Shyam Kishore Choubey
झामुमो के चुनाव घोषणा पत्र के अनुरूप महागठबंधन सरकार 11 नवंबर को ‘झारखंड स्थानीय व्यक्तियों की परिभाषा और परिणामी सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य लाभों को ऐसे स्थानीय व्यक्तियों तक विस्तारित करने के लिए विधेयक-2022’ लेकर सदन में आने वाली है. यह सत्र अपने आप में अनोखा है. विगत 29 जुलाई से 05 अगस्त तक आहूत मॉनसून सत्र हल्ला-हंगामे की भेंट चढ़ एक दिन पहले ही 04 अगस्त को अनिश्चित काल तक के लिए स्थगित कर दिया गया था. अगस्त के आखिरी दिनों में जब मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नाम माइनिंग लीज का मामला गूंजा और लगा कि इस पर चुनाव आयोग के मशविरे से राज्यपाल कोई कार्रवाई कर सकते हैं तो राज्य के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि महागठबंधन सरकार ने विश्वासमत के नाम 05 सितंबर को मॉनसून सत्र का एक दिवसीय विस्तारित सत्र बुला लिया. अब, जबकि ईडी और आईटी की सक्रियता बढ़ गई है तो उसी मॉनसून सत्र का दूसरी बार विस्तारित एक दिवसीय विशेष सत्र 11 नवंबर को बुलाया गया है. इसमें उक्त ‘32 के खतियानी विधेयक के संग-संग कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र के अनुरूप ओबीसी का आरक्षण 14 फीसद से बढ़ाकर 27 फीसद करने के नाम ‘झारखंड पदों एवं सेवाओं की रिक्तियों में आरक्षण (संशोधन) विधेयक-2022’ पेश किया जाना है. महागठबंधन बहुमत में है, इसलिए इन विधेयकों के पारित होने में कोई शंका-आशंका नहीं है, लेकिन इस एक दिन के भी सत्र के हंगामे की भेंट चढ़ने की पूरी संभावना है. वोट की राजनीति से इतर मामले भी गूंजेंगे ही गूजेंगे.
दिसंबर 2019 के आखिरी दिनों में इस सरकार के गठन के समय से ही प्रतिपक्षी भाजपा के साथ महागठबंधन की चली आ रही खींचतान हर दिन नये मुकाम गढ़ रही है. यह सच है कि झारखंड के 19 वर्षों के इतिहास में दूसरी बार चुनाव पूर्व के गठबंधन को खासा बहुमत हासिल हुआ था. लेकिन राजनीतिक मतभेदों और महत्वाकांक्षाओं ने सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच की खाई लंबी-चौड़ी और गहरी बना दी. सड़क से सदन तक दोनों के बीच तलवारें खींची रहीं. मौजूदा हालात में मुहावरे की तलवार हटा कर यह कहना अधिक मुनासिब होगा कि दोनों के बीच तोपें तन गई हैं. सदन में संख्याबल का महागठबंधन को और राजनीति के महाबली नरेंद्र मोदी और अमित शाह की ‘चाल-ढाल’ और संगठन के शक्ति-सामर्थ्य का प्रतिपक्षी भाजपा को गुमान है.
सर्वविदित है कि मॉनसून सत्र नियत समय से एक दिन पहले ही स्थगित किये जाने के बावजूद तीन महीने से अधिक काल तक राजनीतिक कारणों से ही जिंदा रखा गया है. तब, जबकि दिसंबर में बदस्तूर शीत सत्र बुलाने की बारी है, उसके कुछ दिनों पहले विशेष सत्र का आयोजन कर ये विधेयक लाए जा रहे हैं. इस कर्मकांड पर राजनीतिक कारण हावी हैं. सरकार को मूलवासियों, आदिवासियों और अधिवासियों की इतनी ही फिक्र थी, तो वह तकरीबन तीन वर्षों तक सोयी क्यों रही? इस विधेयक से कुटिल राजनीति भी झलकती है. इसके ‘संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारंभ’ बिंदु में कहा गया है, यह अधिनियम भारत के संविधान की नौवीं अनुसूची में सम्मिलित होने के उपरांत प्रभावी होगा. इस प्रकार विधेयक की गेंद केंद्र के पाले में फेंक कर राजनीति चमकाने की गुंजाइश बनायी गई है. जब केंद्र को ही ‘अंतिम गति’ देकर कानूनी स्वरूप प्रदान करना है तो बेहतर होता कि उससे विमर्श कर इसकी नींव डाली जाती अथवा जिस प्रकार 2020 में सरना धर्म कोड का संकल्प पारित कर केंद्र को भेजा गया था, वही प्रक्रिया अपनायी जाती.
कम से कम झारखंड के लोग राज्य गठन के दो वर्ष बाद ही 2002 में बाबूलाल मरांडी के नेतृत्ववाली तत्कालीन एनडीए सरकार द्वारा जारी ‘32 के खतियानी निर्णय का हश्र नहीं भूले होंगे. एक तो उस समय भीषण हिंसा और उपद्रव का सामना करना पड़ा था, दूसरे झारखंड हाईकोर्ट ने दो पीआईएल डबल्यूपी 4050/2002 और 3912/2002 की सुनवाई कर 27 नवंबर 2002 को सरकार के उस निर्णय को निरस्त कर दिया था. शीर्ष अदालत ने स्थानीय व्यक्तियों की परिभाषा के लिए नए सिरे से निर्णय लेने का निर्देश दिया था. इसके लंबे काल के बाद 18 अप्रैल 2016 को संकल्प संख्या 3198 के धार पर स्थानीय नीति बनाई गई. इसे सिरे से खारिज कर 14 सितंबर को लिए गए कैबिनेट निर्णय के बाद कोई प्रबल विरोध-प्रतिरोध इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि इसकी परिणति सबको मालूम है. यह सब जानते-समझते हुए राजनीति के लिए राजनीति का इसे जरिया बनाया जा रहा है.
खूंटी जिले के 12 साल पुराने मनरेगा घोटाले की तफ्तीश के लिए हाईकोर्ट द्वारा ईडी को लगाये जाने के बाद जिस प्रकार विभिन्न किस्म के घपले-घोटालों की परतें खुल रही हैं और मनी लॉन्ड्रिंग के एक अभियुक्त के आवास पर सीएम सेक्यूरिटी की दो सरकारी एके 47 एसॉल्ट राइफलों तथा 60 गोलियों की बरामदगी हुई, उससे सरकारी दलों में बेचैनी स्वाभाविक है. ऐसे माहौल में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और उनके दल झामुमो की आक्रामक राजनीति के सापेक्ष कुनबों में बंटी प्रतिपक्षी भाजपा और यहां तक कि सत्ता में भागीदार कांग्रेस भी कई बहानों से अपनी राजनीतिक जमीन बचाने की जुगत में है. मौके का फायदा उठाकर झामुमो दिन-ब-दिन नई नीतियों की गोटियां बिछा रहा है. सवाल नीयत का है. इन विधेयकों को सदन में लाने से नफा-नुकसान से अधिक बड़ा सवाल नीयत का ही है. प्रस्तावित आरक्षण विधेयक राज्य की सेवाओं में आरक्षण 60 फीसद को बढ़ाकर 77 प्रतिशत की हद तक ले जाएगा, यानी प्रतिभा आधारित पद 23 फीसद ही बचेंगे. आरक्षण की रेवड़ी ओबीसी सहित एससी और एसटी के बीच बांटने का हिसाब-किताब है. झारखंड क्या ऐसी ही रीति-नीति से चलाने के लिए बनाया गया था?
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.