Faisal Anurag
क्या किसानों और सरकार के बीच सार्थक संवाद संभव है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि सरकार जहां अपने तीनों कानूनों को लेकर कोई लचीला रूख नहीं दिखा रही है वहीं किसान भी आसरपार के मूड में हैं. अखिल भारतीय किसान कॉडिनेसन कमिटी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर रामलीला मैदान में सभा करने की मांग की है. दो दिनों तक किसानों को दिल्ली पहुंचने से रोकने वाली सरकार ने दिल्ली के ही बंराडी में सभा करने की अनुमति दिया है. लेकिन किसानों ने साफ कहा है कि वे आरपास के मूड में हैं. केंद्र को तीनों कानूनों को वापस लेना होगा. केंद्रीय कृषि मंत्री ने 3 दिसंबर को किसानों को बातचीत के लिए आमंत्रित किया है. लेकिन सरकार का नजरिया यह है कि वह किसानों के भ्रम को दूर करेगी. सरकार मानती है कि किसान गुमराह किए गए हैं. किसानों के 500 का दावा है कि इन कानूनों से खेती कारपारेट के कब्जे में चली जाएगी और किसानों को आने वाले सालों में मुसीबत का समाना करना पडेगा. किसान प्रतिनिधि मानते हैं कि कॉरपरेट घराने शुरू में हो सकता है कि फसलों के दाम ज्यादा दें लेकिन जैसे ही सरकारी मंडियां खत्म होंगी वे मनमाना करने लगेंगे. किसान जिओ का उदाहरण देतें हैं जो आजीवन फ्री कॉल के दावे के साथ आया था और आज वह बाजार को प्रभावित कर कॉल को मंहगा बना चुका है.
किसान संगठनों के अनुसार अन्नदाताओं के दिल्ली प्रवेश को रोकने के लिए जिस तरह के तेवर सरकार ने दिखाये हैं उससे यह तो नहीं ही लगता है कि किसान अब भी भारत की आत्मा है. माहात्मा गांधी किसानों को भारत की आत्मा कहा करते थे. आजादी की लडाई को भी परवान चढाने में चंपारण के किसानों ने नींव के पत्थर का काम किया था. किसानों के वोट से ही दिल्ली और राज्यों में शासन कर रही सरकारों के लिए वे ही खतरनाक हो गये है. जिस तरह का व्यवहार किसानों के साथ पिछले दो दिनों से किया जा रहा है उससे न केवल भारत के संविधानप्रदत्त अधिकारों की अवज्ञा हो रही है बल्कि लोकतंत्र की दीवार भी दरक रही है. लोकतंत्र में सरकार के कानून का विरोध करने का हक है. भारत का संविधान इसकी गारंटी भी करता है. लेकिन संविधान दिवस के ही दिन किसानों के दमन का जो तरीका अपनाया गया वह जारी ही है. अब किसानों को दिल्ली आने की छूट तो दी गयी है कि लेकिन उन पर मुकदमें किए जा रहे हैं हरियाणा में कई किसान नेताओं पर पिछले 24 घंटे में मामले दर्ज किये गये है.
पंजाब के लोकगीतों में भी पुर्जा पुर्जा कट मरने की बात की जाती है लेकिन खेत छोडने की नहीं. किसानों के आंदोलन में जिस तरह पंजाब के लोकप्रिय गायक भी उतर आए हैं उससे जाहिर होता है कि आंदोलन की जडें बेहद मजबूत हैं. भारत का इतिहास इस बात का गवाह है कि किसान जब कभी प्रतिरोध के लिए उठ खडे हुए हैं अंजाम तक पहुंच कर ही मानते हैं. राजनैतिक गतिरोध से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता है. कृषि कानूनों के बाद तो किसानों में मन में न केवल अंदेशा है बल्कि कृषि के कारपारेटीकरण के खतरे को लेकर दुनिया के जो अनुभव हैं उससे दहशत भी है. भारत के किसान पहले से ही तबाह हैं. न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किये जाने के बावजूद किसानों को यह मूल्य कम ही अवसरों पर मिल पाता है. न्यूनतम समर्थन मूल्य को ले कर केंद्र ने कहा है यह जारी रहेगा लेकिन किसान उसके लिए कानूनी प्रावधान की मांग कर रहे हैं.
बिहार जैसे राज्य में तो 2006 में ही मंडी प्रणाली को खत्म किया गया लेकिन इसका लाभ किसानों को मिलने के बजाय उनका नुकसान ही बढा है. किसानों की आय भी बिहार में कम हुई है. कॉरपरेट कंपनियों की अपनी नीति होती है उनका मूल सूत्र मुनाफा होता है जब कि किसान अपने हितों की गारंटी चाहते हैं. जिन राज्यों में मंडी प्रणाली मजबूत रही है और उन्होने हरित क्रांति की अगुवाई की है उनमें गुस्सा ज्यादा है. हरित क्रांति के बाद न केवल भारत ने अपने खाद्यान संकट को दूर किया बल्कि किसानों की आर्थिक दशा भी बदली है.
विकास अध्ययन संस्थान के निर्देशक डी एम दिवकर के अनुसार उदारीकरण के दौर में सरकारों ने खेती में पूंजी निवेश के लिये निजी क्षेत्र के लिये अवसर बनाया है लेकिन यह बचत आधारित उत्पादक पूंजी के बजाय व्यावसायिक पूंजी है जो सामंती महाजनी के स्थान पर आयी है. जिसे हम करारी खेती या कॉरपोरेट खेती के नाम से भी जानते है. इसमें कम्पनियां करारी निवेश करती है और मुनाफा कमाती है. चूंकि किसानों की खेती अलाभकर हो चुकी है, पूंजी के अभाव में आसानी से किसान कर्ज आधारित खेती को स्वीकार कर लिया है. खेती में बचत का कंपनियों द्वारा लूट का नतीजा सामने है. आर्थिक सुधार का दूसरा चरण और भी घातक साबित हो रहा है. कम्पनी खेती को बढ़ावा देने के लिये कॉरपोरेट जगत ने इस अवसर का उपयोग किया है। वर्तमान सरकार ने किसानों के हित की चिंता किये बगैर खेती को कम्पनी के हवाले करने के लिये ये कानून बनाया है- यद्यपि यह कानून सार्वजनिक कृषि निवेश एवं कृषि साख का विकल्प नहीं हो सकता है, सरकार ने कम्पनी खेती को निजी निवेश का विकल्प चुना है. ऐसे हालात में किसानों के आंदोलन का हल आसान नहीं है. केंद्र सरकार को न केवल लचीलापन दिखाना होगा बल्कि उसे कृषि कानूनो पर पुनर्विचार के लिए खुला मन भी रखना होगा.