- 74 साल के बाद भी नहीं भरे हैं लोगों के जख्म
- आजादी के 133 दिन बाद झारखंड के खरसावां हुई थी गोलीकांड, लगा था कर्फ्यू
- गोलीकांड को लेकर बनीं थी जांच कमेटियां, लेकिन आज तक कोई रिपोर्ट नहीं किया गया सार्वजनिक
- सिंहभूम को ओडिशा में विलय के विरोध में झारखंड आंदोलनकारियों ने दी थी शहादत
- झारखंड की माटी के पूतों ने जय झारखंड का नारा किया था बुलंद
- वृहद झारखंड राज्य का सपना आज भी अधूरा
Pravin Kumar
Ranchi : खरसावां ने पहली शहादत दी थी अलग झारखंड राज्य के लिए. आजाद भारत में हुए खरसावां नरसंहार में बहे लहू ने आदिवासियों की संस्कृति,अस्मिता और आत्मसम्मान के साथ राजनैतिक स्वायत्तता को एक नया मुकाम दिया. आजादी के 133 वें दिन हुए जनसंहार के 52 साल बाद 2000 में झारखंड अलग राज्य तो बना, लेकिन शहीदों ने जिस झारखंड की परिकल्पना की थी. उसे हासिल करने का लक्ष्य अब भी अधूरा ही है. हर साल शहीदों को याद करते हुए झारखंडी स्वशासन के लिए आदिवासियों के संकल्प का सिलसिला जारी ही है. वृहद और सांस्कृतिक झारखंड की अधूरी परिकल्पना का मकसद अनेक क्षेत्रीय राजनीतिक दल उठाते ही रहते हैं, लेकिन वृहद झारखंड राज्य का सपना पूरा नहीं हो सका.
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आज़ाद भारत के जलियांवाला बाग कांड के रूप में जाना जाता है खरसावां गोलीकांड
यूं तो साल का पहला का दिन हर किसी के लिए खुशियों से भरा होता है. लेकिन झारखंड में इसी दिन एक अमिट दाग लगा है. साल 1948 की घटना इतनी भयावह थी कि इसे आजाद भारत का जलियावाला बाग कांड के नाम से जाना जाने लगा है.
झारखंड के स्टील सिटी जमशेदपुर से करीब 60 किलोमीटर की दूरी पर आदिवासी बहुल कस्बा है खरसावां. भारत की आजादी के लगभग पांच महीने बीत जाने के बाद जब देश एक जनवरी, 1948 को आज़ादी के साथ-साथ नये साल के जश्न मना रहा था, तभी खरसावां में ‘आज़ाद भारत के जलियांवाला बाग कांड’ की घटना घटी. उस दिन खरसावां में साप्ताहिक हाट लगा था. इस गोलीकांड को लेकर सात दशक से अधिक समय बीत चुका है. कई जांच कमेटियां भी बनीं, लेकिन आज तक इस घटना पर कोई रिपोर्ट नहीं आयी. हालांकि बिहार सरकार ने इसकी जांच रिपोर्ट भी तैयार की थी, लेकिन वो आज तक प्रकाशित नहीं हो सकी.
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खरसावां गोलीकांड की वजह
सरायकेला और खरसावां रियासत का ओडिशा में विलय का हो चुका था. देश को आजादी मिलने के बाद देशी रिसासत देशी रियासतों को मिलाकर संघात्मक भारत का हिस्सा बनाने का दौर जारी था. झारखंड के कोल्हान का वह इलाका में एक देशी रियासत के रूप में खरसावां भी हुआ करता था. खरसावां भी एक छोटी रियासत थी. इस क्षेत्र में उड़िया भाषी लोगों की संख्या को देखते हुए केंद्र के दबाव में मयूरभंज रियासत के साथ-साथ सरायकेला और खरसावां रियासत का ओडिशा में विलय का समझौता हो चुका था, लेकिन खरसावां-सरायकेला के आदिवासी नहीं चाहते थे सरायकेला और खरसावां का ओडिशा में विलय हो.
उन दिनों से ही अलग झारखंड राज्य की मांग होने लगी थी. 1 जनवरी 1948 को इन तीनों रियासतों के सत्ता का हस्तांतरण भी होना था, लेकिन इसके विरोध में अलग झारखंड राज्य की मांग तेज हो गयी. आदिवासी समाज के 50 हजार लोग खरसावां में एकत्रित हुए थे. इस सभा में हिस्सा लेने के लिए जमशेदपुर, रांची, सिमडेगा, खूंटी ,तमाड़, चाईबासा और दूरदराज के इलाके से आदिवासी आंदोलनकारी अपने पारंपरिक हथियारों से लैस होकर खरसावां पहुंचे थे.
दूसरी तरफ ओडिशा सरकार किसी भी हाल में खरसावां में 1 जनवरी को सभा नहीं होने देना चाहती थी. खरसावां हाट उस दिन ओडिशा मिलिट्री पुलिस की छावनी बना हुआ था. इसी दौरान अचानक ओडिशा मिलिट्री पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग की.
