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विधानसभा के आधिकारिक नतीजों से कुछ लोगों (मैं भी उनमें शामिल हूं) की निराशा का एक कारण शायद यह है कि हमने ‘बेवजह’ कुछ ज्यादा उम्मीद पाल ली थी. यदि कथित चुनावी गड़बड़ियों के आरोपों को गलत मान लें तो, इसमें अपनी सदिक्षा के आलावा मीडिया रिपोर्टिंग का भी योगदान रहा, जो जमीनी सच्चाई को भांपने में नाकाम रहा. वैसे राजनीतिक पंडितों और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्त्ता भी अक्सर ‘जनता’ के ‘जागरूक’ और समझदार होने को लेकर एक भ्रम में रहते हैं.
बेशक प्रकट में मुकाबला बेहद नजदीकी दिखता है. अनेक क्षेत्रों में अंतर इतना कम रहा कि कोई भी जीत सकता था और किसी भी पक्ष को बहुमत मिल सकता था. मगर कुछ तथ्यों को ध्यान में रखें तो नतीजा इतना भी चौंकानेवाला नहीं दिखेगा.
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हर कोई जानता और मानता है कि लोजपा के कारण जदयू को भारी नुकसान हुआ. उनमें से अधिकतर सीटें राजद के खाते में गयीं. गठबंधन/राजद को ओवैसी ने जो क्षति पहुंचायी होगी, उससे अधिक की भरपायी लोजपा ने कर दी.
आगे कुछ लिखने से पहले, मेरी नजर में, इस चुनाव के कुछ ठोस निष्कर्षों को रख देना जरूरी लग रहा है-
तेजस्वी यादव के रूप में एक सम्भावनायुक्त युवा नेता का उदय/स्थापित होना.
पहले से उभर चुके और इस चुनाव में अंततः बड़बोले साबित हुये एक अन्य युवा चिराग पासवान का ठिकाने लग जाना. हालांकि वे ‘हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे’ वाले अंदाज में नीतीश कुमार/जदयू को भारी क्षति पहुंचाने के लिए याद रखे जायेंगे.
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अपने ‘अंतिम चुनाव’ वाले बयान से पलट कर, अंततः एक बार फिर मुख्यमंत्री बन चुके नीतीश कुमार का निस्तेज होकर भाजपा का लगभग अनुचर बन जाना. हालाँकि उनके निस्तेज होने की बात प्रभाव की दृष्टि से ही सही है, जनाधार के लिहाज से नहीं.
भाजपा को मिली जीत में जदयू समर्थकों का भरपूर योगदान रहा, जिन्होंने उसके पक्ष में मतदान किया. लेकिन जदयू के पिछड़ने का एक बड़ा कारण यह रहा कि भाजपा समर्थकों ने जदयू को उसी तरह वोट नहीं दिया.
एक बार फिर स्थापित हुआ कि भाजपा अपराजेय नहीं है. और कम से कम राज्यों के चुनावों के सन्दर्भ में ‘मोदी मैजिक’ जैसा कुछ नहीं है.
हिन्दी इलाके में भी ओवैसी के रूप में भाजपा के एक (प्रत्यक्ष या परोक्ष) मददगार और कथित सेकुलर दलों के लिए एक खतरे का प्रादुर्भाव.
बिहार के ओबीसी समुदाय का बड़ा हिस्सा अब भी यादव नेतृत्व को पसंद नहीं करता है.
कि भाजपा को बिहार में भी ‘छोटे भाई’ की भूमिका से उबरना था; और वह इसमें सफल रही.
जहाँ भी क्षेत्रीय विकल्प है, कांग्रेस का जनाधार तेजी से ख़त्म हो रहा है.
कि हिंदू अतिवाद/सांप्रदायिकता को ‘देशभक्ति’ की ढाल हासिल है, आत: उससे मुकाबले के लिए काफी सतर्कता की जरूरत है.
और सबसे निर्विवाद यह कि इस वाम दलों के आलावा शायद ही किसी अन्य दल का कोई प्रत्याशी जाति, मजहब, गैजरूरी उन्माद के बगैर अपने काम और समाज से जुड़ाव के बल पर जीता होगा.
अब जरा ‘जनता’ के ‘जागरूक’ और ‘समझदार’ होने को लेकर भ्रम की बात. मेरी समझ से सच यही है कि हमारा समाज (कमोबेश पूरे देश का) जाति और धर्म में विभाजित है. और अपवादों को छोड़ कर वह जाति, मजहब, कुनबों के आधार पर मतदान करती है. कहीं कहीं और कभी दूसरे मुद्दे- भाषा, क्षेत्र आदि- भी प्रभावी हो सकते हैं, पर मूल रूप से यह ‘जागरूक’ जनता संकीर्ण आधारों पर ही मतदान करती है.
