021 में दुनिया का आधे से अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन तीन देशों चीन (31 प्रतिशत), अमेरिका (14 प्रतिशत) और यूरोपीय संघ (8 प्रतिशत) था. भारत की बात करें तो 2022 में उत्सर्जन 6 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है, जिसमें सर्वाधिक 5 प्रतिशत वृद्धि कोयले से होने वाले उत्सर्जन से हो सकती है. गत वर्ष ब्रिटेन में मौसम विभाग के कार्यालय और एक्जेटर विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने भी अपने शोध में पाया था कि हवाई स्थित मौना लोआ वेधशाला में वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सघनता में 1958 से करीब 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इसके लिए मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधनों, वनों की कटाई और सीमेंट उत्पादन को जिम्मेदार ठहराया गया है. एक आंकड़े के मुताबिक अब तक वायुमण्डल में 36 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि हो चुकी है और वायुमण्डल से 24 लाख टन ऑक्सीजन समाप्त हो चुकी है. अगर यही स्थिति रही तो 2050 तक पृथ्वी के तापक्रम में लगभग 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि तय है. वैज्ञानिकों की मानें तो बढ़ते तापमान के लिए मुख्यतः ग्लोबल वार्मिंग है और इससे निपटने की त्वरित कोशिश नहीं हुई तो आने वाले वर्षों में धरती का खौलते कुंड में परिवर्तित होना तय है. अमेरिकी वैज्ञानिकों की मानें तो वैश्विक औसत तापमान पिछले सवा सौ सालों में अपने उच्चतम स्तर पर है.
औद्योगिकरण की शुरुआत से लेकर अब तक तापमान में 1.25 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है. आंकड़ों के मुताबिक 45 वर्षों से हर दशक में तापमान में 0.18 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ है. आइपीसीसी के आकलन के मुताबिक 21 सवीं सदी में पृथ्वी के सतह के औसत तापमान में 1.1 से 2.9 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी होने की आशंका है. अमेरिकी वैज्ञानिकों ने वायु में मौजूद ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड के अनुपात पर एक शोध में पाया है कि बढ़ते तापमान के कारण वातावरण से ऑक्सीजन की मात्रा तेजी से कम हो रही है. पिछले आठ सालों में वातारवरण से ऑक्सीजन काफी रफ्तार से घटी है. वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है उस पर काबू नहीं पाया गया तो अगली सदी में तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अण्टाकर्टिका के विशाल हिमखण्ड पिघल जाएंगे. देखा भी जा रहा है कि बढ़ते तापमान के कारण उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव की बर्फ चिंताजनक रूप से पिघल रही है. वर्ष 2007 की इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक बढ़ते तापमान के कारण दुनिया भर के करीब 30 पर्वतीय ग्लेशियरों की मोटाई अब आधे मीटर से कम रह गयी है. हिमालय क्षेत्र में पिछले पांच दशकों में माउंट एवरेस्ट के ग्लेशियर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ गए हैं. 76 फीसद ग्लेशियर चिंताजनक गति से सिकुड़ रहे हैं. कश्मीर और नेपाल के बीच गंगोत्री ग्लेशियर भी तेजी से सिकुड़ रहा है.
अनुमानित भूमंडलीय तापन से जीवों का भौगोलिक वितरण भी प्रभावित हो सकता है. कई जातियां धीरे-धीरे ध्रुवीय दिशा या उच्च पर्वतों की ओर विस्थापित हो जाएंगी. जातियों के वितरण में इन परिवर्तनों का जाति विविधता तथा पारिस्थितिकी अभिक्रियाओं इत्यादि पर गहरा असर पड़ेगा. यहां ध्यान रखना होगा कि पृथ्वी पर करीब 12 करोड़ वर्षों तक राज करने वाले डायनासोर नामक दैत्याकार जीवों के समाप्त होने का कारण भूमंडलीय तापन ही था. बढ़ते तापमान पर नियंत्रण के लिए भारत एवं वैश्विक समुदाय को कमर कसना होगा. पर्यावरणविदों की मानें तो बढ़ते तापमान के लिए मुख्यतः ग्रीन हाउस गैस, वनों की कटाई और जीवाश्म ईंधन का दहन है. तापमान में कमी तभी आएगी, जब वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कमी होगी. आंकड़ों पर गौर करें तो 2000 से 2010 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन की दर प्रतिवर्ष 3 प्रतिशत रही जबकि भारत के कार्बन उत्सर्जन में यह वृद्धि 5 प्रतिशत रही. कार्बन उत्सर्जन के लिए सर्वाधिक रूप से कोयला जिम्मेदार है.
भारत की बात करें तो उसकी कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी कोयले पर निर्भर है. अच्छी बात यह है कि भारत ने गत वर्ष पहले पेरिस जलवायु समझौते को अंगीकार करने के बाद क्योटो प्रोटाकाल के दूसरे लक्ष्य को अंगीकार करने की मंजूरी दे दी है. इसके तहत देशों को 1990 की तुलना में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 18 प्रतिशत तक घटाना होगा. भारत के इस कदम से अन्य देश भी इसे अंगीकार करने के लिए आगे आएंगे. पृथ्वी के तापमान को स्थिर रखने और कार्बन उत्सर्जन के प्रभाव को कम करने के लिए कंक्रीट के जंगल का विस्तार और अंधाधुंध पर्यावरण दोहन पर लगाम कसना होगा. जंगल और वृक्षों का दायरा बढ़ाना होगा. पेड़ और हरियाली ही धरती पर जीवन के मूलाधार हैं. वनों को धरती का फेफड़ा कहा जाता है. धरती पर प्राणवायु ऑक्सीजन से लेकर जरुरी भोजन मुहैया कराने के लिए यही वृद्ध जिम्मेदार हैं. वृक्षों और जंगलों का विस्तार होने से धरती के तापमान में कमी आएगी. लेकिन विडंबना है कि वृक्षों और जंगलों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है.
संयुक्त राष्ट्र की ‘ग्लोबल फॅारेस्ट रिसोर्स एसेसमेंट’ (जीएफआरए) की रिपोर्ट में कहा गया है कि प्राकृतिक वन क्षेत्र में कुल वैश्विक क्षेत्र की दोगुनी अर्थात छः फीसद की कमी आयी है. उष्णकटिबंधीय वन क्षेत्रों की स्थिति और भी दयनीय है. यहां सबसे अधिक 10 प्रतिशत की दर से वन क्षेत्र का नुकसान हुआ है. वनों के विनाश से वातावरण जहरीला हुआ है और प्रतिवर्ष 2 अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमण्डल में घुल-मिल रहा है. इससे जीवन का सुरक्षा कवच मानी जाने वाली ओजोन परत को नुकसान पहुंच रहा है. ओजोन को पृथ्वी का सुरक्षा कवच कहा जाता है क्योंकि यह जीवों की सूर्य की पराबैगनी किरणों से रक्षा करता है. बेहतर होगा कि वैश्विक समुदाय बढ़ते तापमान से निपटने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन पर नियंत्रण का कोई ठोस प्रभावी उपाय ढ़ूंढ़ें.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.