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ओडिशा सरकार ने इलाके को बदल दिया था पुलिस छावनी
ओडिशा सरकार ने पूरे इलाके को पुलिस छावनी में बदल दिया था. खरसावां हाट में करीब पचास हजार आदिवासियों की भीड़ पर ओडिशा मिलिट्री पुलिस गोली चला रही थी. इस घटना में कितने लोग मारे गये इस पर अलग-अलग दावे हैं. पुराने जानकारों की मौत के आंकड़े को लेकर अलग-अलग राय है. कोई एक हजार आदिवासियों के मारे जाने की बात करता है, तो कोई दो हजार आदिवासियों की मौत की बात करता है. वहीं तात्कालिक ओडिशा सरकार की ओर से मौत का आंकड़ा 32 बताया गया था. वहीं बिहार सरकार के आंकड़े में 48 लोगों की ही मौत बतायी गयी थी. लेकिन स्थानीय लोगों का मानना है कि करीब 2 हजार से ज्यादा लोगों की मौत खरसावां गोलीकांड में हुई थी.
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विलय का हो रहा था विरोध
स्वतंत्रता के बाद जब राज्यों का विलय किया रहा था, तो बिहार और ओडिशा में सरायकेला व खरसावां सहित कुछ अन्य क्षेत्रों के विलय को लेकर विरोध की स्थिती बन गयी थी. ऐसे समय क्षेत्र के आदिवासी अपने को स्वतंत्र राज्य या प्रदेश में रहने की इच्छा जाहिर कर रहे थे. 25 दिसंबर 1947 को चंद्रपुर जोजोडीह में नदी के किनारे एक सभा आयोजित की गयी थी. जिसमें ये तय किया गया था कि सिंहभूम को ओड़िशा में ना मिलाया जाये. बल्कि यह अलग झारखंड राज्य के रूप में रहे. दूसरी ओर सरायकेला खरसावां के राजा ने इसे ओडिशा में शामिल करने पर सहमति दे दी थी.
झारखंडी जनमानस खुद को स्वतंत्र राज्य के रूप में अपनी पहचान कायम रखने के लिए गोलबंद होने लगे थे. जिसके बाद ये तय हुआ कि एक जनवरी को खरसावां के बाजारताड़ में सभा आयोजित की जायेगी. उस सभा में जयपाल सिंह मुंडा भी शामिल होंगे. इस रैली और सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने आने की सहमती भी दी थी. जयपाल सिंह को सुनने के लिए तीन दिन पहले से ही चक्रधरपुर, चाईबासा, जमशेदपुर, खरसावां, सरायकेला के ग्रामीण क्षेत्रों के युवा, बच्चे, बूढ़े, नौजवान और महिला पैदल ही सभास्थल की ओर निकल पड़े थे.
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आज के दिन खरसावां में लगाये जा रहे थे गगनभेद नारा
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अनाज और पारंपरिक हथियारों से लैस होकर हजारों आदिवासी परिवार अपने साथ सिर पर लकड़ी की गठरी, चावल, खाना बनाने का सामान और बर्तन भी साथ में लेकर आये थे.एक जनवरी 1948, गुरुवार का दिन हाट-बाजार का था. आसपास की महिलाएं बाजार करने के लिए आयी थीं. दूर-दूर से आये बच्चों एवं पुरुषों के हाथों में पारंपरिक हथियार और तीर-धनुष थे. वहीं रास्ते में सारे लोग नारे लगाते जा रहे थे और आजादी के गीत भी गाये जा रहे थे.
एक ओर राजा के निर्णय के खिलाफ पूरा कोल्हान सुलग रहा था, दूसरी ओर सिंहभूम को ओडिशा राज्य में मिलाने के लिए ओडिशा के तत्कालीन सरकार के विजय पाणी भी अपना षडयंत्र रच चुके थे. ओडिशा राज्य प्रशासन ने पुलिस को खरसावां भेज दिया. लेकिन पुलिस चुपचाप मुख्य सड़कों से न होकर अंधेरे में 18 दिसंबर 1947 को खरसावां पहुंची. इसमें शस्त्रबलों की तीन कंपनियां थी, जो खरसावां मिडिल स्कूल में जमा हुईं. आजादी के मतवाले इन बातों से बेखबर अपनी तैयारी में लगे थे. सभी ‘जय झारखंड’ का नारा लगाते हुए जा रहे थे और साथ ही ओडिशा के मुख्यमंत्री के खिलाफ भी नारा लगा रहे थे. झारखंड आबुव: उड़ीसा जारी कबुव: रोटी पकौड़ी तेल में, विजय पाणी जेल में – का नारा बुलंद किया गया.
एक जनवरी 1948 की सुबह राज्य की मुख्य सड़कों से जुलूस निकाला गया. इसके बाद कुछ नेता खरसावां राजा के महल में जाकर उनसे मिले और सिंहभूम की जनता की इच्छा बतायी थी.
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