Pravin Kumar
Ranchi : वर्तमान दौर में आदिवासी समाज हूल के दौर से कहीं अधिक संकट से जूझ रहा है. ऐसे में जल, जंगल, जमीन पर पू़ंजीपतियों के आधिपत्य के विरोध में समाज हित की बात को लेकर सर्वव्यापी संघर्ष के तेवर नहीं दिख रहे हैं. धीरे-धीरे नेतृत्व राजसत्ता के अधीन होता जा रहा है और जनमानस की जल, जंगल, जमीन पर अधिकार की बात पीछे छूटती जा रही है. अपने सम्मान की रक्षा और पूर्वजों की विरासत की रक्षा करने में कमजोर साबित हो रहे हैं.
लेकिन संताल हूल की चिंगारी आदिवासी समाज में आज भी मौजूद है. शोषण के विरुद्ध हंसते-हंसते शहीद हो जाने वाले वीर सपूत अपना बलिदान दे रहे हैं. लेकिन सूरत कैसे बदलेगी. शहीद सिद्धो, कान्हू, चांद, भैरव और बाजला के सपनों के देश की रक्षा के लिए कौन आगे आयेगा- यह राज्य में बड़ा सवाल है.
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आदिवासी अपनी अस्मिता और जनसंप्रभुता के लिए समझौता विहीन संघर्ष कर रहे
एक हो गीत में कुहासे से घिरे आदिवासी समुदाय को बाहर निकालने के लिए जनसंघर्ष की अपील की गयी है और मरांग बुरु और जाहेर आयु से यह प्रार्थना की गई कि नैतिकता, ईमानदारी के साथ अनीति के खिलाफ लड़ने की वह ताकत दें. दरअसल सदियों से आदिवासी अपनी अस्मिता और जनसंप्रभुता के लिए समझौताविहीन संघर्ष कर रहे हैं. फिर भी वे पुआसी यानी उन कोहरों से घिरते रहे हैं, जिनके कारण चारों ओर अंधेरा छा जाता है और उनके संशाधन धूल की तरह उड़ जाते हैं. आजादी के बाद तो आदिवासी समाज का संकट और गहरा गया है. झारखंड के निर्माण से उम्मीद बंधी थी कि आदिवासियों का स्वशासन बहाल होगा तथा उनकी प्राकृतिक सहचर्यमूलक जीवनशैली विकासमान होगी. लेकिन झारखंड में मची लूट और संसाधनों को छीन लेनेवाली नीतियों ने उन्हें यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया है कि बार-बार ऐसा क्यों होता है कि मंजिल सामने दिखती है और जब वे वहां पहुंचने की कामना करते हैं, तो एक ऐसे चौराहे पर नजर आते हैं, जहां से उन्हें अपनी ही जिंदगी बंधनों से भरी नजर आती है.
हूल दिवस के अवसर पर इतिहास की विवेचन करते हुए हम उन वर्तमान चुनौतियों से रू-ब-रू हो सकते हैं, जिसका सामना झारखंड और आदिवासी समाज कर रहा है. आदिवासी अस्मिता के संदर्भ में हूल की स्मृति उन संदेशों को बार-बार ध्वनित करती है, जिसे राज्य व सत्ता अक्सर अनसुना करते रहे हैं. इसके बाद भी आदिवासी समाज की यात्रा लगातार जारी है. आज भी आदिवासी समाज में हूल के शहीदों के सपनों के अनुकूल समाज की प्रगति को तेवर देने की बेचैनी दिखायी दे जाती है. लेकिन इसे एकसूत्र में बांधना हाल के वर्षों में संभव नहीं हो पा रहा है.
संताल हूल को प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के रूप में मिलने लगी है मान्यता
संताल हूल को भारत के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के रूप में मान्यता मिलने लगी है. कई शोध के बाद यह प्रमाणित हुआ है कि 1855 में ही झारखंड के आदिवासियों ने 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष की नींव रखी. आदिवासी इतिहास ज्यादातर मौखिक रहा है. मौखिक इतिहासों के साथ खिलवाड़ करने की प्रवृति नयी नहीं है. लेकिन हूल के दर्शन में इतना सामर्थ्य है कि उसे किसी भी राजनीतिक धारा के द्वारा विकृत करना आसान नहीं रहा. हूल के राजनीतिक दर्शन में आदिवासी समाजों की चुनौतियों से निपटने का सूत्र मौजूद है.
आज भी शोषण और दमन के खिलाफ प्रतिरोध की चिंगारी मौजूद है
जब कभी आदिवासी समाज की संस्कृति और जमीन को विघटित करने का प्रयास किया गया है, प्रतिरोध की चिंगारी भड़क उठी. 30 जून 1855 को संताल आदिवासियों ने महाजनों, जमींदारों और अंग्रेजी शासन के द्वारा जमीन कब्जा करने के खिलाफ हूल किया. इस हूल के अनेक संस्कृति और राजनीतिक संदेश है.
