Adityapur (Sanjeev Mehta) : सरायकेला- खरसावां जिले के गम्हरिया प्रखंड अंतर्गत सांपड़ा स्थित सप्तर्षि गुरुकुल के अनाथ छात्रों में प्राचीन काल में दिये जाने वाले शिक्षा और संस्कार भरे जा रहे हैं. घोर आश्चर्य है कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में भी सप्त ऋषि गुरुकुल अपनी अलग पहचान बनाने में जुटा है. भले यहां सरकारी स्तर पर कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है, मगर इस गुरुकुल ने गुरु शिष्य परंपरा और प्राचीन गुरुकुल शिक्षा पद्धति को जीवंत रखा है. गुरुकुल में वैसे बच्चे तालीम लेने आते हैं, जो या तो अनाथ हैं, या जिनके माता-पिता अपने बच्चों को आधुनिक शिक्षा मुहैया कराने में अक्षम है. इस गुरुकुल का संचालन काफी कष्ट से होता है, मगर यहां के बच्चों के तालीम को देखकर एकबारगी मन मोहित हो जाता है. बच्चों के मुंह से प्रातः कालीन वंदना से लेकर रात्रि शयन वंदना तक निकलने वाला संस्कृत का श्लोक पूरे वातावरण को मंत्रमुग्ध कर देता है. गुरुकुल के आचार्य रत्नाकर शास्त्री और शेफाली मल्लिक बताते हैं कि झारखंड गठन के एक साल बाद यानी साल 2001 में जब पंडित प्रकाश नंद ने इस गुरुकुल की स्थापना की थी, तब ऐसा लग रहा था कि सरकार और प्रशासन की ओर से इसे आर्थिक और वैधानिक सहयोग मिलेगा, मगर 21 साल बाद भी सप्तऋषि गुरुकुल सरकारी मान्यता के लिए तरस रहा है.
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औद्योगिक घरानों से मिलती थी मदद
गुरुकुल के आचार्य बताते हैं कि पहले कुछ औद्योगिक घरानों के फंडिंग से गुरुकुल का संचालन होता था मगर धीरे-धीरे अब वे लोग भी हाथ खींचने लगे हैं. नतीजा बच्चों को भरपेट भोजन भी नहीं मिल पा रहा है. फिर भी आचार्य पंडित रत्नाकर शास्त्री साधना में जुटे हैं और यहां अस्त्र- शस्त्र और वेद की तालीम बच्चों को दे रहे हैं. उन्हें शेफाली मल्लिक सहयोग कर रही है. कुछ ऐसे भी बच्चे हैं, जिन्होंने यहां से तालीम लिया मगर अब वे यहीं रहकर भावी पीढ़ी को तालीम दे रहे हैं. इनका मानना है कि भारत आधुनिक विश्व गुरु तभी बन सकता है, जब बच्चों में नैतिक आध्यात्मिक और वैदिक संस्कार विद्यमान होंगे.
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वेद के साथ अस्त्र शिक्षा मिलती है बच्चों को
गुरुकुल के आचार्य बताते हैं कि यहां न केवल वेद बल्कि अस्त्र चलाने का भी ज्ञान बच्चों को दिया जाता है. यहां शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों को पूरी तरह से गुरुकुल परंपरा में ढाला जाता है. इनमें नैसर्गिक संस्कार विकसित किए जाते हैं. उसका जीता जागता प्रमाण यहां शिक्षा ग्रहण करने वाला सूरज आर्या है, जिसने अपने कठोर साधना से द्वापर युग के अर्जुन की याद ताजा कर देते हैं. कलियुग का अर्जुन सूरज आर्या इसी गुरुकुल में तालीम लेकर ऐसा साधक बन बैठा जो न केवल हाथों से बल्कि मुंह और पैर से भी हर मुद्रा में अचूक निशाने लगाने में पारंगत हो चुका है. मगर दुर्भाग्य देखिए इसकी तालीम गुरुकुल केंपस तक ही सीमित होकर रह. गई यदा-कदा रामनवमी अखाड़ों में करतब दिखाकर सुर्खियां बटोरता रहा, मगर सरकार, शासन- प्रशासन का ध्यान इस ओर कभी आकर्षित नहीं हुआ. एकाध बार सरकारी बाबुओं ने यहां का दौरा जरूर किया मगर, कोरा आश्वासन देकर चलते बने.
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गुरुकुल को जीवंत रखने के लिए प्रशासन मदद करें
किसी ने सूरज के अंदर छिपी प्रतिभा का आकलन नहीं किया. थक हार कर सूरज यही अपने आचार्य का सहयोग करने में जुट गया. धुनिक भारत को विश्व गुरु बनाने के अभियान में सूरज आज यहां तालीम लेने वाले बच्चों को अस्त्र-शस्त्र और वेद की शिक्षा दे रहा है. हालांकि झारखंड इस मामले में परिपूर्ण है. मगर वे सभी हाईटेक तालीम लेकर देश- दुनिया में नाम रोशन कर रहे हैं. दरअसल सप्त ऋषि गुरुकुल की स्थापना वैसे बच्चों के लिए की गई थी, जो अनाथ हैं. जो महंगी शिक्षा ग्रहण कर पाने में असक्षम है. खासकर नक्सल प्रभावित क्षेत्र के बच्चों में बौद्धिक विकास सृजन करने के उद्देश्य से इस गुरुकुल की स्थापना की गई थी, मगर झारखंड अपने गठन काल से ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है. जिसमें सांपड़ा का यह सप्त ऋषि गुरुकुल भी शामिल है. भारत वाकई में अगर आधुनिक विश्व गुरु बनना चाहता है, तो ऐसे गुरुकुल परंपरा को जीवंत रखने के लिए शासन- प्रशासन को आगे आना ही होगा.
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