एक बात और कि ‘जनता’ कोई एक इकाई नहीं है. यह बात बिहार सहित पूरे देश के सन्दर्भ में सच है. मान लें कि बिहार में छह करोड़ मतदाता हैं, तो प्रत्येक मतदाता ‘जनता’ भी है, जो खुद अकेले फैसला करता है कि किसे वोट देना या नहीं देना है. ऐसे फैसले सामूहिक भी होते हैं, पर सिद्धांततः भी यह मतदाता का निजी फैसला होता है. तब यह कहना कि ‘बिहार की जनता ने’ या देश की जनता ने फलां दल/नेता के पक्ष में जनादेश दिया है, पूरी तरह सही नहीं है. कभी भी ‘जनता’ एक जगह जमा होकर सामूहिक रूप से ऐसा फैसला नहीं करती है. हाँ, जिस दल या प्रत्याशी के पक्ष में ‘बहुमत’ होता है, उसे विजयी माना जाता है; और तकनीकी रूप से जनादेश को उसके पक्ष में कहा जा सकता है.
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बिहार के इन नतीजों का कारण समझने के लिए 2014 के संसदीय चुनाव और उसके तुरत बाद हुए विधानसभा चुनाव नतीजों को याद कर लें. इसके भी पहले बिहार की सामाजिक बनावट, जो इस राज्य की राजनीतिक खेमेबंदी का आधार है, को जान लेते हैं. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के प्रभाव के दो खेमे (जिनको सामाजिक न्याय के पक्षधर’ कहने का भी प्रचलन है), जो क्रमशः यादव और कुर्मी-कोयरी आदि पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों का जमावड़ा है; और तीसरा सवर्ण हिन्दुओं के साथ खड़े कुछ अन्य ऐसे (तमाम जातियों के) हिंदुओं का खेमा, जिनके अंदर संघ ने ‘हिन्दू होने के गर्व’ का और गैर हिन्दुओं के प्रति संदेह और नफरत का भाव भर दिया है. मुसलिम मत स्वाभाविक ही उन दल/खेमे को मिलता है, जो भाजपा के खिलाफ हो. जाहिर है, इनमे से दो खेमों का साथ होना जीत की लगभग गारंटी है.
2014 के आम चुनाव में तीनों खेमे अलग अलग लड़े, भाजपा आसानी से जीत गयी. अगले साल 15 के विधानसभा चुनाव में लालू-नीतीश साथ हो गये, आसानी से जीते. दोनों चुनावों में तीनों खेमों को मिले मत का प्रतिशत भी लगभग सामान रहा. तो फिर इस चुनाव में जब नीतीश भाजपा के साथ थे, तो नतीजा एनडीए के पक्ष में जाए, यह तो स्वाभाविक ही था. फिर भी राज्य सरकार के खिलाफ कथित असंतोष, कोरोना संकट में सरकार/नीतीश कुमार की संवेदनहीनता, मंहगाई और बेरोजगारी आदि के कारण यह कयास लगाया गया कि लोग बदलाव चाहते हैं. लेकिन इसके पीछे शायद बदलाव के समर्थकों, यानी एनडीए विरोधी लोगों की सदिक्षा ही थी.
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नतीजों के बाद पराजित पक्ष अक्सर चुनाव में धांधली की शिकायत करता ही है. इस बार भी ऐसी अनेक गंभीर शिकायतें हैं. और यह भी तय है कि अब इन पर कोई सुनवाई नहीं होगी. सरकार भी बन ही गयी है. यानी यही फायनल नतीजा है.
फिर भी तीन चरणों के नतीजों को देखें तो यह सवाल जेहन में उठता ही है कि आखिर पहले चरण में इतना आगे रहने के बाद दूसरे और तीसरे चरण में महागठबंधन इतना कैसे पिछड़ गया. जरा नतीजों पर गौर करें-
पहला फेज : राजद-43, भाजपा-21
दूसरा फेज : राजद-42, भाजपा-52
तीसरा : राजद-20; भाजपा-53. ऐसा कैसे हुआ
कहा जा रहा है कि पहले चरण में पिछड़ने का एहसास हो जाने पर भाजपा ने रणनीति बदली, पूरा जोर लगा दिया. यानी? एक- भरी मात्र में पैसे झोंके गये (यानी बांटे गये). दो- राज्य के मुद्दों के छोड़ कर पुलवामा, बालाकोट, धारा 370, आतंकवाद, ‘भारत माता’ आदि पर जोर दिया गया.
सच क्या है, पता नहीं. पर बाद के दो चरणों में हुआ बदलाव चकित करनेवाला तो है ही.
अब देखना यह है कि आगे भाजपा और अपनी औकात खो चुके नीतीश कुमार का रिश्ता कब तक सहज रहता है.
अंत में- वाम दलों को मिली सफलता ने दिखाया है जन सरोकार और संघर्ष की राजनीति की प्रासंगिकता अब भी बनी हुई है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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