Navin Jain
पिछले 33 दिनों से चल रहा किसान आंदोलन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने उपस्थित सबसे बड़ी चुनौती है. क्यों ? क्योंकि इसकी दो दर्जन से अधिक वजहें हैं. जिन्हें जानना जरुरी है. साथ ही यह जानना भी बेहद जरुरी है कि आखिर ऐसा क्या है, जिसकी वजह से मोदी सरकार इस कानून को वापस लेने को तैयार नहीं है.
– पूरे पंजाब में यह एक जनांदोलन है. जिसे पंजाब के बहुलांश जनता का समर्थन प्राप्त है और यह समर्थन बढ़ता ही जा रहा है.
– हरियाणा में भी यह तेजी से जनांदोलन की शक्ल ले रहा है.
– धीरे-धीरे ही सही देश के कोने-कोने से इस आंदोलन को बड़े पैमाने पर समर्थन प्राप्त हो रहा है और यह एक देशव्यापी जन आंदोलन बनने की ओर बढ़ रहा है.
– अभी तक इस जन आंदोलन की बागडोर उन किसानों और किसान नेताओं के हाथ में है, जो झुकने को तैयार नहीं हैं.
– इस आंदोलन को खालिस्तानी और नक्सली-माओवादी कहकर बदनाम करने की कोशिश ना सिर्फ नाकाम साबित हुई है, बल्कि इसका उलटा असर पड़ा है.
– इस आंदोलन की रीढ़ पंजाबी सिख हैं, जो गहरे स्तर पर मानवतावादी होने के साथ ही अपने मान-सम्मान के लिए लड़ाकू कौम रही है. अत्याचारी शासकों के खिलाफ संघर्ष और कुर्बानी की इनकी करीब 500 वर्षों की परंपरा है.
– यह मेहनतकश किसानों का जन आंदोलन है, जो खुद अपने खेतों में अपने परिवार सहित कठिन श्रम करते हैं, भले ही इसके साथ वे मजदूरों का उपयोग करते हों. वे अपने खेतों में अपने पूरे परिवार सहित काम करते हैं, जिसमें महिला-पुरूष दोनों शामिल हैं.
– इस आंदोलन की रीढ़ मूलत: पंजाब-हरियाणा के वे किसान हैं, जिनकी समृद्धि एवं संपन्नता का मूल आधार उनकी खेती है.
– यह आंदोलन उन किसानों का आंदोलन है, जो अपने आर्थिक संसाधनों के बलबूते इस आंदोलन को महीनों-वर्षों टिकाये रख सकते हैं.
– प्राकृतिक आपदा, युद्ध, जन संघर्षों-जन आंदोलनों आदि में देश-दुनिया के हर क्षेत्र में हर समुदाय के लिए सहायता पहुंचाने वाले सिखों के देशव्यापी एवं विश्वव्यापी समूह इस आंदोलन की हर तरह से मानवीय सहायता कर रहे हैं.
– कुछ जड़ सूत्रवादी वामपंथियों को छोड़कर हर तरह के जनवादी-प्रगतिशील समूह इस आंदोलन के साथ हैं, वे अपने तरीके से हर संभव मदद इस आंदोलन को पहुंचा रहे हैं.
– देश के किसानों, विशेषकर पंजाब-हरियाणा के किसानों को इस बिल से यह संदेश गया है कि मोदी सरकार किसानों की फसल और जमीन अपने कारपोरेट मित्रों ( अंबानी-अडानी) को सौंपना चाहती है और उन्हें इन कारपोरेट घरानों का गुलाम किसान या मजदूर बना देना चाहती है. उनकी सोच का आधार है, क्योंकि दुनिया के कई सारे देशों में ऐसा हुआ और इसकी तरीके से कार्पोरेटे को खेती की जमीन सौंपी गई.
– सिंघू बोर्डर और टिकरी बार्डर पर मौजूद किसान इस आंदोलन को अपने जीवन-मरण के प्रश्न के रूप में देखने लगे हैं. उन्हें यह विश्वास हो गया है कि यदि ये कानून लागू हो गए तो उनकी जितनी भी और जैसी भी संपन्नता एवं समृद्धि है, वह खत्म ही हो जाएगी, इसके साथ आने वाली पीढियां भी बर्बाद हो जायेंगी.
– यह एक ऐसा जन आंदोलन है, जिसके निशाने पर कारपोरेट घराने और उनके मीडिया हाउस भी हैं.
– इस जन आंदोलन में शामिल अधिकांश किसानों को यह विश्वास हो गया है कि मोदी सिर्फ कारपोरेट घरानों के लिए काम करते हैं, वे उनके हाथ की कठपुतली हैं. अंबानी-अडानी जो चाहते हैं, वही होता है. यह मोदी की सरकार नहीं, अंबानी-अडानी की सरकार है. उनका कहना है कि यह कानून भी अंबानी-अडानी के हितों के लिए बनाया गया है.
