Faisal Anurag
सत्ता भले ही राजग ने हासिल कर लिया है, लेकिन महागठबंधन की संघर्षक्षमता और जनसवालों ने बिहार की राजनीति की दिशा को तय किया है. संदेश साफ है राजग मामूली बहुमत पाने में कामयाब हुआ है तो संघर्षशील युवाओं से लैस गठबंधन बड़ी चुनौती की तरह मौजूद है. जनादेश से यह भी साफ है कि वोटरों ने न किसी पर पूरा भरोसा किया है और न ही किसी को नकारा है.परिणामों को हाइजैक करने के आरोपों के बीच बिहार के चुनाव का यह भी संदेश है कि जनविरोधी नीतियों के खिलाफ बिहार सजग है.
रोजगार,पलायन, आर्थिक बदहाली, समाज को बांटने वाली राजनीति ही असली सवाल हैं. बिहार परिणामों ने यह भी स्पष्ट किया है कि युवा पीढ़ी बुजुर्गों से अलग सोच रखती है. महिलाओं की सोच और राजनीतिक समझ भी बहुत अलग है. आने वाले दिनों के राजनीतिक संघर्षों की पटकथा तैयार है.
परिणामों से यह भी जाहिर हो रहा है कि बिहार के विभिन्न अंचल अलग-अलग सोच से प्रभावित हैं. राजनैतिक तौर पर भारतीय जनता पार्टी और भाकपा माले बड़े गेनर साबित हुए हैं तो नीतीश कुमार और कांग्रेस लूजर हैं. छोटे दलों और उनके गठबंधनों ने दोनों की गठबंधनों के आधार पर इलाकों और वोट समूहों पर असर डाला है. वोट प्रतिशत से जाहिर होता है कि बिहार के परिणामों की कहानी सिर्फ वहीं नहीं है जो दिख रही है. दलों को प्राप्त कुल वोटों की संख्या परिणामों की असलियत की ओर इशारा कर रही है.
भारतीय जनता पार्टी को 3685510 वोट मिले, वहीं सबसे बड़ी पार्टी राजद को 5523482 वोट मिले. माले को 559126 वोट हासिल हुए. जदयू को 4819163 वोट मिले. दोनों गठबंधनों को नुकसान पहुंचाने वाले बसपा को 982250 और लोजपा को 2614106 वोट होसल हुए. लोजपा एक सीट भी हासिल नहीं कर सकती, लेकिन उसने केवल नीतीश कुमार ही नहीं महागठबंधन को भी नुकसान पहुंचाया. प्रतिबद्ध वोटरों में बिखराव की हकीकत भी इससे उजागर होती है. अनिर्णय वाले वोटर्स के तात्कालिक निर्णय जिन कारणों से प्रभावित हुआ है, उससे विभाजनकारी मुद्दों की आहट साफ सुनायी पड़ रही है. खासकर सीमांचल के इलाके का वोट पैटर्न कुछ और ही कहानी सुना रहा है.
खासकर दोनों ही धार्मिक समूहों के वोटरों का रूझान. ओवैसी की सफलता इस तथ्य को रेखांकित करती है कि धर्मनिरपेक्ष की परांपरागत समझ को बदलना होगा. प्रतिनिधित्व का सवाल से कहीं ज्यादा बड़ा सवाल पहचान का है.
रोजगार के सवाल पर बिहार के युवाओं का को जो उभार दिखा था, वह वोट में नहीं बदल सका. इसी तरह भाजपा यह कह सकती है कि नरेंद्र मोदी के लॉकडाउन की नीति और आर्थिक सुधारों का खास विरोध वोटरों में नहीं है. माइनस 24 प्रतिशत की आर्थिक तबाही,लॉकडाउन की पीड़ा, श्रमिकों का दर्द बड़े सवाल थे. लेकिन वोट पैटर्न पर वे वह नहीं दिखे. रोजगार के सवाल पर युवाओं का समूह अपने घरों के दूसरे खास कर महिलाओं की राजनीतिक समझ को नहीं प्रभावित कर सका. बिहार की राजनीति की यह एक बड़ी त्रासदी है. बावजूद इसके बिहार ने यह भी बताया है कि रोजमर्रा से जुड़े असली सवाल भी वोट के प्रभावी मुद्दे बन सकते हैं.
लंबे समय के बाद देश के किसी भी राज्य में रोजगार जैसे केंद्रीय सवाल चुनाव का केंद्र बनकर उभरा. पिछले कुछ समय से दक्षिणपंथी उभार ने इन सवालों को नेपथ्य में डाल रखा है. चुनाव शुरू होने के पहले यह आम धारणा थी कि महागठबंधन चुनाव में चुनौती पेश ही नहीं कर पायेगा. लेकिन एक माह में ही महागठबंधन सत्ता के करीब दिखने लगा. एनडीए के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया.
राजद ने आधिकारिक तौर पर कहा है कि जनादेश को हाइजैक करने के लिए चुनाव में तैनात अफसरों का इस्तेमाल किया गया है. राजद के लिए यह संतोष की बात है कि उसे एक बड़े गेनर के रूप में देखा जा रहा है और तेजस्वी यादव एक मास लीडर के रूप में स्थापित हुए हैं.
भाजपा ने बिहार में जदयू और खासकर नीतीश कुमार की सीमाओं का भी भान करा दिया है. अब वे बिहार में एक बड़ी ताकत के तौर पर राजद के मुकाबले खड़ी है. नीतीश की बैसाखी के सहारे ही वे यहां तक की यात्रा तय कर सकी हैं. इस चुनाव में नीतीश वोट हासिल करने के नजरिये से दूसरे स्थान पर रहने की बावजूद आमधारणा में भाजपा के एक कमजोर सहयोगी बन कर उभरे हैं.
हालांकि उनकी जदयू को भाजपा की तुलना में 12 लाख ज्यादा वोट मिले हैं. भाजपा उन्हें तत्काल दरकिनार तो नहीं कर सकेगी, लेकिन भाजपा को बिहार में अपनी नीतियों को अमल में लाने की राह में नीतीश की कमजोर बाधा साबित होंगे.
बिहार में लंबे समय के बाद वामदलों ने दमदार उपस्थिति दर्ज की है. वामदलों में युवा नेताओं ने चुनावी कामयाबी हासिल किया है, जिनकी पहचान संघर्षशील नेता के रूप में पहले से स्थापित है. इन नेताओं की खास बात यह है कि वे उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, और उनकी वैचारिक दक्षता भी जाहिर है. वाम दलों के संघर्ष का एक नया दौर शुरू होने जा रहा है. राजद के साथ उनका साथ लंबा होगा क्योंकि दोनों के ही आधार वोटर एक हैं. सवालों पर भी नजरिये में ज्यादा बड़ा अंतर नहीं है.
बिहार का वामपंथ संसद यह विधानसभा में प्रतिनिधित्व के बगैर भी अपनी बड़ी पहचान रखता है. माले के अनेक युवा इस बार विधानसभा पहुंचे हैं, जिन्होंने अपने संघर्ष और भाषणकला से अपनी पहचान बनायी है. इनमें मनोज मंजिल, संदीप सौरभ अजीत कुशवाहा महत्वपूर्ण हैं.