Tapan Gorai
राजधानी रांची में जनसंख्या वृद्धि के साथ मैदानों की संख्या भी घटती जा रही है. शहर में मैदानों की घटती संख्या चिंता का विषय है. कई टीमों का अंत तो इस वजह से हो गया कि उनके पास खेल के मैदान नहीं रहे. राजधानी रांची के मैदानों पर अगर गौर किया जाये तो खेल मैदानों में काफी ऊंचा स्थान रखता है जयपाल सिंह स्टेडियम. शहर के बीच में स्थित यह स्टेडियम रांची के सबसे पुराने स्टेडियमों में एक है. मशहूर हॉकी खिलाड़ी जयपाल सिंह के नाम से इस स्टेडियम का नाम रखा गया है. पर मौजूदा समय में इसकी जो स्थिति है उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि इस स्टेडियम को लेकर रांची के खेल प्रमियों ने जो सपना देखा था वह धूल में मिल गये. इसके जिम्मेदार कौन हैं. इसकी स्थिति इस तरह क्यों बनी हुई है. खेल और खिलाड़ियों की भावना का अपमान कौन कर रहा है. यह जानना बहुत जरुरी है. आइये इसके इतिहास पर एक नजर डालते हैं, तब पता चलेगा कि यह स्टेडियम कितना महत्वपूर्ण है और जनभावनाओं से कितना सरोकार रखता है.
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1970 के दशक में यहां एक तालाब था. जो भुतहा तालाब के नाम से जाना जाता था. उस तालाब का इस्तेमाल उस समय आस पास के लोग शौच के लिये करते थे. तालाब गंदगी से भरी रहती थी. इस तालाब से सटा बारी पार्क मैदान (जहां अब महात्मा गांधी हॉल बन गया है, यह टाऊन हॉल के नाम से भी जाना जाता है) था. उसी दशक में अविभाजित बिहार का यह हिस्सा (झारखंड) हॉकी स्पर्धा में परवान चढ रहा था. हॉकी की प्रतिभाएं पुष्पित पल्लवित हो रही थीं. इसी में एक नाम जयपाल सिंह का भी था. उसी दौरान खेल प्रेमियों में यहां की खेल प्रतिभाओं को विकसित करने और उन्हें नियमित अभ्यास के लिये एक मैदान उपलब्ध कराने की चर्चा शुरु हो गयी थी. शहर के बीच में स्थित इस तालाब से काफी गंदगी फैलती थी. लोगों को ख्याल आया कि इसे भर दिया जाये और इसका इस्तेमाल खेल मैदान के रूप में किया जाये. सरकारी स्तर से भी यह प्रयास शुरू हो गया था. इतने बड़े मैदान को भरना आसान नहीं था. उस समय संसाधनों की कमी थी और जेसीबी जैसी गाड़ियां भी उपलब्ध नहीं थी. वर्ष 1972-73 में स्कूली बच्चों द्वारा श्रमदान का कार्यक्रम शुरू किया गया और ट्रकों के गिरायी गयी मिट्टी को स्कूली बच्चों द्वारा फैलाने का काम शुरू हुआ. इस काम में रांची के सभी स्कूलों के बच्चों ने सहयोग किया. धीरे धीरे भुताहा तालाब मैदान की शक्ल लेने लगा. इस काम में कई वर्ष लगे और यहां खेल गतिविधियां भी शुरू हो गयी.
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यह भी कोशिश थी कि मैदानों को प्रतिभावान खिलाड़ियों का नाम देकर उन्हें सम्मानित किया जाये, ताकि वे और स्तरीय खेल के लिये खिलाड़ी प्रेरित हों. इसी संदर्भ में इसे जयपाल सिंह स्टेडियम का नाम दिया गया. लोगों को लगा कि समय के साथ इस स्टेडियम को और भव्य रुप दिया जायेगा. 1980 के दशक में इस स्टेडियम में क्रिकेट, फुटबॉल, कबड्डी शुरू हो गये थे. रांची जिला क्रिकेट के लीग मैच और जिला फुटबॉल के मैच के साथ मीडिया कप क्रिकेट प्रतियोगिता भी इस स्टेडियम में होती थी. बाद में इसके एक हिस्से को काटकर अटल वेंडर भवन बना दिया गया. इससे स्टेडियम का क्षेत्रफल थोड़ा छोटा हो गया है. वर्ष 2000 के बाद नगर प्रशासन द्वारा इसका इस्तेमाल कई तरह से किया जाने लगा है. कभी इसे खुले जेल के रुप में इस्तेमाल किया जाता है. तो कभी इसमें प्रदर्शनी लगा दी जाती है, तो कभी पोटाला मार्केट. इस समय यह स्टेडियम जीर्ण अवस्था में है. नगर निगम को इसकी देख रेख का जिम्मा है. यहां खेल गतिविधियां एक तरह से ठप हैं. इससे देख खेल प्रेमी आहत हैं. एक तरह से यह उस खिलाड़ी जिनके नाम से यह स्टेडियम है,खेल प्रेमी और इस खेल मैदान के लिये श्रमदान करने वाले तमाम लोगों का अपमान है. इस स्टेडियम के बाद मोरहाबादी में बिरसा मुंडा स्टेडियम और धुर्वा में जेएससीए स्टेडियम बने हैं. जो भव्य रुप में हैं. अब सवाल यह है कि क्या जयपाल सिंह के नाम से बने इस स्टेडियम को वह मान नहीं मिलना चाहिये जिसका यह हकदार है. क्या ऐसा नहीं लगता कि इसका भी रूप अन्य स्टेडियमों की तरह भव्य होना चाहिये. इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह शहर के बीचो-बीच स्थित है. इस स्टेडियम को उसका हक खेल प्रेमी ही दिला सकते हैं. जिला प्रशासन इसे किसी व्यवसायिक इमारत के रूप में न तब्दील कर दे. इसके पहले सभी को इसके लिये पहल करनी चाहिये.