New Delhi : भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने कहा है कि वर्ष 2018 में सरकार में बैठे कुछ लोगों ने चुनाव से पहले लोकलुभावन खर्चों के लिए केंद्रीय बैंक पर दबाव डाला था. उन लोगों ने दो-तीन लाख करोड़ रुपये हासिल करने के लिए आरबीआई पर धावा बोलने की कोशिश की थी जिसका पुरजोर विरोध किया गया था. नेशनल खबरों के लिए यहां क्लिक करें
आरबीआई मोदी सरकार को राशि देने के पक्ष में नहीं था
आचार्य ने अपनी किताब(क्वेस्ट फॉर रिस्टोरिंग फाइनेंशियल स्टेबिलिटी इन इंडिया) के नये संस्करण की प्रस्तावना में यह बात लिखी है. उन्होंने लिखा है कि 2019 के आम चुनाव से पहले सरकार (मोदी) अपने लोकलुभावन खर्चों की भरपाई के लिए आरबीआई से बड़ी राशि निकालने की कोशिश में थी. लेकिन आरबीआई इसके पक्ष में नहीं था जिस वजह से सरकार के साथ उसके मतभेद बढ़ गये थे. उस समय सरकार ने आरबीआई को निर्देश देने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) अधिनियम की धारा सात का इस्तेमाल करने की भी चेतावनी दी थी.
आचार्य ने 26 अक्टूबर, 2018 को एक व्याख्यान में मामला उठाया था
आरबीआई के तत्कालीन डिप्टी गवर्नर आचार्य ने यह मामला सबसे पहले 26 अक्टूबर, 2018 को एक व्याख्यान में उठाया था. अब यह प्रकरण उनकी किताब क्वेस्ट फॉर रिस्टोरिंग फाइनेंशियल स्टेबिलिटी इन इंडिया की नयी प्रस्तावना में भी प्रमुखता से उजागर हुआ है. इसमें सरकार की कोशिश को केंद्र द्वारा राजकोषीय घाटे का पिछले दरवाजे से मौद्रीकरण बताया गया है. आचार्य ने वर्ष 2020 में पहली बार प्रकाशित अपनी किताब के नये संस्करण की प्रस्तावना में कहा, नौकरशाही और सरकार में बैठे रचनात्मक मस्तिष्क वाले कुछ लोगों ने पिछली सरकारों के कार्यकाल में आरबीआई के पास जमा हुई बड़ी राशि को वर्तमान सरकार के खाते में स्थानांतरित करने की एक योजना तैयार की थी.
नोटों की छपाई पर खर्च बढ़ने से केंद्र को अधिशेष हस्तांतरण कम हो गया
दरअसल, आरबीआई हर साल अपना लाभ सरकार को पूरी तरह देने के बजाय उसका एक हिस्सा अलग रख देता है. यही हिस्सा कई वर्षों में एक बड़ी राशि में तब्दील हो चुका था. आचार्य ने कहा कि 2016 की नोटबंदी से पहले के तीन वर्षों में केंद्रीय बैंक ने सरकार को रिकॉर्ड लाभ अंतरण किया था. लेकिन नोटबंदी के साल में नोटों की छपाई पर खर्च बढ़ने से केंद्र को अधिशेष हस्तांतरण कम हो गया था. ऐसी स्थिति में सरकार ने 2019 के चुनावों से पहले अपनी मांगों को बढ़ा दिया था. आचार्य ने कहा कि आरबीआई से अधिक लाभांश निकालने की कोशिश एक तरह से राजकोषीय घाटे का पिछले दरवाजे से मौद्रीकरण था.
विनिवेश लक्ष्य से चूकने के बाद सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ गया था
असल में अपने विनिवेश लक्ष्य से चूकने के बाद सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ गया था. उन्होंने सरकार की मंशा पर तंज कसते हुए कहा, ‘जब केंद्रीय बैंक के बही-खाते पर धावा बोला जा सकता है और बढ़ते राजकोषीय घाटे को मौद्रीकृत किया जा सकता है तो फिर चुनावी वर्ष में लोकलुभावन खर्चों में कटौती क्यों की जाये?’ आचार्य ने मौद्रिक नीति, वित्तीय बाजार, वित्तीय स्थिरता और अनुसंधान के प्रभारी डिप्टी गवर्नर के रूप में तीन साल का कार्यकाल पूरा होने से छह महीने पहले ही जून, 2019 में पद छोड़ दिया था.
उन्होंने आरबीआई को सरकार की तरफ से निर्देश देने के लिए पहले कभी भी उपयोग में नहीं लायी गयी आरबीआई अधिनियम की धारा सात को उल्लिखित किये जाने के विवाद का भी जिक्र किया है. उन्होंने कहा कि पूर्व गवर्नर बिमल जालान के मातहत बनी समिति की अनुशंसा के बाद सरकार ने इस विचार के अधिकांश असली योजनाकारों को दरकिनार कर दिया.