Kiriburu (Shailesh Singh) : सारंडा स्थित किरीबुरू, गुवा जैसे शहरों के अलावा विभिन्न गांवों में हाथियों के आने की निरंतर घटना ने ग्रामीणों के अलावा वन विभाग व पुलिस-प्रशासन की भी परेशानी बढ़ा दी है. शहरी व ग्रामीण क्षेत्र के लोग इसलिए परेशान हैं, क्योंकि यह हाथी कहीं उनके घरों व जान-माल काे नुकसान न पहुंचा दें. वहीं वन विभाग व पुलिस-प्रशासन इसलिए परेशान है, कि कहीं शहरी व ग्रामीण क्षेत्र में निरंतर विचरण कर रहे हाथियों पर जंगल में घात लगाकर बैठे हाथी दांत तस्कर हथियार से हाथियों की हत्या कर उनकी दांत निकाल उसकी तस्करी न करने लग जाये. विदित हो कि हाथी दांत तस्कर सबसे ज्यादा ओडिशा में सक्रिय हैं और कई हाथी को मार उसके दांत की तस्करी कर चुके हैं. ओडिशा के अलावा सारंडा जंगल स्थित अंकुआ, भनगांव क्षेत्र में भी हाथियों की हत्या कर उनकी दांत की तस्करी कर चुके हैं. इन्हीं घटनाओं से वन विभाग के साथ-साथ पुलिस-प्रशासन भी अलर्ट है. उन्होंने सारंडा में हाथियों के साथ-साथ बाहरी लोगों की हर गतिविधियों पर भी विशेष नजर रखना प्रारंभ कर दिया है.
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पहले हाथी नहीं पहुंचाते थे नुकसान
सारंडा भारत का पहला नोटिफाईड एलिफैंट (हाथी) रिजर्व-ए क्षेत्र है. इसे हाथियों का वास स्थल कहा जाता है. हाथी अपने वास स्थल सारंडा से विचरण करने कोल्हान, पोड़ाहाट, दलमा आदि जंगल होते धालभूमगढ़ के जंगल तक जाते थे व पुनः वहां से अपने कॉरिडोर से सारंडा वापस आते थे. तब हाथी विभिन्न जंगलों के गांवों में उत्पात व जान-माल का नुकसान नहीं पहुंचाते थे. लेकिन अब ऐसा क्या बदलाव हुआ जो हाथी हिंसा का रूप धारण कर जान-माल का भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं! यह सवाल आज सभी के लिये चुनौती बना हुआ है.
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अनियंत्रित माइनिंग व भारी पैमाने पर इन्क्रोचमेंट के कारण हाथियों के स्वभाव में हुआ भारी बदलाव : डॉ. राकेश कुमार
वहीं, वर्ष-1990 के दशक में सारंडा में हाथियों पर रिसर्च करने वाले डब्ल्यू डब्ल्यू एफ, न्यू दिल्ली के पूर्व वरिष्ठ समन्वयक डॉ. राकेश कुमार सिंह के अनुसार सारंडा में अनियंत्रित माइनिंग व भारी पैमाने पर इन्क्रोचमेंट की वजह से हाथियों के स्वभाव में भारी बदलाव हुआ है. उन्होंने कहा कि लगभग 857 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले सारंडा में लगभग 200 वर्ग किमी क्षेत्र में खनन कार्य चल रहा है, जिसमें सेल और प्राईवेट कम्पनियां शामिल है. सैकड़ों एकड़ जमीन पर अवैध इन्क्रोचमेंट है. इसके अलावा सारंडा के लगभग 443 वर्ग किमी क्षेत्र में खनन कार्य हेतु 19-20 प्राईवेट कंपनियों के साथ पूर्व की सरकार एमओयू की थी. अगर इन कंपनियों को खनन हेतु लिज दे दिया गया तो लगभग 643 वर्ग किमी में खनन होने लगेगा. ऐसी स्थिति में कल्पना कीजिए की सारंडा का नजारा कैसा होगा, कहां आदमी रहेंगे व कहां वन्यप्राणी!
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खनन कंपनियों को खनन हेतु लिज देने व अवैध इन्क्रोचमेंट के कारण रूक गया हाथियों का मूवमेंट
उन्होंने कहा कि आजादी पूर्व ब्रिटिश सरकार ने सारंडा के विभिन्न क्षेत्रों में अपने उद्देश्य के लिए 10 जंगल गांव थलकोबाद, तिरिलपोसी, नवागांव (एक और दो), करमपदा, भनगांव, दिघा, बिटकिलसोय, बालीबा व कुमडीह को बसाया था. इसके अलावा दर्जनों राजस्व गांव थे, जिनकी आबादी मुश्किल से 10-15 हजार के करीब होगी. आज सारंडा में झारखंड आंदोलन व वनाधिकार पट्टा के नाम पर भारी पैमाने पर जंगलों को काट जमीन पर कब्जा कर दर्जनों अवैध गांव बसाया गया है. इससे सारंडा पर जनसंख्या का भारी बोझ बढ़कर आबादी लगभग 70-75 हजार के करीब पहुंच गया है. सारंडा पर बढ़े जनसंख्या के बोझ का लाभ लकड़ी माफिया लकड़ी तस्करी के रूप में भी भारी पैमाने पर उठाने लगे. इससे लगभग 25-30 फीसदी सारंडा का सघन वन क्षेत्र खत्म हो गया, अर्थात खनन कंपनियों को खनन हेतु लिज देने व अवैध इन्क्रोचमेंट ने सारंडा में हाथियों के घर और कॉरिडोर को अलग-अलग क्षेत्रों में खंडित कर दिया, जिससे हाथियों का मूवमेंट रूक गया. इसी वजह से हाथियों व आदमी में टकराव बढ़ गया.
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प्राकृतिक जलस्रोतों का अस्तित्व खत्म होने से हाथियों के सामने पानी की समस्या उत्पन्न
उन्होंने कहा कि विकास और रोजगार के नाम पर सारंडा में औद्योगीकरण, खनन, सड़कों का जाल आदि बढ़ाने की वजह से रात में भी भारी मशीनों व वाहनों के चलने से होने वाले कंपन दूर बैठे हाथियों केबायोलॉजिकल क्लॉक को प्रभावित कर रहा है. जबकि सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद रिजर्व वन क्षेत्र में भारी मशीनों व वाहनों के परिचालन पर प्रतिबंध है. अनियंत्रित खनन औरअवैध इन्क्रोचमेंट की वजह से सारंडा की तमाम प्राकृतिक जलश्रोत व कारो-कोयना जैसी बड़ी नदियों का अस्तित्व खत्म होते जा रहा है, जिससे हाथियों के सामने पानी की समस्या उत्पन्न हो रही है.
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