त्वरित टिप्पणी
बैजनाथ मिश्र
सांसद दानिश अली को मायावती ने बसपा से रुखसत कर दिया है. बतौर कारण सिर्फ इतना कहा गया है कि वह पार्टी विरोधी काम कर रहे थे. यह नहीं बताया गया है कि उन्होंने ऐसा कौन-सा काम किया था या कर रहे थे और कब से कर रहे थे, जो पार्टी की नीति-रीति के खिलाफ था. वैसे भी बसपा में लोकशाही नही, तानाशाही चलती है. मायावती ने जो कह दिया, कर दिया, वही कायदा-कानून है. दानिश शक्लन, सूरतन, जायदादतन काफी उम्दा हैं. लेकिन आदतन या शरारतन आम तौर पर गाफिल हो जाते हैं. इस बार उनकी यही गफलत भारी पड़ गई है. वह पहले एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस के प्रवक्ता थे. इस वजह से राष्ट्रीय चैनलों पर अमूमन नमूदार होते रहते थे और अपने अंदाज-ए-बयां से सबको कायल कर देते थे. कर्नाटक की पिछली सरकार में कांग्रेस, जेडीएस के साथ बसपा भी शामिल थी. हालांकि बाद में मायावती ने इस सरकार के अपने इकलौते मंत्री को पार्टी से निकाल दिया था. दानिश साहब उसी वक्त मायावती की सोहबत में आए और देखते ही देखते छा गये. मायावती उनकी काबिलियत पर ऐसी फिदा हुईं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें अमरोहा (उ. प्र. ) से टिकट दे दिया. तब सपा-बसपा-रालोद का गंठबंधन था. यह समीकरण अमरोहा के लिहाज से दानिश के लिए काफी मुफीद था. सो उन्होंने कमाल अमरोही (फिल्म पाकीजा के निर्देशक) की इस सरजमी पर एक नयी इबारत लिखते हुए फतह हासिल कर ली. बाद में उन्हें बसपा संसदीय दल का नेता बना दिया गया. एक नये नवेले नेता के लिए यह बहुत बड़ा तोहफा था. लेकिन इससे वह आहिस्ता-आहिस्ता गुमानी होते चले गये. शायद आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे के अंदाज में. इस लड़खड़ाहट और मीडिया में उनकी बड़बड़ाहट से आजिज आकर मायावती ने उन्हें नेता पद से हटा दिया. दानिश के लिए यह झटका था. उन्हें यह अंदेशा शायद हो चला था कि बसपा से अगली बार टिकट नहीं मिलेगा. इसलिए वह कांग्रेस की ओर झुकने लगे. उसके दरबार में गाहे-बगाहे सजने लगे. अडाणी के खिलाफ हल्ले में राहुल के सुर में सुर मिला कर सदन में गरजने लगे. नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपना शब्दकोष खाली करने लगे. इसलिए जब लोकसभा में रमेश विधूड़ी ने दानिश के खिलाफ अपशब्दों की बौछार की और दानिश को रात में नींद तक नहीं आ रही थी, तब राहुल गांधी शायद नींद की गोली लेकर उनके घर पहुंच गये. इस हमदर्दी ने इस बात की चुगली कर दी कि दानिश अब दिल-दिमाग से कांग्रेस के हो गये हैं. मायावती यह कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती थीं. लेकिन दानिश के खिलाफ कार्रवाई के लिए यह पुख्ता आधार नहीं था. इसी बीच महुआ मोइत्रा प्रकरण प्रकाश में आ गया. सदन की एथिक्स कमेटी ने जांच शुरू की. दानिश भी कमेटी के मेंबर थे. उन्होंने महुआ की कठदलीलों, अनर्गल अरोपों और बदतमीजियों का खुल कर समर्थन किया, मीडिया में, चैनलों में. वह चाहते तो अपनी रिपोर्ट नोट ऑफ डिसेंट के जरिये दे सकते थे. लेकिन एक चमकदार प्रवक्ता खौलते मामले पर कैमरे पर न चमके, यह कैसे हो सकता था. जब लोकसभा से महुआ के निष्कासन का प्रस्ताव पारित हो गया और समूचा विपक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में सदन के बाहर विरोध प्रदर्शन करने लगा, तो दानिश भाई भी दानिशमंदी दिखाने के लिए सोनिया जी के साथ हो लिये. जबकि बसपा के दूसरे सांसद वहां नहीं गये. तो दानिश क्यों गये ? क्या पार्टी ने ऐसा करने को कहा था ? यदि हां , तो बाकी आठ बसपा सांसद क्यों नहीं इस प्रदर्शन में शरीक हुए ? नतीजतन इस प्रदर्शन की तस्वीर जैसे ही मीडिया में आई, मायावती ने महासचिव सतीशचंद्र मिश्र को बुलाया और दानिश के निष्कासन का आदेश जारी हो गया. फिलहाल बसपा का कोई आधिकारिक प्रवक्ता नहीं है. चाहे मलूक नागर हों या श्याम सिंह यादव या कोई और ये राजनीतिक विश्लेषक के रूप में ही बोलते हैं, जबकि ये दोनों सांसद हैं. लेकिन दानिश अली ने मायावती की इजाजत के बगैर खुद ही महुआ मामले में पार्टी का स्टैंड क्लीयर कर दिया. उन पर गाज गिरने की वजह यही है. दानिश पता नहीं यह भूल कैसे गये कि कांग्रेस की शान में इमरान मसूद ने जैसे ही कसीदे गढ़ने शुरू किये, मायावती ने उन्हें तत्काल निकाल बाहर कर दिया और आजकल वह कांग्रेस में हैं. दानिश भी अगला चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ेंगे या टीएमसी के या नहीं लड़ेंगे, यह उन्हें तय करना है. बसपा से उनका हुक्का -पानी फिलहाल उठ गया है.
नोटः ये लेखक के निजी विचार हैं.