pravin kumar
Ranchi : झारखंड सरकार के एक साल पूरा होने के अवसर पर अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के तहत पिछले 29 दिसंबर 2020 को राज्य के विभिन्न जिले में वन अधिकार के दावेदारों को सामुदायिक वनाधिकार प्रमाण-पत्र का वितरण किया गया.
सरकार इसे अपनी बड़ी उपलब्धि मान रही है. लेकिन सरकार द्वारा निर्गत ये सामुदायिक वन अधिकार प्रमाण-पत्र विधिसम्मत नहीं है. विधिसम्मत नहीं होने के कारण लोगों में नाराजगी देखने को मिल रही है. वनाधिकार कानून की धारा 3 (1) ‘झ’ के प्रावधान के अनुसार गांव की पारंपरिक सीमा में स्थित सामुदायिक वन संसाधनों के संरक्षण, पुनर्जीवित करने और प्रबंधन का अधिकार गांव समुदाय/ ग्राम सभा को है. लेकिन इन अधिकारों से ग्रामसभा को वंचित रखने का काम किया जा रहा है.
जिला में कुल 29 सामुदायिक दावा पत्र एवं 10173 व्यक्तिगत दावा पत्र ग्रामसभा से अनुमोदित कर भेजे गये हैं. अनुमंडल स्तरीय समिति द्वारा 26 सामुदायिक दावा पत्रों एवं व्यक्तिगत 9658 दावों का अनुमोदन किया गया है.
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सरकार ने 29 दिसंबर को वन पट्टा का वितरण करने का लिया था निर्णय
सरकार की ओर से 29 दिसंबर को वन पट्टा का वितरण किया जाना था. लेकिन ग्रामसभा द्वारा अनुमोदित प्रपत्र में जमीन के रकबा में कमी करने के कारण आवेदकों के द्वारा पट्टा लेने से इनकार किये जाने की सूचना भी है. वही सिमडेगा जिले में सामुदायिक वन पट्टा के लिए कुल 29 आवेदन किये गये थे. प्राप्त सूचना के अनुसार 29 आवेदन में से 26 को स्वीकृत किया गया. इसमें मात्र 5 ग्रामसभाओं ने ही सरकारी पट्टा को स्वीकार किया है.
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सरकार द्वारा निर्गत वन पट्टों में क्या हैं खामियां
झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन के सदस्य जेवियर कुजूर कहते हैं कि सरकार वन पट्टों के नाम पर आदिवासियों को गुमराह करने का काम कर रही है. जिला के जिन पांच ग्राम सभाओं ने वन पट्टा लिया है. उसमें सामुदायिक वनाधिकार प्रमाण-पत्रों में वन संसाधनों के प्रबंधन के हक का उल्लेख कहीं पर नहीं है. इसका सीधा अर्थ है, इन पट्टों में वन प्रबंधन के अधिकार को तकरीबन बाहर कर दिया गया है.
यानी गांव समुदाय एवं ग्राम सभा के वन प्रबंधन के हक के बिना सामुदायिक वनाधिकार पत्र बिल्कुल आधा-अधूरा (अपूर्ण) और अर्थहीन है. साथ ही निर्गत प्रमाण पत्र वनाधिकार कानून के उद्देश्यों के अनुरूप नहीं होने की वजह से लोगों में सरकार के प्रति नाराजगी दिख रही है. यह न तो विधिसम्मत है और न ही न्यायसंगत.
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सवाल है कि इस प्रकार के सामुदायिक वनाधिकार प्रमाण-पत्र निर्गत करने का क्या कोई औचित्य है?
मालूम हो कि वनाधिकार कानून की धारा 3 (1) ‘झ’ के प्रावधान के अनुसार गांव के पारंपरिक सीमा में स्थित सामुदायिक वन संसाधनों के संरक्षण, पुनर्जीवित करने और प्रबंधन का अधिकार गांव समुदाय/ग्राम सभा को है.
क्या कहते हैं सिमडेगा उपायुक्त सुशांत गौरव
सिमडेगा उपायुक्त सुशांत गौरव से इस मामले में जब बात की गयी, तो उन्होंने कहा कि मामला पहले से ही हमारी जानकारी में है. इसके लिए जरूरी कदम उठाये जा रहे हैं.
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