– इस जन आंदोलन को बहुलांश वैकल्पिक मीडिया का खुला समर्थन प्राप्त है और सोशल मीडिया भी इस जनांदोलन को समर्थन दे रही है.
– इस जन आंदोलन को मोदी जी हिंदू-मुस्लिम का एंगल या पाकिस्तान का एंगल नहीं दे पा रहे हैं. सिर्फ उनके पास कोसने के लिए विपक्षी पार्टियां हैं. विपक्षी पार्टियां किसानों को गुमराह कर रही हैं. यह तर्क अधिकांश लोगों के गले नहीं उतर रहा है. शायद भीतर से मोदी सरकार को भी इस पर भरोसा नहीं.
– भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के वादों को पूरा करने में मोदी जितने भी सफल हुए हो, लेकिन आर्थिक मामलों में उन्होंने जितने भी वादे किए उन सभी में वे अविश्वसनीय साबित हुए हैं. जिसके चलते मोदी जी के किसी भी वादे पर किसानों को भरोसा नहीं है, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि वे किसानों के नहीं कारपोरेट के दोस्त हैं और उनके द्वारा पाले-पोसे गए हैं.
– इस आंदोलन को धीरे-धीरे मजदूरों का भी समर्थन प्राप्त हो रहा है, क्योंकि जिस कारपोरेट मित्रों के लिए ये तीन कृषि कानून बने हैं, उसी कारपोरेट के लिए मोदी सरकार तीन बड़े लेबर लॉ भी पास कर चुकी है.
आम गरीब जनता में भी यह संदेश जा रहा है कि यदि गेहूं-चावल पैदा करने वाले किसानों की खेती कारपोरेट के हाथ में चली गई, तो उन्हें सस्ते गल्ले की दुकानों से मिलने वाला सस्ता अनाज मिलना भी बंद हो जाएगा और उनकी भूखमरी और कंगाली और बढ़ जाएगी.
अब यह जानिये, क्यों मोदी सरकार इस कानून को वापस नहीं लेना चाहती है या नहीं ले पा रही है
– देशी-विदेशी कार्पोरेट घरानों की निगाह देश के किसानों की फसल और जमीन पर है. यह कानून देश के किसानों की फसल और जमीन पर कारपोरेट कब्जे का रास्ता खोलता है, जो कारपोरेट के मुनाफे और संपदा में बेहतहाशा वृद्धि करेगा.
– खेती पर निर्भर करीब 75 करोड़ लोगों के बड़े हिस्से की तबाही उन्हें शहरी स्लम बस्तियों में जाने के लिए बाध्य करेगी, जो कारपोरेट घरानों के लिए बहुत ही सस्ते मजदूर के रूप में उपलब्ध होंगे. यही कारपोरेट घराने चाहते हैं.
– खाद्य उत्पादों पर कारपोरेट का नियंत्रण उन्हें बड़े पैमाने पर उपभोक्ताओं से मुनाफा कमाने का अवसर प्रदान करेगा.
– चुनाव जीतने के लिए कारपोरेट घरानों द्वारा भाजपा को मुहैया कराए गए अकूत धन की वसूली के लिए कृषि क्षेत्र को कारपोरेट घरानों को सौंपना मोदी सरकार की बाध्यता है. जैसे आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन को और बैंकों एवं भारतीय जीवन बीमा निगम की पूंजी को.
– इसके साथ मोदी का व्यक्तिगत व्यवहार भी इसके आड़े आ रहा होगा, जिस व्यक्ति ने देश को तबाह कर देने वाली नोटबंदी को भी आज तक अपनी गलती नहीं मानी, वह कैसे मान लेगा कि ये तीन कृषि कानून गलत हैं और उन्हें वापस लिया जा रहा है.
मोदी सरकार इन कृषि कानूनों को वापस लेने या स्थगित करने की जगह गुरु तेगबहादुर के शहदी दिवस पर उन्हें माथा टेकने का भावात्मक खेल जरुर खेल रहे हैं. लेकिन इस जन आंदोलन में शामिल किसान इसे पाखंड कह रहे हैं.
किसान आर-पार की लडाई की तैयारी के साथ दिल्ली बोर्डर पर डटे हुए हैं, पीछे से उन्हें रसद मुहैया हो रही है. देखना है कि इन किसानों के सामने मोदी सरकार कितने देर टिकती है और अपने बचाव के लिए कौन सा रास्ता निकालती है.
“अबकी बार मोदी सरकार” का सामना योद्धाओं की कौम से है, जिन्हें शहीद होना तो आता है, लेकिन झुकना नहीं आता. उन्हें झुकाना एक बहुत मुश्किल भरा काम है. वह भी तब जब उनका सब कुछ दांव पर लगा हुआ है.
डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं और यह लेख उनके फेसबुक वॉल पर प्रकाशित हो चुका है.