Gladson Dungdung
“आदिवासी पहचान और अस्मिता”आज भी आदिवासियों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है, जो एक बार फिर से जोर पकड़ने लगा है. विगत दिनों आदिवासी
विकास परिषद् की रांची में हुए वार्षिक अधिवेशन में मांग की गई कि संविधान का संशोधन करते हुए आदिवासियों के लिए प्रयुक्त “अनुसूचित जनजाति”
के जगह पर “आदिवासी” शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. आदिवासी पहचान और अस्मिता का प्रश्न भारत में एक लंबे अरसे से विवाद का विषय
रहा है. आदिवासी डंके के चोट पर दावा करते हैं कि वे भारत के प्रथम निवासियों के वंशज होने के नाते देश के इंडिजिनस पीपुल्स और मालिक हैं,
जिन्हें भारत सरकार और संघ परिवार न सिर्फ खारिज करते हैं, बल्कि मुख्यधारा में लाने के नाम पर उन्हें “वर्ण एवं जाति” व्यवस्था का हिस्सा बनाने हेतु कई दशक
से प्रयासरत हैं. फलतः आदिवासी अपनी मूल पहचान, भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज एवं परंपरा से बेदखल हो रहे हैं.
आदिवासी पहचान और अस्मिता के मसले को समझने के लिए हमें इतिहास को खंगालना होगा. ब्रिटिश हुकूमत के समय आदिवासियों के लिए एबोरिजिनल,
नेटिव एवं ट्राईबल शब्दों का प्रयोग किया जाता था. लेकिन भारत की आजादी के बाद से लेकर अबतक सरकारी दस्तावेजों में आदिवासियों के लिए सिर्फ
शेड्यूल्ड ट्राईब, ट्राईबल एवं अनुसूचित जनजाति शब्दों का ही उपयोग होता है. गैर-सरकारी तौर पर भी आदिवासी शब्द से परहेज करते हुए
उन्हें कोल, जंगली, गिरिजन, वनवासी, वनबंधु इत्यादि कहा जाता है तथा आदिवासी शब्द को एक षड्यंत्र के तहत “असभ्य, जंगली एवं नीच” के तौर पर
चित्रित किया गया है, ताकि आदिवासी अपमानित महसूस करते हुए अपनी मूल पहचान और दावेदारी छोड़ दें.
इसी कड़ी में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने आदिवासियों को “वनवासी, आदिवासी बोली, जीववाद, आदिम व्यवसाय, मांसभक्षी, नंगा या
अर्द्धनग्न रहना, खानाबदोश, मद्यपान एवं नृत्य में लीन रहने वाले लोग” के रूप में परिभाषित किया था तथा 1997 में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के
विशेष कार्यदल के सामने आदिवासी अस्तित्व को नकारते हुए कहा था कि हमारे यहां इंडिजिनस पीपुल्स नहीं रहते हैं. इसी तरह संघ परिवार आदिवासी इलाकों
में अभियान चलाकर आदिवासियों के मन-मस्तिष्क में “वनवासी” शब्द डाल रहा है, ताकि वे आदिवासी शब्द को भूलते हुए भारत के प्रथम निवासी होने का
दावेदारी छोड़ देंगे, जिसे आर्य लोग स्वयं को देश का असली निवासी घोषित कर सकेंगे. लेकिन सरकार और संघ परिवार के ठीक विपरीत 5 जनवरी 2011
को सुप्रीम कोर्ट ने “कैलाश एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार” के मसले पर फैसला सुनाते समय स्पष्ट कहा कि आदिवासी ही भारत के प्रथम निवासी और मालिक
हैं.
मौलिक तौर पर देखें तो “आदिवासी” का शाब्दिक अर्थ है आदिकाल से निवास करने वाले लोग. यह अंग्रेजी शब्द “एबोरिजिनल” का हिन्दी रूपांतरण है,
जो मूलतः दो शब्दों “आदि” एवं “वासी” से मिलकर बना है. आदिवासी, एबोरिजिनल एवं इंडिजिनस पीपुल्स उन लोगों को कहा जाता है, जिनका किसी
भौगोलिक क्षेत्र से ज्ञात इतिहास में सबसे पुराना सम्बन्ध रहा हो. यही वजह है कि ब्रिटिश हुकूमत ने आदिवासियों के लिए “एबोरिजिनल” शब्द का प्रयोग किया
और जब इसके हिन्दी रूपांतरण की जरूरत पड़ी तब “आदिवासी” शब्द का प्रयोग हुआ, जिसे 1930 के दशक में आदिवासी मुद्दों को उठाते समय ए.वी. ठक्कर ने प्रचलित किया तथा 1940 के दशक में आदिवासी महासभा ने इसे देशव्यापी बनाया.
