Shyam Kishore Choubey
जिस आषाढ़ के पहले दिन घने काले बादलों को देखकर कालिदास के यक्ष को यक्षिणी की याद बेतरह सताने लगी थी और जिसके कारण कालजयी कृति ‘मेघदूत’विश्व साहित्य को मिली, वह पूरा का पूरा आषाढ़ सुखाड़ की भेंट चढ़ गया. पुनर्वसु आ गया, लेकिन अधिकतर खेतों में न तो धान के बीज डाले जा सके, न ही मक्का, तिल, अरहर आदि की बुआई हो सकी. यानी सुखाड़ के आसार झलकने लगे हैं. अबतक धान की शुरुआती रोपनी हो जानी चाहिए थी. अलग बात है कि ‘डबल इंजन वाले’बिहार में पुल लगातार जल समाधि लेने लगे हैं और झारखंड में भी एकाध पुल उसी गति को वर चुके हैं. फसलें भले न लहलहायें, राजनीतिक फसलें लहालोट हो रही हैं. झारखंड में विधानसभा चुनाव दस्तक देनेवाला है, जबकि लोकसभा का चुनाव बीते महीना भर से अधिक हो गया है. खाने के दाने किसानों के घरों में भरने के उपाय 24 साल के झारखंड में नहीं हो सके, जबकि राजनीति व्यक्ति-व्यक्ति में भरी जा चुकी है. हर कोई राजनीति ही खा-पी रहा है, ओढ़-बिछा रहा है. चूंकि अजेय समझी जानेवाली भाजपा लोकसभा चुनाव में पिछड़ गई, इसलिए उसने अपनी राजनीति को और सुपाच्य बनाने और विधानसभा चुनाव में अपरिमित जीत (75 सीटें) हासिल करने का लक्ष्य बनाकर राजनीति शुरू कर दी है. राजनीतिक दल खेती करते नहीं, राजनीति ही करते हैं. सो राजनीति की खेती जगजगाने में सभी तन-मन से लग गये हैं, चुनाव आते-आते धन से भी लग जाएंगे. ये राजनीतिक फसल न काटेंगे तो क्या धान काटेंगे?
झारखंड की राजनीति में आदिवासी सीटें बहुत मायने रखती हैं. लोकसभा चुनाव में भाजपा यहां की सभी पांच आदिवासी सीटें हार गई. हारने को तो वह पिछले विधानसभा चुनाव में 28 आदिवासी सीटों में से 26 हार गई थी. इसी कारण उसको रांची की गद्दी से महरूम होना पड़ा था और वह डबल इंजन से सिंगल इंजन पर आ गई थी. अब उसको डबल इंजन वाला रुतबा हासिल करने की बेचैनी है. होनी भी चाहिए, क्योंकि वह भी तो राजनीति की ही खेती करती है. इधर जमीन घोटाला मामले में हाईकोर्ट से फौरी राहत पाकर झामुमो के हेमंत सोरेन पुनः गद्दीनशीं हो गये हैं. वे वजीरे आजम नरेंद्र मोदी से मिल आये हैं. यह सूबे की सियासत में किसी फेरबदल का संकेत है, या रस्मी मुलाकात थी या लो मैं फिर आ गया की तर्ज पर मिलना था, यह कहना मुश्किल है. खैर, अभी जो हाथ में है, उस पर विचार करें तो रांची की गद्दी हासिल करने के लिए भाजपा हाईकमान ने जिन दो दूतों को लगाया है, वे माइग्रेशन, घुसपैठ, धर्मांतरण जैसे मुद्दे उछाल रहे हैं. आये दिन कोई न कोई केंद्रीय मंत्री भी इसी मृत्युंजय महामंत्र का जाप करते-करते रांची धमक पड़ता है.
भाजपा ने मध्यप्रदेश के लगातार चार बार के मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हिमंता विस्वा सरमा को झारखंड फतह के लिए लगाया है, जिनके राज्यों में भी आदिवासी आबादी बड़ी तादाद में है. उनको बताना चाहिए कि उनके करतब-करिश्मे से वहां के आदिवासी किस हाल में हैं. खासकर हिमंता विस्वा सरमा और झारखंड के भाजपा अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी राजनीतिक तौर पर माइग्रेटेड हैं या घुसपैठिए, यह भी विचारणीय है. दोनों की खासियत यह कि भाजपा में प्रवेश/पुनर्प्रवेश के साथ उनको जो तख्त-ताज हासिल हुआ, उससे उन लोगों को जरूर जलन हुई होगी, जिन्होंने पार्टी का झंडा-बैनर ढोने में जीवन खपा दिया. यूं, यह उनका अंदरूनी मामला है, गैरों को क्या लेना-देना? माइग्रेशन हो कि धर्मांतरण या घुसपैठ, किसी की भी हिमायत कतई नहीं की जा सकती. इस पर काबू पाना केंद्र और राज्य दोनों की जवाबदेही है.
तमाम बाड़ेबंदियों के बावजूद विदेशी घुसपैठ हो रही है तो बाड़ेबंदी करनेवाले जवाबदेह क्यों नहीं हैं? पलायन और धर्मांतरण सामाजिक से अधिक बड़ा आर्थिक सवाल है, इसका जवाब दोनों सरकारों को देना चाहिए. यदि हर किसी के शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजी-रोजगार का समुचित प्रबंध कर दिया जाय तो कौन बपुरा अपने समाज से कटना चाहेगा? जवाब सिविल सोसाइटी को भी देना चाहिए कि क्या उसने कभी यह सवाल माननीय-सम्माननीय महापुरुषों और कल्याणकारी सरकारों से पूछा?
सूबे में सियासी दलों द्वारा जिस प्रकार वोट अपने पक्ष में करने, वोट बैंक बढ़ाने और अंततः राजगद्दी प्राप्त करने के चौतरफा प्रयास किये जा रहे हैं, वह गली-नुक्कड़ों पर भी चर्चा का विषय है. खेती-किसानी न हो पाने का दोष इंद्र पर मढ़कर हर कोई आधुनिक इंद्रों के इंद्रजाल में अधिक उलझा दिया गया है. वह मजे लेकर खूब बहस-मुहासिबे करता है कि फलाने ने ढेमाके के लिए क्या कहा. काश! वह यही बहस करता कि उसने बारी-बारी से हर दल को ‘इंद्रासन’दे दिया, लेकिन इन इंद्रों ने उसके जीने-खाने की सामान्य सुविधा तक क्यों मुहैया नहीं करायी तो उसकी किस्मत बदल जाती. वोट वह अपने मन से ही देगा, लेकिन उपेक्षाएं भुलाने को सियासी गप्पों का ख्याल अच्छा है.
राजनेता और राजनीतिक दल बड़ी-बड़ी चुनावी घोषणाओं, क्षेत्रीय विकास और क्षेत्रीय संतुलन कायम करने के वादे कर अपना काम निकालते हैं. विधायक/सांसद बनते ही उनके सारे इरादे काफूर हो जाते हैं. कारण एक ही है कि अवाम उनको राजा-महाराजा मान लेता है. लोकशाही के नाम पर हम दिनोंदिन राजशाही की गर्त में डूबते चले जा रहे हैं तो इसके जवाबदेह हम खुद हैं. जनप्रतिनिधियों को जवाबदेह बनाने का बीड़ा उठाना ही होगा अन्यथा नौकरशाही और भ्रष्टाचार के मकड़जाल से छुटकारा असंभव है. चुनाव के ठीक पहलेवाला यह समय अधिक माकूल है, जब जन अदालत में राजनेताओं की जवाबदेही तय की जाये.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.
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