Shyam Kishore Choubey
झारखंड के राजनीतिक गलियारे में एक सवाल हालांकि साल भर से अधिक समय से गूंजता रहा है. लेकिन 19 अक्टूबर को लिकर किंग योगेंद्र तिवारी की गिरफ्तारी के बाद इस पर तेज बहस छिड़ गई. योगेंद्र तिवारी किसका? सत्ताधारी झामुमो का या पूर्ववर्ती सत्ताधारी भाजपा का? योगेंद्र की गिरफ्तारी ईडी ने की है. उसको शराब घोटाले में बंदी बनाया गया है. झारखंड की शराब नीति पर छत्तीसगढ़ का प्रभाव रहा था. यहां की शराब नीति में छत्तीसगढ़ की एक सरकारी कंपनी का बहुत कुछ लेना-देना था. कुछ ऐसे ही मामले में दिल्ली के दो मंत्री और एक सांसद ईडी के फंदे में फंसे हुए हैं. दिल्ली वाली शराब नीति का कुछ-कुछ तेलंगाना से भी लेना-देना था. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की बेटी कविता से ईडी पूछताछ कर चुका है. फिर या तो किन्हीं कारणों से उसने चुप्पी साध ली या वहां का केस बाद में साधने का विचार हो. यह सब देख-समझ कर लगता है, वाकई शराब खराब चीज है. पता नहीं क्यों मद्य निषेध विभाग चलाकर भी हमारी सरकारें शराब के व्यवसाय में उतर जाया करती हैं. योगेंद्र महोदय से ईडी यूं अगस्त में ही छापों के बहाने मुलाकात कर चुका था. फाइल बनाने में शायद इतना वक्त लग गया. उससे संबंधित ईसीआईआर में ईडी ने वे 15 मामले भी टैग कर लिया, जो संताल परगना के विभिन्न थानों में जमीन और बालू घोटाले को लेकर दर्ज थे.
उन मामलों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से योगेंद्र का नाम जुड़ा हुआ था. योगेंद्र मामले पर झामुमो महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य ने बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर तत्काल एसआईटी गठित कर जांच कराने की वकालत की. कहा, ईडी निष्पक्षता से जांच करे तो पता चल जाएगा कि योगेंद्र का कारोबारी जन्म कैसे हुआ, कब हुआ और उसको किनका संरक्षण मिला और पूंजी किसने लगाई. उसके तमाम बैंक ट्रांजेक्शन खंगालने की जरूरत है. नैरेटिव सेट करने के बजाय ईमानदारी से जांच होनी चाहिए. उधर 2014-19 के बीच झामुमो के दुलारे विधायक रहे और अब भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता कुणाल षाडंगी का कहना था, सत्ताधारी झामुमो की मांग पर एसआईटी गठित करने के पहले सरकार एफआईआर तो करे. उनका सवाल था, योगेंद्र को शराब का ठेका किसने दिया? किसने निराले टेंडर नियम बनाये और किस कारण शराब के टेंडर में 25 लाख रुपये की ननरिफंडेबल राशि तय की गई, यह भी स्पष्ट होना चाहिए. लगे हाथ कांग्रेस नेता अभिलाष साहू ने तो साफ-साफ कहा कि योगेंद्र के भाजपा नेताओं से गहरे संबंध हैं. एनडीए पार्टनर आजसू ने इस बहस से खुद को अलग ही रखा. उसकी यही फितरत रही है.
ठीक ऐसा ही सियासी माहौल तब भी बना था, जब पत्थर के अवैध खनन, परिवहन और तस्करी सहित भूमि और ट्रांसफर-पोस्टिंग घोटाले में पिछले साल 25 अगस्त को ईडी द्वारा प्रेम प्रकाश (पीपी) को गिरफ्तार किया गया था. उस समय भी यही सवाल उठाया गया था कि पीपी का संबंध-संपर्क किस राजनीतिक दल से और किन नेताओं से रहा है. उसकी गिरफ्तारी कुछ अजीब परिस्थितियों में हुई थी. ईडी ने 2009-10 में खूंटी जिले में हुए मनरेगा घोटाले की तफ्तीश के दौरान पिछले साल 06 मई को तत्कालीन उद्योग सह खान सचिव आईएएस पदाधिकारी पूजा सिंघल के सीए सुमन कुमार की गिरफ्तारी की थी. उसके तत्काल बाद पूजा सिंघल तो बंदी बना ही ली गईं, कुछ-कुछ अंतराल पर पंकज मिश्र, कोलकाता के बड़े कारोबारी अमित अग्रवाल आदि-आदि की गिरफ्तारी हुई. उन दिनों पंकज मिश्र मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का विधायक प्रतिनिधि हुआ करता था.
ईडी को मनरेगा घोटाले की जांच का आदेश एक पीआईएल की सुनवाई के दौरान झारखंड हाईकोर्ट ने दिया था. इस घोटाले में सुमन और पूजा की गिरफ्तारी के बाद ईडी ने पत्थर खनन घोटाला, भूमि घोटाला आदि-आदि की जांच में हाथ डाल दिया. इस क्रम में अबतक दर्जन भर से अधिक गिरफ्तारियां हो चुकी हैं, जिनमें रांची के तत्कालीन डीसी आईएएस पदाधिकारी छवि रंजन और एक बड़े कारोबारी विष्णु अग्रवाल भी शामिल हैं. विष्णु के संबंध-संपर्क राज्य के कई नेताओं से रहे हैं. प्रेम प्रकाश के आवास से दो सरकारी एके 47 राइफल और 60 गोलियां बरामद की गई थीं. साहिबगंज जिले में पत्थर खनन घोटाले का किंगपिन दाहू यादव और सत्ता के गलियारे में कई किस्म की उलट-फेर में शामिल विशाल चौधरी फरार चल रहे हैं. हालांकि पूछताछ के लिए बुलाये जाने पर ये दोनों एक बार ईडी के रांची दफ्तर में आये थे, लेकिन उसके बाद ऐसे गायब हो गये जैसे गदहे के सिर से सींग. इन दलालों, घोटालेबाजों में कौन किसका आदमी है, यह सवाल बड़ा पेंचीदा है. ये सभी अचानक सितारा नहीं बन गये. इस मौजूं सवाल पर पूर्व में मंत्री रह चुके वर्तमान विधायक सरयू राय ने ईडी को पत्र लिखकर और प्रेस कांफ्रेंस कर भी सवाल उठाया है, ये धंधेबाज क्या 2020 से ही सक्रिय रहे या पहले से? बेशक पहले से. ऐसे में मुकम्मल जांच ही असल कहानी कहेगी.
राजनीति में पैसा, पद और पैरवी का बोलबाला रहता है. अब तो राजनीति निहायत महंगी हो गई है. खासकर चुनावी राजनीति बहुत ही महंगी हो गई है. इस कारण सत्ता के गलियारों में दलालों की पूछ तो बढ़ ही गई है, वैसे धंधेबाजों की भी चलती हो गई है, जो भारी रकम खपाना जानते हैं. इस फन का उस्ताद हर कोई नहीं हो सकता. जो माहिर खिलाड़ी हैं, वे हर व्यवस्था में न केवल खप जाते हैं, अपितु व्यवस्था में उनका दखल बढ़ जाता है. फर्क इतना ही है, खुद को कौन कहां, कब और कैसे एडजस्ट कर लेता है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.