संताल हूल की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है, क्योंकि आदिवासी समाज आज भी भूमि बेदखली और शासकीय जुल्म का शिकार है. और आदिवासी समाज में आज भी स्वशासन की आकांक्षा मौजूद है. आदिवासी स्वशासन का अर्थ उनकी सांस्कृतिक चेतना के साथ शासन करने और जल, जगंल, जमीन पर सामुदायिक हक को कायम रखने का है.
संताल हूल इस वर्ष 30 जून को अपना 166वां सालगिरह पूरा कर रहा है. भारतीय इतिहास के साथ-साथ विश्व इतिहास में संताल हूल का जन आंदोलन के रूप में खासा स्थान है. इसकी गाथा संताल समाज के लोक गीतों में भी मौजूद है. एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है…
तोकोय हुकूमते बाजाल तोकोय बोलेते
रूपु सिंह ताम्बोली दोम माक् केदेया
सिदो हुकूमते नायगो कान्हू बोलेते
रूपु सिंह ताम्बोली दोञ माक्
केदेया/तीरेताम हातकड़ी
जांगारेताम बेड़ी
आमदोन चालाककान बजाल सिउड़ी
थानाते/तिरोतिञ तिरियो नायगो
जांगारे तिञ लीपुर
इञ दोञ चालाक्कान नायगो सिउड़ी मेला ञेल
गीत का अर्थ और मर्म
इस गीत का भावार्थ यह है कि 1855 के विद्रोह के कुछ दिन बाद गोड्डा सब डिवीजन के सुंदरपहाड़ी प्रखंड की बारीखटंगा गांव के एक युवक बजाल को विद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है.
पुलिस उसे ले जाती है, तो रास्ते में महिलाएं उनसे पूछती है कि बताओ बजाल, रूप सिंह तांबोली की हत्या तुमने किसके कहने पर की. सिद्धो या कान्हू के कहने पर. तुम्हारे हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ियां लगी है और तुम्हें शिउड़ी थाना कैद कर ले जाया जा रहा है?
इस पर बजाल यह जवाब देता है, देखो मेरे हाथ में हथकड़ी नहीं बांसुरी है और मेरे पैरों में बेड़ियां नहीं, बल्कि घुंघरू बंधे हैं. मैं तो शिउड़ी के मेला का आनंद लेने जा रहा हूं.
सिदो ने कहा था, फिरंगियों को खदेड़ने का समय आ गया है
देश के इतिहासकारों के लेख के अनुसार, देश की आजादी की पहली लड़ाई की शुरुआत भले ही 1857 में मानी जाती है. लेकिन झारखंड अंग्रेजों की कार्यशैली और खुद को आजाद रखने की मानोवृति में पहले से उबल रहा था. झारखंडी जनमानस में ब्रिटिश के खिलाफ हूल दो वर्ष पूर्व ही शुरू हो गया था. अब इतिहासकारों के मतों में भी बदलाव दिखने लगा है.
30 जून 1855 को साहेबगंज जिले के भोगनाडीह में 400 गांव के 40,000 आदिवासियों ने चार भाईयों सिदो कान्हू, चांद और भैरव के नेतृत्व में अंग्रेजों को मालगुजारी देने से इंकार करने की घोषणा की. इस दौरान सिदो ने कहा था, अब समय आ गया है कि फिरंगियों को खदेड़ दिया जाये. इसके लिए संतालों से कहा था- करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो.
अंग्रेजों ने तुरंत इन चार भाईयों को गिरफ्तार करने का आदेश जारी किया. गिरफ्तार करने आये दारोगा की संताल आंदोलनकारियों ने गर्दन काटकर हत्या कर दी. इसके बाद संताल परगना के सरकारी अधिकारियों में आतंक छा गया.
20 हजार संतालों ने जल, जंगल, जमीन की हिफाजत के लिए अपनी कुर्बानी दे दी
अंग्रेजों ने प्रशासन की पकड़ कमजोर होते देख आंदोलन को कुचलने के लिए सेना को मैदान में उतारा. मार्शल लॉ लगाया गया. हजारों संताल आदिवासियों की गिरफ्तारी की गई. लाठियां चलीं, गोलियां चलायी गयी. इस लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गये. संताल हूल के दौरान जबतक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा, वो लड़ता रहा.
अंग्रेज इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी किताब The Annals Of Rural Bengal में लिखा है कि अंग्रेज का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो आदिवासियों के बलिदान को लेकर शर्मिंदा न हो. अपने कुछ विश्वस्त साथियों के विश्वासघात के कारण सिदो और कान्हू को पकड़ लिया गया. और भोगनाडीह गांव में सबके सामने एक पेड़ पर टांगकर फांसी दी गयी. इस लड़ाई में लगभग 20 हजार संतालों ने जल, जंगल जमीन की हिफाजत के लिए अपनी कुर्बानी दे दी.
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