Faisal Anurag
आजादी के बाद से भारत ने दुनिया के स्तर पर कई क्षेत्रों में अहम मुकाम हासिल किए हैं. लेकिन खेलों की दुनिया की ताकत बनने से वह बहुत दूरी पर खड़ा है. इसका एक बड़ा कारण तो यह है जीत का जश्न मनाते हुए अक्सर उन हालतों को बदलने की दिशा में कदम उठाने का संकल्प मजबूत नहीं होता, जिससे जूझते हुए खिलाड़ी ओलंपिक तक कामयाबी का परचम लहराने में सफल होते हैं. लंदन ओलंपिक में जब भारत ने पहली बार छह मेडल जीते थे, उम्मीद की गयी थी भारत अपने खेल ढांचे में क्रांतिकारी बदलाव करेगा. लेकिन अगले ही रियो ओलंपिक में भारत को निराशा हाथ लगी. उसे केवल दो ही मेडल हाथ लगे. इसके बाद दावा किया गया कि भारत 2020 और 2024 के ओलंपिक तक एक क्षेत्रीय ताकत बन कर उभरने के लिए सांसधन झोंक देगा. टोक्यो में भारत के खिलाड़ियों ने भारत के खाते में 6 मेडल डाले हैं. पुरूष हॉकी में तो भारत को 41 साल के बाद कांस्य पदक हासिल हुआ है. लेकिन किसी रानी रामपाल और लवलीना बोरगोहेन और रवि दहिया के सफर की कहानी को याद किए बगैर खेलो की तस्वीर बदलना बेहद मुश्किल है.
चीन ने अपने ही देश बीजिंग में 2008 में ओलंपिक का आयोजन ही नहीं किया, बल्कि पदक तालिका में पहले स्थान पर रहा. भारत 1947 में आजाद हुआ और चीन ने इसके दो साल बाद 49 में लाल पताका फहराया. लेकिन वह आज एशिया की सबसे बड़ी खेल महाशक्ति बन चुका है और ओलंपिक के तीन शीर्ष देशों में जगह बना चुका है. एशिया में उसके मुकाबले खड़े जापान और दक्षिण कोरिया भी उससे पिछड़ चुके हैं. ऐसा कैसे हुआ, इसे लेकर दुनियाभर के खेल के विशेषज्ञों ने कई अध्ययन किए हैं. पश्चिमी मीडिया चीन की कामयाबी को वहां की कम्युनिस्ट तानाशाही की आक्रमकता से देख कर विश्लेषित करता है और बच्चों पर जुल्म करने के आरोप भी लगता है.
लेकिन तटस्थ विशेषज्ञ चीन में पैदा किए गए, उन सपनों के लिए समर्पण से जोड़ कर देखते हैं, जिसने हर क्षेत्र में प्रथम होने से प्ररित है. जापान और दक्षिण कोरिया तो भारत की तरह ही लोकतंत्र भी हैं और पूंजीवादी हैं. खेलों में कामयाब होने के लिए उन देशों में ननिजी प्रायोजक बल्कि सरकार भी भारी निवेश करती है. दोनों ही देश ने न केवल ओलंपिक बल्कि फुटबॉल और टेनिस में भी स्टार पैदा कर रहे हैं. टोक्यों में ही जापान पदक तालिका में तीसरे और दक्षिण कोरिया बारहवें स्थान पर है. चीन की खेल नीति पर रूटलेज से प्रकाशित पुस्तक स्पोर्टस पॉलिसी ऑफ चाइना को पढ़कर कामयाबी की तैयारियों और प्रयासों को समझा जा सकता है.