आदिवासी पहचान और अस्मिता पर सबसे बड़ा प्रहार डॉ. भीमराव अम्बेदकर ने किया. 1 दिसंबर 1948 को संविधान सभा में डॉ. अम्बेडकर ने संशोधन सं.
491 के द्वारा भारतीय संविधान का मसौदा अनुच्छेद 13 के उप-अनुच्छेद 5 में रखे गये “एबोरिजिनल” शब्द को हटाकर उसके एवज में “शेडयूल्ड”
शब्द का प्रस्ताव रखा. जब इसके बारे में मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा को पता चला, तब वे आग बबुला हो गये. 2 दिसंबर 1948 को उन्होंने संविधान सभा
में सवाल उठाते हुए कहा कि डा. अम्बेडकर ने “एबोरिजिनल” शब्द के एवज में “शेडयूल्ड” शब्द का प्रस्ताव क्यों दिया है? उन्होंने जोर देते हुए कहा
कि हम आदिवासी हैं और हमें हमारे लिए आदिवासी के अलावा कोई दूसरा शब्द नहीं चाहिए. इस पर डा. अम्बेडकर ने जवाब देते हुए कहा कि “आदिवासी”
शब्द एक सामान्य शब्द है, जिसका कोई कानूनी अर्थ नहीं है. जबकि इसका विशेष अर्थ है. यदि आज संविधान में “आदिवासी” शब्द होता तो भारत
सरकार को मजबूर होकर अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन का कॉन्वेंशन 169 एवं संयुक्त राष्ट्र का आदिवासी घोषणा पत्र को लागू करना पड़ता, जिससे
आदिवासियों की पहचान, स्वायत्तता, संस्कृति, जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधन संरक्षित हो जाते.
मानवशास्त्र एवं समाजशास्त्र हमें बताते हैं कि नस्ल एवं जाति दोनों अलग-अलग हैं. आदिवासी लोग नस्लीय समूह से आते हैं इसलिए उनका सरोकार “वर्ण एवं
जाति” व्यवस्था से दूर-दूर तक नहीं है. बावजूद इसके उन्हें सरकारी कार्यों के लिए “जाति प्रमाण पत्र” प्रस्तुत करना पड़ता है, जो आदिवासियों के
मूल पहचान को मटियामेट करने हेतु किये गये संगठित प्रयास का नतीजा है. लेकिन अफसोस की बात यह है कि जयपाल सिंह मुंडा के बाद किसी आदिवासी नेता ने इसे राष्ट्रीय फलक पर नहीं उठाया.
आदिवासियों का अपना अलग रंग-रूप, वेश-भूषा, भाषा, संस्कृति, परंपरा, रिवाज, जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधन है, जो उन्हें “वर्ण एवं जाति” व्यवस्था
से अलग पहचान देते हैं.इसलिए उनके मांग के अनुरूप उनकी मूल पहचान और अस्मिता को स्वीकार करते हुए भारतीय संविधान के मसौदा में उल्लेखित
“एबोरिजिनल” एवं “आदिवासी” शब्द को संविधान में पुनः स्थापित करना चाहिए.
दरअसल शब्दों के इस्तेमाल के सांस्कृतिक और सभ्यतागत मूल्य है. भारत जैसे विशाल और बहुलतावादी समाज में शब्दों के सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित किए जाने की जरूरत है. किसी भी समूह और समुदाय को समानता और न्याय का बोध तभी होता है, जब उसके सभ्यतागत मूल्यों को सत्ता आत्मसात करती है. आदिवासी समाज की विशष्टता, पहचान और सांस्कृतिक मूल्यों के लिए जरूरी है कि उसे सामाजिक मूल्यगत शब्दावली से उच्चारित किया जाए.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.