Faisal Anurag
काबुल एयरपोर्ट धमाके ने अफगानिस्तान के भविष्य को अंधकार में धकेल दिया है. 15 अगस्त को काबुल पर कब्जा करने के बाद वहां हालात और पेचीदा हो गए हैं. लगभग 14 दिन बीत जाने के बाद भी न तो तालिबान सरकार बनाने में कामयाब हुआ है ओर न ही अफगान नागरिकों की चिंताओं,भय और संदेहों को हल करने की दिशा में कदम उठाये गये हैं. यह तो तय है कि अमेरिका अगले कुछ ही दिनों में अफगानिस्तान से अपनी वापसी पूरा कर लेगा. फ्रांस,ब्रिटेन तो पहले ही वापसी कर चुके हैं. तुर्की ने भी अपने सैनिकों को वापस बुला लिया है. काबुल धमाके के बाद यह साफ दिख रहा है कि तालिबान को आईएस की चुनौती मिलने वाली है और पंजशीर में तालिबान विरोधियों का भी सामना करना है. तालिबान की राह की सबसे बड़ी बाधा तो एक ऐसी सरकार का गठन करना है जिसमें अफगान के सभी समूहों का प्रतिनिधित्व हो. जैसे जैसे समय गुजर रहा है इस तरह की सरकार गठन की संभावनाएं कमजोर पड़ रहीं हैं.
आर्थिक क्षेत्र की परेशानियां तो अलग ही है. बगैर विदेशी मदद लिए तालिबान के लिए भी सरकार को सुगम तरीके से चलाना आसान नहीं होगा. जब तक उसे दुनिया के अन्य देश मान्यता नहीं देते हैं, किसी भी बाहरी मदद की संभावना नहीं है. तालिबान ने अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि उसके पास सरकार और प्रशासन का क्या रोडमैप है. इतना भर ही कहा गया है कि अफगानिस्तान शरियत पर आधारित अमीरात बनेगा. यानी पश्चिमी मॉडल के लोकतंत्र की संभावना खत्म कर दी गयी है. अमेरिका ने काबुल धमाके के बाद ड्रोन हमले में आइएसआइएस खुरासान के एक प्रमुख योजनकार को मार गिराने का दावा किया है. दूसरी ओर आइएसआईएस—के ने भी साफ कर दिया है कि वह तालिबान और अमेरिका का विरोधी है. खुरासान के सीरिया के आइएस से संबंध जगजाहिर हैं. ऐसी सिथति में तालिबान को न केवल पंजशीर में बल्कि खुरासान इलाके में भी एक बड़ी लड़ाई लड़नी होगी. एक ऐसी स्थिति में जब अफगानिस्तान के पास आर्थिक संसाधनों की भारी कमी है और यूएन विश्व बैंक और आइएमएफ ने हाथ खींच लिये हैं. वहीं अमेरिका ने यह भी कहा है कि तालिबान के साथ उसके रिश्तें तालिबान की बातों पर नहीं बल्कि इस पर निर्भर करता है कि वह अपने वायदों पर कितना और किस तरह अमल करता है. अमेरिका के इस बयान में नरमी दिख रही है. लेकिन अमेरिका में बाइडेन को अपने जीवनकाल के सबसे संकटग्रसत समय का समाना आंतरिक आलोचनाओं के कारण करना पड़ रहा है. बाइडेन की तुलना राष्ट्रपति जॉनसन से की जा रही है जिनके ही कार्यकाल में वियतनाम के सैगोन से अमेरिका को अपमानित हो कर निकलना पड़ा था. अमेरिका के कई पूर्व राष्ट्रपतियों, जिसमें बाइडेन के ही दल के ओबामा भी हैं, जिनके कार्यकाल में वे उनके डिप्टी रहे, ने एक तरह का असंतोष प्रकट किया है. नवबंर 2020 में चुनावों में हारे डोनाल्ड ट्रंप तो हमलावर हो चुके हैं. वे अपने कार्यकाल को श्रेष्ठ बताने के लिए इस अवसर का इस्तेमाल कर रहे हैं. दरअसल 2024 के चुनावों पर उनकी गहरी निगाह है.
हालांकि ट्रंप के काल में ही दोहा में तालिबान से वार्ता शुरू की गयी थी और दोहा समझौते के ज्यादातर हिस्से उनके राष्ट्रपति रहते ही तय हो गए थे. यहां तक अमेरिकी सैनिकों की वापसी का एलान उन्होंने ही किया था और उन्होंने 31 मई की समय सीमा तय की थी. बाइडेन ने इस 31 मई के बजाय 31 अगस्त का समय तय किया. दोहा समझौते को लेकर अभी भी अनेक ऐसे पहलू हैं जो सार्वजनिक नहीं है. अलकायदा और आइएसआइएस के खतरे बने हुए हैं. इराक और सीरिया के युद्ध के बावजूद अलकायदा और आईएस का बना रहना आंतक के खिलाफ युद्ध की रणनीति पर भी सवाल खड़ा करता है. द गार्डियन में छपे एक लेख में इस तरह के सवाल उठाए गए हैं.
तालिबान में नयी सरकार के गठन तक की अराजकता की जिममेदारी लेने को कोई भी तैयार नहीं है. अफगान नेता हमीद करजई जो राष्ट्रपति रह चुके हैं और अब्दुला से तालिबान की बातचीत एक तरह से किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है.ऐसे हालात में शहरों में जो डर का माहौल आम लोगों में दिख रहा है उसे दूर करने की दिशा में कदम तक नहीं उठाए गए हैं. इस अराजकता का लाभ उठा कर अनेक क्षेत्रीय युद्ध सरदारों के एक बार फिर उठ खड़े होने की भी संभावना को नकारा नहीं जा सकता है. अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रगान में 14 जातीय समूहों को मान्यता दी गयी हैं. ये हैं – पख्तून, ताजिक, हज़ारा, उज़्बेक, बलूच, तुर्कमेन, नूरीस्तानी, पामिरी, अरब, गुर्जर, ब्राहुई, क़िज़िलबाश, ऐमाक और पशाई. अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमान सुन्नी, सूफी और शिया हैं. एक राष्ट्रीय सरकार में इन सबको शामिल करना होगा. इन सभी समुदायों के अपने सांस्कृतिक परिवेश हैं जिनके बीच समन्वय कोई सामान्य काम नहीं है. विश्व समुदाय को आश्वस्त करने के लिए तालिबान के समाने आईएस और अलकायदा को खत्म करने की चुनौती भी है. दरअसल अलकायदा और आइएस के इस्लामी खिलाफत के एजेंडे से पार पाने की बड़ी चुनौती है. आइएस—के तो अतीत के उस खुरासान क्षेत्र के सपने को हासिल करने की बात करता है जिसका क्षेत्र विस्तार सेंट्रल एशिय से सीरिया तक था. इरान का भी कुछ हिस्सा इसमें था. इरान में एक प्रदेश का नाम ही खुरासान है.करीब सात आठ हजार का हथियारबंद आतंकी समूह खुरासान के साथ है. तालिबान इसी परीक्षा से गुजर कर विश्व समुदाय को आश्वस्त कर सकता है. सरकार गठन में जितनी देर होगी अराजकता उतनी ही गहरी होगी.
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