Dr. Santosh Manav
बिहार में चुनाव था. सम्राट अशोक की गूंज थी. मैंने सोचा कि सम्राट अशोक के शासनकाल के हजारों साल बाद और ठीक चुनाव के समय उन्हें क्यों याद किया जा रहा है? अशोक की गिनती प्रजाप्रिय शासकों में होती है, इसलिए उन्हें ससम्मान याद किया जाना चाहिए. लेकिन चुनाव के समय? मैं सम्राटों के सम्राट यानी चक्रवर्ती सम्राट अशोक की जाति नहीं जानता था. जरूरत भी नहीं थी. ऐसी उत्सुकता भी नहीं रहती, लेकिन सम्राट अशोक को याद करती बीजेपी ने बताया कि वे कुशवाहा जाति से थे. यहां जाति विवाद का विषय हो सकती है, लेकिन चुनाव के समय अशोक की जाति खोज निकालने का मतलब समझ में आ गया था.
बंगाल चुनाव के समय मतुआ समाज और उनके गुरु हरिचंद ठाकुर की गूंज रही. मतुआ समाज की आबादी पश्चिम बंगाल में अच्छी-खासी है. हरिचंद ठाकुर अचानक से बीजेपी के आराध्य हो गए थे. दरअसल, लोकनायकों, लोकदेवों की राजनीति या कहें कि उन्हें भुनाने में बीजेपी चैंपियन है. हालांकि दूसरे दल भी कम नहीं हैं, लेकिन बीजेपी से पीछे हैं. प्रतीक पुरुष वोट दिलाते हों तो कम से कम राजनीतिक दलों और राजनीतिकों के लिए, इस पर कितना खर्च, जैसे प्रश्न बेमानी हो जाते हैं.
यूपी में चुनाव है, तो अचानक से परशुराम का महत्व बढ़ गया है. बसपा और सपा ने सत्ता में आने पर हर जिले में उनकी प्रतिमा लगाने की घोषणा की है. मूर्ति से मत मिले, तो खर्च की कौन करे परवाह ! अभी फोकस में यूपी है.
याद कीजिए, 2018 का अक्टूबर माह. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के नर्मदा जिले के केवड़िया गांव में विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा का उद्घाटन किया था. 182 फीट की यह प्रतिमा सरदार वल्लभभाई पटेल की थी और इस पर तीन हजार करोड़ से ज्यादा खर्च हुआ था. तब बीजेपी विरोधियों का सवाल था कि इतने में दो एम्स और पांच IIM बन जाते. यह सवाल, सवाल ही रह गया. नरेंद्र मोदी और बीजेपी को गुजरात के पटेलों को प्रभावित करना था और उन्होंने किया.
बीजेपी के पास दो ही प्रतीक पुरुष थे- श्यामाचरण मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय. पर देखिए कि देश के अधिकतर लोकनायकों को उन्होंने सूझबूझ से अपने साथ जोड़ लिया है. महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गांधी, सुभाष, पटेल, डा.आंबेडकर, विवेकानंद, मदन मोहन मालवीय— बचा कौन ? लोकनायक ही नहीं, लोकदेवों-देवियों को भी बीजेपी अपने साथ जोड़ लेती है. वाराणसी के निकट बीजेपी के लोगों ने शबरी मंदिर बनवाया है. यूपी में मुसहर जाति के लोग सबरी को कुलदेवी मानते हैं. वही, सबरी जिन्होंने भगवान राम को जूठे बेर खिलाए थे.
बीजेपी ही नहीं, दूसरे दल भी ऐसा करते हैं. मायावती ने अपने शासनकाल में डॉ आंबेडकर, कांसीराम की प्रतिमाएं लगवाईं. बताया गया है कि महाराष्ट्र में सरदार पटेल से भी ऊंची, शिवाजी की प्रतिमा अरब सागर में लगवायी जा रही है. अब यूपी में चुनाव है, तो अचानक से परशुराम का महत्व बढ़ गया है. बसपा और सपा ने सत्ता में आने पर हर जिले में उनकी प्रतिमा लगाने की घोषणा की है. मूर्ति से मत मिले, तो खर्च की कौन करे परवाह ! अभी फोकस में यूपी है. सो, राजा सुहेलदेव की याद है. सुहेलदेव बहराइच के राजा थे. उन्होंने युद्ध में सैयद सलार गाजी को परास्त किया था. बीजेपी ने सुहेलदेव की याद में सुहेलदेव एक्सप्रेस ट्रेन चलवायी. बहराइच में उनकी भव्य प्रतिमा लगवायी. उनकी याद में बने मंदिर को रिनोवेट करवाया. राजभर और पासी जाति के लोग खुद को सुहेलदेव से जोड़ते हैं. हाथरस के राजा महेंद्र प्रताप सिंह जाट जाति से थे. उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए जमीन दान दी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत दिनों अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह विश्वविधालय का शिलान्यास किया. योगी आदित्यनाथ ने दादरी में राजा भोज की भव्य प्रतिमा का अनावरण किया. राजा भोज को राजपूत और गुर्जर जाति के लोग खुद से जोड़ते हैं. राजपूत-गुर्जर विवाद कोर्ट तक पहुंच चुका है.
दरअसल, बीजेपी लगातार प्रतीक पुरुषों को अपने साथ जोड़ रही है. ये प्रतीक पार्टी के सामाजिक विस्तार को गति दे रहे हैं. हर समाज अपने प्रतीक पुरुष ढूंढ़ता है. इससे वह खुद को गौरवान्वित महसूस करता है. जो दल या व्यक्ति प्रतीक पुरुषों को सम्मान देता है, उस ओर समाज झुकता है. यह भी ठीक है कि लोकनायकों को जाति से मुक्त रखना चाहिए. लेकिन, राजनीतिक दल ऐसा होने देंगे? और यह सवाल भी जीवित रहेगा कि प्रतीक पुरुषों से समाज खुद को जोड़ता है, लेकिन उनकी सैकड़ों करोड़ की प्रतिमाओं से समाज को क्या मिलता है?
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