NewDelhi : मशहूर अर्थशास्त्री स्वामीनाथन एस अंकलेसरैया अय्यर ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण (EWS Quota)को गैर-जरूरी करार देते हुए इसे खत्म करने की वकालत की है. द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे अपने साप्ताहिक स्तंभ में अय्यर ने यह बात कही है. बता दें कि केंद्र की मोदी सरकार ने 2019 में गरीब सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू कर दी है.
गरीबी उन्मूलन के मोर्चे पर भारत ने जबर्दस्त कामयाबी हासिल की
अपने स्तंभ में अंकलेसरैया अय्यर ने तीन अर्थशास्त्रियों सुरजीत भल्ला, अरविंद विरमानी और करन भसीन का हवाला देते हुए माना है कि देश में अत्यंत गरीबी की स्थिति अब नहीं रही है. विश्व बैंक के अनुसार, देश का हर नागरिक हर दिन औसतन 1.90 डॉलर (करीब 130 रुपये) का खर्च कर पा रहा है तो अत्यंत गरीबी की स्थिति नहीं मानी जायेगी. लेख के अनुसार भारत में गरीबी रेखा के मानक वर्ल्ड बैंक की परिभाषा से मेल खाते हैं. वर्ल्ड बैंक के पैमानों पर किये गये अध्ययन में पता चला है कि भारत में गरीबी अनुपात 2004 में 31.9% के मुकाबले 2014 में 5.1% हो गया जो 2020 में गिरकर 0.86% पर आ गया. हाल के दशकों में गरीबी उन्मूलन के मोर्चे पर भारत ने जबर्दस्त कामयाबी हासिल की है.
बिना आरक्षण के घट रही गरीबी तो फिर कोटा क्यों?
अंकलेसरैया अय्यर की मानें तो अगर गरीबी बिना नौकरियों या आर्थिक रूप से गरीब वर्ग (EWS) को आरक्षण दिये बिना घट रही है तो क्या सवर्ण गरीबों को आरक्षण देने का सरकार का फैसला कठघरे में खड़ा नहीं होता है? बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में आर्थिक रूप से कमजोर तबके को आरक्षण देने की मांग को नाजायज बताया था. उस वक्त देश की बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी. इसलिए सवाल उठता है कि क्या जब गरीबी में तेजी से कमी आ रही है तब गरीबी के आधार पर आरक्षण देना सही है?
सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था EWS कोटा
भारत सरकार ने 1991 में ओबीसी के लिए 27% और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए 10% आरक्षण का प्रावधान किया था. तब सुप्रीम कोर्ट ने गरीबी आधारित आरक्षण को खत्म कर दिया. अभी ओबीसी के लिए 27% के साथ-साथ दलितों (SC) के लिए 15% और आदिवासियों (ST) के लिए 7.5% कोटा के साथ सभी नौकरियों में अब 49.5% आरक्षण लागू है. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि इससे ज्यादा आरक्षण की व्यवस्था गैर-भेदभाव के सिद्धांत के खिलाफ होगी.
EWS कोटा के मापदंड के दायरे में आती है 80 फीसदी आबादी
मोदी सरकार ने 2019 में सवर्ण गरीबों के लिए आरक्षण का विधेयक संसद में पेश किया था तो बिहार केराष्ट्रीय जनता दल जैसी इक्का-दुक्का पार्टियों को छोड़कर सभी दलों ने समर्थन किया. तब भाजपा ने कहा था कि इस कारण देश में पहली बार ईसाईयों और मुस्लिमों को भी आरक्षण मिल रहा है. साफ है कि नेता आरक्षण को वोट बैंक के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं ना कि उनका मकसद समाज सुधार होता है. सरकार कहती है कि सालाना 8 लाख रुपये की आमदनी वाले, 5 एकड़ से कम खेती की जमीन वाले और शहरों में 1,000 वर्ग फीट से कम में बने मकान वाले आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग में आते हैं.
समाज सुधार नहीं, वोट बैंक को साधना है मकसद!
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) की 2011-12 की रिपोर्ट कहती है कि सबसे धनी 5% भारतीयों का ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ 4,481 रुपये है जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 10,281 रुपये है. संभवतः प्रति व्यक्ति आय इनके 20 प्रतिशत ज्यादा होंगी. 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना के अनुसीर सिर्फ 8.25 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की मासिक आमदनी 10 हजार से ज्यादा है. सच है कि उसके बाद से आमदनी बढ़ी है, फिर भी शंका की गुंजाइश कम है कि 80 प्रतिशत से ज्यादा भारतीय ईडब्ल्यूएस कैटिगरी में आते हैं. 2
015-16 की कृषि जनगणना के अनुसार 86 प्रतिशत जमीन मालिकों के पास 5 एकड़ से कम खेती की जमीन है. तय पैमाने के अनुसार ये सभी ईडब्ल्यूएस कैटिगरी में आ जायेगे. इस तरह, कहें तो गरीबी के आधार पर आरक्षण का मकसद ज्यादा से ज्यादा लोगों को आरक्षण के दायरे में लाना है ना कि समाज के सबसे कमजोर वर्ग को. यानी, नजर समाज सुधार की जगह वोटों पर है.
आदिवासी और पिछड़े वर्ग को आरक्षण ऐतिहासिक भेदभाव की वजह से दिया गया
अंकलेसरैया अय्यर का कहना हो कि दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग को आरक्षण उनके साथ हुए ऐतिहासिक भेदभाव की वजह से दिया गया है, लेकिन उच्च जातियां ऐतिहासिक भेदभाव के कारण गरीब नहीं हैं. वो इतिहास में हुए अन्याय से पीड़ित नहीं हैं. उनकी गरीबी के कई दूसरे कारण हो सकते हैं, लेकिन अन्याय नहीं. इसलिए उनकी सरकारी मदद होनी चाहिए, लेकिन आरक्षण के जरिए नहीं. आखिरकार, आरक्षण के बावजूद जेएनयू या आईएएस की परीक्षा में न्यूनतम मार्क्स लाना होता है.
बेहद गरीब परिवारों के बच्चे मुश्किल से ही शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं, इस कारण उन्हें न्यूनतम मार्क्स हासिल करने में भी परेशानी होती है. ऐसे में आरक्षण का अधिकतम फायदा क्रीमी लेयर को ही मिलेगा. सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वो सरकार से कह दे कि वो शिक्षा व्यवस्था में सुधार करे ना कि गरीब सवर्णों को आरक्षण दे.