Vivek Aryan
‘गांधी और तिलक के स्वराज की अवधारणा दरअसल आदिवासी जनजीवन से अवतरित है’. ऐसा कहना इसलिए उचित है, क्योंकि गांधी या तिलक से बहुत पहले ही जंगल और बीहड़ में रहने वाले आदिवासियों ने न सिर्फ स्वराज के लिए दर्जनों लड़ाइयां लड़ीं, बल्कि स्वराज की भावना को मुख्यधारा तक पहुंचाया भी. यह भी सत्य है कि भारत में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सबसे पहले विद्रोह आदिवासियों की धरती पर हुआ. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में ज्ञात 1857 की क्रांति से लगभग एक शताब्दी पूर्व जंगल महाल के क्षेत्र में चुआड़ विद्रोह (1767-1805), पहाड़िया विद्रोह (1766), चेरो विद्रोह (1771-1819), तमाड़ विद्रोह (1782-98) के नायकों और तिलका मांझी (विद्रोह शुरू-1784) जैसे लोगों ने अपनी माटी से अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंका था. इन विद्रोहों का उद्देश्य कोई सामुदायिक मांग या किसी बात से आपत्ति नहीं, बल्कि स्वराज था. लगभग डेढ़ सौ सालों बाद इसी स्वराज की भावना देशभर में फैली और देश आजाद हुआ.
झारखंड सहित देशभर के आदिवासी अपनी भूमि, समाज और परंपराओं में किसी प्रकार का छेड़छाड़ या किसी और का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करते. इसे लेकर आज भी सरकार और आदिवासी समुदायों के बीच टकराव है. 18वीं शताब्दी में पूर्वी भारत में खूब पलायन हुए. लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर बसाया जाने लगा. अंग्रेजों द्वारा ऐसा किए जाने के पीछे उनका अपना स्वार्थ था. इस बीच झारखंड और आसपास के क्षेत्रों में भी गैर-आदिवासियों का आगमन हुआ. कुछ लोग कृषि के लिए आए और कुछ व्यापार के लिए. ये लोग व्यापार और कृषि में आदिवासियों से बेहतर थे. आदिवासियों की जमीन पर सभ्य लोगों का प्रभाव बढ़ा और भूमि व्यवस्था में बड़े बदलाव होने लगे. जमींदारों का प्रभाव बढ़ा और आदिवासी अपनी ही जमीन पर मजदूर बनाए जाने लगे. इतिहास की किताबों में भारत की स्वाधीनता की पहली लड़ाई के रूप में वर्णित 1857 की क्रांति के पूर्व झारखंड में दर्जनों विद्रोह हो चुके थे, जिनका सीधा उद्देश्य अंग्रेजों को बाहर करना था. 1855 में संथाल में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में हुए महान संताल हुल (संथाल विद्रोह) पहला ऐसा उदाहरण है, जब सिदो-कान्हू की सेना ने 21 जुलाई 1855 को अंग्रेजों और जमींदारों की संयुक्त सेना को हरा कर वीरभूम के आधे हिस्से पर अपना कब्जा कर उसे आजाद घोषित कर दिया था. बिरसा मुंडा का आंदोलन (1895-1900) देशभर के लिए मिशाल की तरह है, जब 20 साल के युवक ने लाखों आदिवासियों के लिए स्वराज के सपने के साथ मोर्चा बुलंद किया था.
इन सबके बावजूद झारखंड और आस पास की धरती पर अंग्रेजों के खिलाफ हुआ लगभग 2 शताब्दी का लंबा संघर्ष आज भी इतिहास में अपनी जगह ढूंढता नजर आता है. तमाम दस्तावेज, शोध और आलेखों के बावजूद हूल, तमाड़, कोल या उसके पहले के विद्रोह, जो सीधे तौर पर अंग्रेजों के खिलाफ हुए थे, को स्वाधीनता की पहली लड़ाई का दर्जा नहीं मिल सका है. इन आदिवासी संघर्षों में शहीद क्रांतिकारियों को भी इतिहास ने गले नहीं लगाया. देशभर के स्कूलों में पढ़ाई जा रही इतिहास की किताब में ऐसे किसी विद्रोह का जिक्र प्रमुखता से नहीं मिलता. नतीजा यह है कि शहीदों के वंशजों को उनके पूर्वजों के बलिदान का ज्ञान भी नहीं है. कभी कोई शोधार्थी पहुंच जाए तो वे आश्चर्य भरी निगाहों से देखते हैं. दूसरी तरफ जिन शहीदों के वंशजों को पता भी है, वे घर, नौकरी, बिजली, पानी जैसी मूल-भूत सुविधाओं से भी वंचित हैं. इस स्थिति के लिए झारखंड और संयुक्त बिहार की सरकारों के साथ समाज भी जिम्मेदार है.
आखिर क्यों हूल जैसे व्यापक विद्रोह की गिनती पहली स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई में नहीं की जाती? इस बात का जवाब समाज के तत्कालीन और वर्तमान बुनावट के रेशों को बारीकी से पढ़ने से मिलता है. यह ठीक उसी तरह है, जैसे समाज की छोटी जातियों की उपलब्धियों को नकार दिया जाता है. दलित या आदिवासी का बेटा क्लास में फर्स्ट आ जाए, या कोई प्रतियोगिता जीत जाए, तो भी मुख्यधारा का समाज उसे उपलब्धि के रूप में दर्ज नहीं करता. लगभग ऐसे ही आदिवासियों की समस्याएं, उनका विरोध, उनकी उपलब्धियां उस इतिहास का हिस्सा ही नहीं बन सकी, जिसके लिखने में आदिवासियों की भूमिका नहीं है.
दूसरी वजह अंग्रेजी हुकुमत और उसके कार्यशैली से संबंधित है. यूं तो अंग्रेजों का दस्तावेजीकरण शानदार था और हमसे कहीं बेहतर था, यही वजह है कि हमें आदिवासी विद्रोहों की गाथा भी ब्रिटेन की लाइब्रेरी या अभिलेखागार में ज्यादा और भारत में कम मिलती है. लेकिन फिर भी दिल्ली में जहां हर छोटी घटना दुनिया की नजर में आयी, सुदूर झारखंड में जंगलों से उठी विद्रोह की आग को वे दुनिया की नजर से छिपाने में शायद कामयाब रहे. यूं तो हर विद्रोह अहम था और किसी भी विद्रोह को कमतर आंकना उद्देश्य नहीं है. लेकिन मंगल पांडेय द्वारा किया गया विद्रोह चूंकि अंग्रेजी फौज के भीतर शुरू हुआ, वह आसानी से नजर भी आया और उसे दर्ज भी किया गया. जबकि झारखंड के संथाल इलाके में हूल जैसी क्रांति की चर्चा तक नहीं हुई.
आदिवासी विद्रोहों से जुड़े इन सवालों का संदर्भ बहुत गहरा है. विडंबना यह है कि झारखंड के युवाओं को भी यहां हुए विद्रोहों की पर्याप्त जानकारी नहीं है. क्योंकि ये आंदोलन शिक्षा पद्धति में शामिल नहीं हो सके. खुद आदिवासियों का बड़ा वर्ग उनके पूर्वजों के योगदान की जानकारी से वंचित है. इतिहास के पन्नों को उन बलिदानों के प्रति निष्ठावान होना पड़ेगा. उन्हें बताना पड़ेगा कि अभाव और अकाल के बीच भी असभ्य लोगों ने विश्व की सबसे बड़ी ताकत के खिलाफ सबसे पहले बंदूक नहीं, तीर धनुष और कुल्हाड़ी उठाया था.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.