Faisal Anurag
हिटलर के जमाने में एक गोयवल्स भी था. वह मानता था कि एक झूठ को सो बार बोलने से वह सच मान लिया जाता है. उसके प्रोपेगेंडा पर दुनिया भर के लोकतांत्रवादी समाजवादी और कम्युनिस्ट थे. तमाम प्रोपेगेंडा के बाद भी हिटलर के जुल्मों के खिलाफ लोग खड़े हुए और एक दिन हिटलर को आत्महत्या करनी पडी. तमाम दुष्यप्रचारों के बावजूद किसानों का आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा है. काफिले हर दिन बढ़ रहे हैं. अमित शाह के साथ हुई बातचीत के बाद मिले केंद्र के प्रस्तावों को ठुकराने के बाद अब केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल किसान आंदोलन पर माओवादी नियंत्रण का आरोप लगा रहे हैं. पहले इन्हें खलिस्तानी बताया गया और फिर विपक्ष के इसके लिए दोषी बताने का अभियान चलाया गया. गोयल के आरोप से एक तथ्य तो स्पष्ट होता ही है कि जिस तरह नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन को बदनाम करने का हरमुमकिन प्रयास किया गया. उससे कहीं ज्यादा शिद्दत से इस आंदोलन को भीतर से तोड़ने और कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा है.
भीमा कोरेगांव में इकट्ठा हुए दलितों को भी माओवाद के आरोप का शिकार बनाया गया और देश भर के दो दर्जन एक्टिविस्ओं को जेल में बंद कर दिया गया. तो क्या केंद्र सरकार अब किसान आंदोलन को भी उसी तरह निपटना चाहती है जिस तरह उसने भीमाकारोगांव या नागरिकता आंदोलन के समय तरीका अपनाया. दिलचस्प तथ्य तो यह है कि पिछले छह सालों में देश में सरकार की नीतियों का जिसने भी विरोध किया है उन्हें देशद्रोही ,अर्बन नक्सल या पाकिस्तानी एजेंट साबित करने का प्रयास किया गया है. सरकार समर्थक चैनलों ने इन अभियानों को भरपूर हवा दी है. सोशल मीडिया में भी इसी तरह का माहौल बना कर सवालों को भटकाने का प्रयास किया गया है.
किसानों जैसे- जैसे अंबानी अडाणी के खिलाफ तेवर कडे कर रहे हैं उन पर आरोपों की बौछार भी तेज हो रही है. यह लडाई कॉरपोरेट वर्चस्व बनाम किसानों की स्वायत्ता का बन गया है. आर्थिक सुधारो के नाम पर किसान उन विचारों से सहमत नहीं है जिसमें सरकार तमाम सरकारी, गैरसरकारी प्रतिष्ठानों दो तीन बड़े कॉरपोरेट को सौप रही है. किसानों की लडाई में मजदूरों के सवाल उठ रहे है और मानवाधिकार एक्टिविस्टों के खिलाफ दमनात्मक कार्रवाई को रोकने की भी. किसानों ने खेती और देश को बचाने का नारा किसानों ने बुलंद किया है. सत्त की परेशानी यह है किसानों ने जिन सवालों को उठाया है तमाम प्रेपेगेंडा के बावजूद उसकी साख बनी हुई है.
देश मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके कौशिक वसु ने भी तीनों कृषि कानूनों को खेती और किसानों के लिए हानिकारक बताया है. वसु के अनुसार तीनों कानूनों से केवल कॉरपोरेट के हितो का ही फायदा होगा जब कि भारत की खेती और किसान बुरी तरह प्रभावित होंगे. वसु ने ट्वीटर पर लिखा है कि वे यह बात तीनों कानूनों का अध्ययन करने के बाद कह रहे हैं. उन्होने भारतीय किसानों की समझ और नैतिक पहल को सलाम भी किया है. इसके पहले भी कई कृषि अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञ भी इन कानूनों को भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए घातक बता चुके हैं. इन सवालों पर बहस करने के बजाय मीडिया का प्रभावी हिस्सा किसानों को बदनाम करने के अभियान में लगा हुआ है.
भाजपा के नेताओं ने अपने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को ही याद कर लेना चाहिए जो अकसर कहा करते थे कि जो शासक आंदोलनों से उठ रहे सवालों को सुनने के बजाये. उन्हें विभिन्न तरह के आरोपों से घेरने की कोशिश करता है वास्तव में वह शासन करने की नैतिकता से गिरता है. 2014 के बाद से देश में जब कभी कोई सवाल उठा है उसे इसी तरह के आरोपों से घेरने और बदनाम करने की कोशिश की गयी है जो किसानों को लेकर भी किये जा रहे हैं.
पीयूष गोयल ने जिस तरह का आरोप लगाया है उसके बाद उनका ही दायित्व है कि आरोपों के पक्ष में सबूत पेश करे. पंजाब के किसान तो पिछले चार दशकों से विभिन्न सवालों पर आंदोलन करते रहे हैं. पंजाब के अनेक किसान संगठनों के आदर्श शहीद ए आजम भगत सिंह ही हैं. पंजाब के किसान संगठनों के बड़े तबको नें खलिस्तानियों के खिलाफ मोर्चा लिया था. अनेक बडे किसान नेता खालिस्तानियों की हिंसा में अपनी जान गंवा चुके है. सरकार को किसानों के सवालों का ठोस जबाव देना चाहिए. पिछले कुछ सालों में जिस तरह अडाणी और अंबानी ने कृषि मामलों में दिलचस्पी दिखायी है और अडाणी ने बड़े बड़े गोदाम बनाने का सिलसिला शुरू किया है उससे किसानों की आशंका मजबूत ही हुई है. सरकार के तमाम प्रस्तावों में न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गांरटी देने और एमएसपी से कम पर खरीद करने वालों को सजा देने का प्रावधान नहीं हैं. बिहार सहित कई राज्यों में किसानों को दलहन और धान निर्धारित एमएसपी से कम पर ही बेचने को बाध्य होना पड रहा है. बिहार और यूपी के किसान तो पंजाब अपनी फसल ले जा कर बेचते हैं. एमएसपी ओर मंडी सिस्टम के कारण ऐसा होता है. इस बार भी बिहार और यूपी से बडी मात्रा में धान पंजाब ले जाकर बेचा गया है. जिन राज्यों में मंडी खत्म किये गये उसमें बिहार भी एक है. हश्र साफ दिख रहा है. सरकार को गंभीरता से सोचने के समय है कि वह देश के किसानों को प्रोपेगेंडा का शिकार बनाएगी या उनके सवालों का हल निकाल संतुष्ट करेगी. आने वाले दिनों में हो सकता है कि सरकार ज्यादा क्रूर दमन की राह अपना ले लेकिन पगडी संभाल जट्टा गाने वाले किसानों के हौसले उससे शायद ही पस्त हों. जैसा किसान संगठनों के नेता बारबार कह रहे हैं.