भारत के शहरों में रहने वाले खेल विशेषज्ञ और मीडिया गांवों के उन सामाजिक हालातों के बारे में ज्यादा बात नहीं करते. जब कभी ओलंपिक होता है उनका होता है उन्हें लगता है, इस बार भारत भी चीन के बरक्श खड़ा होगा. अमेरिका की कामयाबी को ही देख लें तो उसके सामाजिक मिजाज और बनावट का बयान कर देगा. रंगभेद के खिलाफ लड़े बगैर वह खेल महाशक्ति नहीं बन सकता था. जेसी ओवेंस या केसियस क्ले जो बाद में मोहम्म्द अली के नाम से मशहूर हुए को याद किया जा सकता है. 1960 के रोम ओलंपिक में उन्होंने स्वर्ण पदक जीता था. तब उन्हें लगा था कि उनकी दुनिया बदल जाएगी और केवल उनके रंग के कारण होने वाले भेदभाव का सामना अब अमेरिका में नहीं होगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. केवल अश्वेत होने के कारण उन्हें रेस्तरां से निकाल दिया गया.
बल्कि रंग के कारण होने वाले उत्पीड़नों से तंग आ कर एक दिन उन्होंने अपना सोने का पदक नदी में फेंक दिया. 1936 में ओवंस ने बर्लिन में चार गोल्ड जीते थे. कई जानकार उनकी और उसेन बोल्ट की तुलना करते हुए तकनीकी तौर पर उन्हें श्रेष्ठ बताते हैं. लेकिन ये चार सोने के पदकों के बावजूद भी उन्हें सिर्फ रंग के कारण उपेक्षा,गरीबी और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा. आज इसी अमेरिका में एक जार्ज फलायड की हत्या के बाद वहां के राष्ट्रपति बाइडन तक घुटनों पर झुककर माफी मांगते हैं. पूरा दृश्य बदल चुका है. अब किसी क्ले या ओवंस को अपना पदक फेंकना नहीं पड़ता बल्कि उन्हें नायक के बतौर देखा जाने लगा है, जबकि अमेरिका अब भी रंगभेद के खिलाफ जागरूक है और संघर्ष जारी है. ब्लैक लाइव मैटर्स उसकी अभिव्यक्ति है.
भारत की हॉकी स्टार जिसने एक हैट्रिक के साथ चार गोल किए उस वंदना कटारिया के परिवार के सदस्यों जातिभेद का शिकार होना पड़ा. घर के सामने उनकी दलति हचान को हार के लिए जिम्मेदार बताने वाले समाज में अपवाद नहीं हैं. इस मानसिकता को बदलना ही होगा. यदि कामयाबी के सफर को आगे ले जाना है. ऐसी लड़कियां और भी हैं जिन्हें रानी रामपाल की तरह स्कर्ट पहनने के लिए जंग करना पड़ रहा है. इन हालातों पर चर्चा करने और इन्हें बदलने के संकल्प के बजाय नजरअंदाज करने की घातक प्रवृति को साफ देखा जा सकता है.
ये अहम सवाल है और इनका हल निकालना ही होगा. इसके साथ ही खेलों के प्रति सरकारी निवेश के हालात भी बदलने होंगे. केवल वर्तमान वित्त वर्ष में ही खेल बजट की राशि में छत्तीस प्रतिशत की कटौती भी बहुत कुछ कहती है. कामयाबी को राजनैतिक गुणाभाग से जब तक देखा जाएगा भारत के खेल महाशक्ति की राह प्रशस्त नहीं हो सकेगी. हॉकी के कांस्य पदक की कामयाबी की होड़ की राजनीति को समझा ही जा सकता है. सोशल मीडिया इस चर्चा से भरा पड़ा है, जिसमें कामयाबी लूटने की प्रतिस्पर्धा पर तल्ख टिप्पणयां की गयी है. इसलिए जरूरी है किसी पड़ोसी देश की कामयाबी पर ईर्ष्या करने के बजाय अपनी कमियों की पहचान कर प्रतिभाओं को उभारने के लिए तकनीक और निवेश मुहैया कराया जाए. जरूरी है कि खेल बजट का आकार बढ़े और खेल संगठनों का ढांचा भी बदले.